अपनी बात

12 राज्य 61 संस्करण वाला दैनिक भास्कर पहल के माध्यम से ज्ञानी के चित्र में पुरुष के चित्र पर तो सवाल उठा दिया, पर खुद क्या कर रहा हैं?

12 राज्य 61 संस्करण वाला दैनिक भास्कर पहल के माध्यम से ज्ञानी के चित्र में पुरुष के चित्र पर तो सवाल उठाता हैं, पर बिहार-झारखण्ड में वर्षों बीत जाने के बावजूद एक भी ज्ञानी महिलाओं को संपादक नहीं बनाता है, वाह री सोच। ऐसी सोच पर आप क्या कहेंगे ये तो आप जानिये, पर मैं इसी को लेकर आपके समक्ष ऐसे लोगों के दोहरे चरित्र को रख रहा हूं, आप विचार करें।

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर दैनिक भास्कर ने अपने प्रथम पृष्ठ पर प्रमुखता से लिखा है – “अंतराष्ट्रीय महिला दिवस आज, देश की 70 करोड़ महिलाओं को समर्पित भास्कर का विशेष अंक”। उसके बाद उसने स्वयं के द्वारा “भास्कर पहल” का शंखनाद किया है। उस शंखनाद का शीर्षक है – स्कूली किताबों में पुरुष सैनिक, महिलाएं नर्स ही क्यों? भास्कर इस असमानता के खिलाफ। इसी शीर्षक के नीचे एक अनाम संत का चित्र जारी किया है और लिखा है – ज्ञ से ज्ञानी के चित्र में पुरुष ही क्यों? हमें यह तस्वीर और सोच बदलनी चाहिए।

सचमुच यह तस्वीर और सोच बदलनी चाहिए, पर ऐसा कहने और लिखने का अधिकार दैनिक भास्कर को किसने दे दिया? यह सवाल दैनिक भास्कर से इसलिए भी, क्योंकि दैनिक भास्कर ने ही इस असमानता के खिलाफ समाज से सवाल पूछे हैं। क्या दैनिक भास्कर बतायेगा कि उसके अखबार जो 12 राज्यों से निकलते हैं, जिसके 61 संस्करण हैं। उन अखबारों में कितने महिला संपादक हैं?

प्रमाणस्वरुप जहां मैं रहता हूं। उस रांची में 12 साल हो गये भास्कर अखबार को छपते, इसी दौरान कितने पुरुष संपादक आये और गये, पर एक भी महिला संपादक मैंने यहां नहीं देखा। यही हाल पटना से निकलनेवाले दैनिक भास्कर के हैं। आठ वर्ष वहां भी बीत गये भास्कर को छपते, पर एक भी महिला संपादक मैंने वहां नहीं देखा और जब हमने, यहां के नागरिकों ने नहीं देखा तो इसका मतलब तो यहीं निकला न, कि दैनिक भास्कर प्रबंधन और वहां काम करनेवालों को लगता है कि महिलाएं अखबार के संपादन करने के योग्य नहीं होती हैं, तभी तो उन्हें संपादक नहीं बनाया जाता।

मतलब साफ है कि दैनिक भास्कर की नजरों में महिलाएं ज्ञानी नहीं होती। जब ज्ञानी नहीं होती तो फिर आपके द्वारा यह थोथी पहल की आवश्यकता क्यों पड़ गई, क्या झारखण्ड और बिहार की जनता मूर्ख है? रही बात दैनिक भास्कर के हर पहल की प्रशंसा करने की। तो जान लीजिये, दैनिक भास्कर के हर थोथी दलीलों की प्रशंसा करने का हर शहर में एक अपना वर्ग है। जो परजीवी है। जो एक दूसरे की मदद करता है। मतलब तुम मुझे अपने अखबार में हर दम बेवजह-बेमतलब का स्थान देते रहो। हम भी बेवजह-बेमतलब की तुम्हारी जय-जय करते रहेंगे।

ये होते हैं- शहर के छुटभैये नेता, राजनीतिक दलों के नेता, एनजीओ के लोग, कोचिंग का व्यवसाय चलानेवाले, घिसे-पिटे तथाकथित साहित्यकार-कवियों का समूह आदि। जिनकी किताबें व कविताओं व लेखन को कोई देखता भी नहीं, फिर भी ऐसे अखबार उन घिसे-पिटे साहित्यकारों-कवियों को सुभद्रा कुमारी चौहान-महादेवी वर्मा की पंक्तियों में ला खड़ा करने की कोई भी कोशिश नहीं छोड़ा करते।

याद करिये कुछ ही दिन पहले भास्कर ने एक और पहल की थी कि वो वैवाहिक विज्ञापनों में बेटियों का रंग नहीं छापेगा और इन लोगों ने इस पहल के स्वागत का ढिंढोरा पिट दिया, पर दैनिक भास्कर से ये नहीं पूछा कि इससे ज्यादा तो महत्वपूर्ण है कि आप महिलाओं के सम्मान से नहीं खेंलेंगे, इसका प्रण करें। पर ये पूछने के लिए जिगर चाहिए न, वो जिगर तो है ही नहीं, क्योंकि जैसे सवाल आप दागेंगे, दैनिक भास्कर अपने यहां से आपको किक आउट करेगा और किक आउट करने से फिर साहित्यिक पेज पर स्थान कैसे मिलेगा या बेमतलब का प्रचार कैसे मिलेगा?

सच्चाई यह है कि दैनिक भास्कर महिलाओं का दिल से सम्मान ही नहीं करता। उसकी एक और बानगी देखिये। हमें अच्छी तरह याद है। बात जुलाई-अगस्त 2010 की है। उस वक्त दैनिक भास्कर की रांची से लांचिग होनेवाली थी। पूरे शहर को दैनिक भास्कर के होर्डिंग-बैनर से पाट दिया गया था। उसी दौरान मैंने महिलाओं के प्रति दैनिक भास्कर की घटिया सोच को कई जगहों पर प्रस्फुटित होते देखा। मेरी नजर रांची जंक्शन के होटल बीएनआर के समीप वाली होर्डिंग पर गई। जिस पर लिखा था – अब आपके घर पर आपकी बीवी की नहीं, आपकी चलेगी मर्जी।

जिस पर कई संभ्रांत लोगों ने उस वक्त कड़ी टिप्पणियां की थी और कहा था कि ये तो महिलाओं का अपमान है। अगर दैनिक भास्कर ऐसा विज्ञापन डालेगा तो हमें भी इस अखबार के प्रति सोचना होगा। इसी को लेकर हमने उस वक्त विद्रोही24 डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट इन में एक आर्टिकल भी छापा था। जिसे आप आज भी देख सकते हैं। ये आर्टिकल हमने 23 अगस्त 2010 को छापा था। हेडिंग था – “खबरदार झारखण्डियों, यहां सिर्फ मेरी मर्जी चलेगी।”  

मेरा तो स्पष्ट मानना है कि आखिर दैनिक भास्कर अपने में सुधार क्यों नहीं लाता? वो दोहरा मापदंड क्यों अपनाता है, वो खुद ही पहले क्यों नहीं स्वीकार करता कि महिलाएं स्वतः ज्ञानी होती है, उनके ज्ञान पर कोई सवाल उठा ही नहीं सकता? वो क्यों ‘हाथी के दांत दिखाने को कुछ और, और खाने को कुछ और’ वाली लोकोक्ति को चरितार्थ करता है। क्या वो मान लिया है कि हमारा समाज भूलक्कड़ और स्वार्थी हो गया है?

दैनिक भास्कर कुछ भी गलत करेगा, उसे शिरोधार्य करेगा। अगर ऐसी सोच हैं तो इस सोच के खिलाफ बुद्धिजीवियों को उतरना होगा और कहना होगा कि पहले जो आप दूसरों से पहल के द्वारा जो काम करवाना चाहते हैं, वो आप खुद करें, नहीं तो आनेवाले समय में आप को काफी दिक्कत का सामना करना पड़ेगा। राजनीतिक पंडित तो साफ कहते है कि जो जितना ढिंढोरा पीटे, समझ लीजिये वो धूर्त हैं और ऐसे धूर्तों से समाज को बचाना हर बुद्धिजीवियों का फर्ज बनता है।