राजनीति

1980 में डेढ़ हजार वेतन पानेवाला कभी भी गरीब नहीं हो सकता CM साहेब

कल की ही बात है, मुख्यमंत्री रघुवर दास कौशल विकास को लेकर खेलगांव में एक बड़ी भीड़ को संबोधित करने के दौरान दिये जा रहे थे। उन्होंने भाषण के दौरान कहा कि गरीबी क्या होती है? वे जानते हैं। वे इसका प्रमाण देते हुए कहते हैं कि उन्होंने खुद मजदूरी की है। वे बताते है कि 1977 में जब उनके पिता टाटा कंपनी से सेवानिवृत्त हुए, तब उन्होंने 1980 में टाटा कंपनी में 1500 रुपये में अस्थायी मजदूर के रुप में नौकरी शुरु की। ये सीएम का बयान है। जो लोग 1977-80 के समय के हैं, उन्हें पता होगा कि उस वक्त इतना वेतन ग्रुप बी में काम करनेवाले नये- नये सरकारी कर्मचारियों को भी नहीं प्राप्त होता था। ग्रुप सी और ग्रुप डी की क्या हालत होगी, आप समझ सकते है।

जबकि बात सीएम कर रहे थे, उस वक्त कड़ुआ तेल का कीमत 12 रुपये प्रति किलो था, और उस वक्त इंदिरा शासन के खिलाफ जनता पार्टी के लोग नारे लगाते थे, देखो रे इंदिरा का खेल, 12 रुपये कड़ुआ तेल और जैसे ही जनता पार्टी का शासन आया, इन्हीं के शासन में लोगों ने 15 रुपये कड़ुआ तेल का स्वाद चखा। जरा कल और आज की स्थिति देखिये। जब मुख्यमंत्री रघुवर दास डेढ़ हजार रुपये की नौकरी कर रहे थे, तब वे 15 रुपये कड़ुआ तेल खा रहे थे, आज कड़ुआ तेल की कीमत 120 से 130 रुपये प्रति किलो है और ये अपने युवाओं वेतन के रुप में क्या दिलवा रहे हैं? चिन्तन करिये। यानी जब उनके ही पार्टी के शासन काल में जब 15 रुपये कड़ुआ तेल था तब वे मजदूरी के रुप में इसके 1000 गुणा अधिक वेतन पाते थे, और आज जब वे सत्ता के सर्वोच्च सिंहासन पर है, तब वे अपने युवाओं को आज के कड़ुआ तेल की कीमत के हिसाब से पचास गुणा अधिक वेतन दिलवा रहे हैं, अब सरकार बताये कि गरीब कौन है या था। रघुवर दास या आज का युवा।

कौन झूठ बोलकर युवाओं को बरगला रहा है, सत्य का अन्वेषण करिये, झूठ के खिलाफ आंदोलन करिये।

जब सन् 2000 में झारखण्ड बना, तब यहां के माननीयों के वेतन 18 से 20,000 रुपये थे, आज माननीयों के वेतन दो से ढाई लाख रुपये हो गये। बड़े-बड़े उच्चाधिकारियों के वेतन एक लाख से उपर हैं और भ्रष्टाचार के अंतर्गत मिलनेवाले कमीशन और रिश्वत की राशि को जोड़ दें तो यह करोड़ों में जायेगी, पर आज का मजदूर का प्रतिदिन की कमाई सरकारी आदेशानुसार 168 रुपये प्रति दिन है, आप किसी भी मनरेगा के मजदूर से पुछ सकते है। कल जो पांच से छःहजार प्रतिमाह की वेतन पर जिन्हें नियुक्ति पत्र मिला है, उन्हें पता ही नहीं कि जहां वे नौकरी करने जायेंगे, वहां उनका इतने में गुजारा होना मुश्किल है, और वे स्वयं वहां से लौट कर आयेंगे।

कौशल विकास विभाग में ही कार्य कर रहे एक अधिकारी ने अपना नाम न प्रकाशित करने के शर्त पर www.vidrohi24.com  को बताया कि, जिन कंपनियों ने नौकरी देने का नियुक्ति पत्र दिया है, वे बहुत ही प्रसन्न है, क्योंकि उन्हें ये सौदा बहुत अच्छा लग रहा है, कौशल विकास के नाम पर सरकार से ही पैसा लो, और उन्हीं के पैसों को कुछ लोगों को नियुक्ति पत्र के नाम पर पांच-छः हजार की नौकरी थमा दो, और स्थिति ऐसा पैदा कर दो कि नियुक्ति पानेवाला स्वयं भाग खड़ा हो, और इससे खुद कानूनी अड़चनों से भी बच गये और शुद्ध मुनाफा भी हो गया।

भाकपा माले के वरिष्ठ नेता विनोद कुमार सिंह कहते है कि सरकार का ये कथन की वे युवाओं को नियुक्ति पत्र देकर उनके माथे से बेरोजगारी का कलंक मिटा रहे है, ये सफेद झूठ है। पांच-छः हजार रुपये की नौकरी से इन बेरोजगारों का क्या होगा?  मुख्यमंत्री स्वयं कहते है कि 1980 में डेढ़ हजार रुपये की उन्हें नौकरी मिली थी, मुख्यमंत्री रघुवर दास को मालूम होना चाहिए कि उस वक्त का डेढ़ हजार आज के पचास हजार रुपये के बराबर है, अगर वे यहां के युवाओं को पचास-पचास हजार रुपये की नौकरी दिलवाते, तब ये उद्गार प्रकट करते तो अच्छा लगता। पांच-छः हजार की नौकरी और उस पर बीपीएल की सर्टिफिकेट कुछ बात पच नहीं रही। जहां ये बच्चे नौकरी के लिए जायेंगे, वहां उन्हें बीपीएल में भी रखा जायेगा या नहीं कहना मुश्किल है। इनका हाल तो आज के मजदूरों से भी बदतर होगा।

विनोद कुमार सिंह कहते है कि 1977-80 के समय मजदूरों और अधिकारियों में वेतन की इतनी असमानताएं नहीं थी। लोग मैट्रिक-इंटर कर लिये, नौकरी मिल जाया करती थी, आज तो लोग एमए-एमएससी, बीबीए-एमबीए करके घुम रहे हैं, राज्य सरकार को चाहिए कि वह इनका मजाक न उड़ाए, जिस प्रकार सरकार इन बेरोजगारों का बड़ा-बड़ा आयोजन कर मजाक उड़ा रही है, सरकार को एक दिन ये सब महंगा पड़ेगा, क्योंकि जब इन युवाओं को हकीकत पता चलेगा तो वे स्वयं ही इस सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए आगे आयेंगे।