‘आशीर्वाद’ कोई दुकान में बिकनेवाली वस्तु नहीं कि लिया और अपनों को थमा दिया, ‘आशीर्वाद’ देने और लेने के योग्य भी बनिये
मेरे प्यारे बच्चों,
खुब खुश रहो।
जहां भी रहो, जैसे भी रहो। देश की सेवा करते रहो। वे लोग बहुत भाग्यशाली है। जो जिस हाल में हैं, पर देश-सेवा से कभी विमुख नहीं होते हैं। देश-सेवा भाग्यशालियों को ही प्राप्त होता हैं, सभी को यह मौका नहीं मिलता। अब आओ कुछ बात करें। बहुत दिनों से तुम लोगों से बातचीत नहीं हो पा रही थी। सोचा, आज मन भर बात करुंगा। एक बात और मेरी बातों को ध्यान से पढ़ना, ये जरुरी भी है। आज मैं तुम्हें ‘आशीर्वाद’ की ताकत के बारे में बताउंगा।
हिन्दी वर्णमाला में एक अक्षर है। जो स्वर वर्ण कहलाता है। वो है – आ। आ से ‘आह’ भी होता है और आ से ‘आशीर्वाद’ भी। आह किसी की जिंदगी तबाह कर देता हैं तो आशीर्वाद जिंदगी बना भी देता है। बिहार में एक लोकोक्ति बहुत ही प्रचलित है – बाढ़हु पूत पिता के धर्मे, खेती उपजे अपना कर्में अर्थात् बच्चे माता पिता के धर्म या सुन्दर-जनहित-धर्मार्थ कार्यों से आगे बढ़ते हैं, और खेती अपने कर्म से अर्थात् मेहनत से आगे बढ़ती है, चूंकि भारत सदियों से कृषि प्रधान देश रहा है, इसलिए इस लोकोक्ति में खेती की बात को प्रधानता दी गई है।
यह लोकोक्ति बताती है कि बच्चे भी उसी के आगे बढ़ेंगे, जिनके कार्य सुन्दर और जनहित में होंगे, जैसे राम दशरथ के घर ही जन्म लेते हैं, कृष्ण वसुदेव के घर में ही जन्म लेते हैं, और नन्द बाबा के घर का यश बढ़ा देते हैं। इसलिए माता-पिता को भी चाहिए कि वे कोई ऐसा कार्य न करें, कि उनके पापों का दुष्परिणाम बच्चों को भुगतना पड़े।
अब कबीर की पंक्ति को देखिये “निर्बल को न सताइये, जाकी मोटी हाय, मरे मृग के छाल से लौह भस्म हो जाये।” इस कविता का भावार्थ इतना आसान है कि हमें नहीं लगता कि इसकी विवेचना करने की भी जरुरत है। अगर आप किसी गरीब को सताते हैं, उसके हक को मारते है, तो निश्चित जानिये, आप को नीचे एक न एक दिन जाना ही है, आपको नीचे जाने से कोई रोक नहीं सकता।
अब तुलसी को देखिये, वे क्या कहते है – सुनहु भरत भावी प्रबल, बिलखि कहे मुनिनाथ। लाभ हानि जीवनु मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ।। यह दोहा भरत-वशिष्ठ प्रसंग में हैं, जब दशरथ जी ने प्राण त्याग दिया है, अयोध्या में शोक की लहर है, भरत के एक सवाल के जवाब में वशिष्ठ जी कहते है कि हे भरत, भावी जब प्रबल होती है, तो अपना प्रभाव दिखा जाती है, इस जगत में लाभ-हानि, जीवन-मरण, यश-अपयश सभी ईश्वर के अधीन है, वो समयानुसार मनुष्य को उचित समय पर प्रदान कर ही देता है। इसमें किसी को दोष देना उचित नहीं।
अब ईश्वर किसी को लाभ-हानि, जीवन-मरण या यश-अपयश कैसे देता है? ये सब मनुष्य के कर्म के अधीन है, जिसने जैसा कर्म किया है, उस कर्म के अनुसार उचित समय पर उस व्यक्ति को जो जैसा बोया है, उसे प्राप्त हो जाता है, उसमें कही कोई किन्तु-परन्तु नहीं। पर, इन सबसे बड़ी जो चीज है, वह है – आशीर्वाद।
जो आपके द्वारा किये गये पूर्व के उन कर्मों जो अज्ञानतावश हुए हैं, जिसका दुष्प्रभाव आपको झेलना ही झेलना है, उन अज्ञानतावश कर्मो के दुष्परिणामों से वह आपको आराम से निकाल देता है, यह है आशीर्वाद की ताकत। हां, यह अवश्य याद रखियेगा कि अज्ञानतावश भूलवश किये गये, वैसे कर्म जिनके परिणाम सुखद नहीं आनेवाले हैं, पर जब आप जान-बूझकर कुकर्मों में लगे रहते हैं तो उसके गंभीर परिणाम आपको स्वयं भुगतने पड़ेंगे।
कोशिश करिये कि कभी किसी का आपकी ओर से अनादर न हो, अपमान न हो। अगर, भूलवश हो जाये, तो यथाशीघ्र उससे क्षमा-याचना कर लें, यह आपके द्वारा किये गये कर्मों के दुष्परिणाम पर मलहम लगाने का काम करते है। आशीर्वाद क्या है? आशीर्वाद वह शब्द है, जिससे व्यक्ति जीवन में आनेवाली समस्त बाधाओं पर विजय पाकर, अपने जीवन को आनन्दमय बना लेता है।
जरा सोचियेगा कि दुनिया का कोई माता-पिता, चाहे वह भारतीय या अमरीकन ही क्यों न हो? जब उनके बेटे-बेटियां या सगे-संबंधी अपनी परम्परा के अनुसार प्रणाम करते हैं तो वे क्या कहते हैं – वे कभी धनवान होने का आशीर्वाद नहीं देते, क्योंकि धन से व्यक्ति कुछ खरीद जरुर सकता हैं, पर उससे वह आनन्द प्राप्त कर ही लेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं। इसलिए वे अपने लोगों को कहते हैं – खुश रहो, क्योंकि अंततः जो आपने प्राप्त किया हैं, उस वस्तु से आपको आनन्द मिले, या हमेशा आप आनन्द में गोते लगाते रहे, ऐसी ईश्वरीय कामना उनकी होती है।
आशीर्वाद कैसे प्राप्त होती है? आशीर्वाद उन्हीं को प्राप्त होती है, जो सभी का दिल जीतते हैं, जो किसी से घृणा नहीं करते, जो ईमानदारी से कमाये धन से अपनी जिंदगी संवारते तथा दूसरों को भी आनन्द देने में जुटे रहते हैं, ऐसे लोगों पर ईश्वरीय कृपा सदैव बनी रहती हैं, और उनके जीवन में किसी भी प्रकार का अभाव नहीं रहता।
आशीर्वाद देने का हक – आशीर्वाद सभी को देने का हक नहीं है। आशीर्वाद माता-पिता अपने बच्चों को, गुरु अपने शिष्य को, बड़े अपने से छोटे को दे सकते हैं, पर इनके आशीर्वाद तभी सफल होते हैं, जब सचमुच में ये आशीर्वाद देने के योग्य हो। कभी-कभी माता-पिता या गुरु अपने प्रिय लोगों को आशीर्वाद तो दे देते हैं, पर सच पूछिये तो उनके पास आशीर्वाद की पूंजी नहीं होती, वे हमेशा बकाये में चल रहे होते हैं, ऐसे लोगों का आशीर्वाद देना और न देना दोनों बराबर है।
जैसे अगर आपको किसी से पांच सौ रुपये कर्ज लेनी हो, तो आपको पांच सौ रुपये का कर्ज वही देगा, जिसके पास पांच सौ रुपये मौजूद हो, अगर उसके पास पांच सौ रुपये है ही नहीं, वो भला आपको क्या दे पायेगा? ठीक उसी प्रकार जिसके पास आशीर्वाद का कोष खाली है, वह आपको आशीर्वाद क्या देगा?
मैं देखता हूं कि आजकल जब लोग अपने बेटे-बेटियों की शादी करते हैं, या कोई युवक/युवती जब शादी करते हैं, तो अपने रिसेप्शन में कामना करते हैं कि बड़े-बड़े नेता, प्रशासनिक अधिकारी, बड़े-बड़े धर्मगुरु उसके रिसेप्शन में आये, ये लोग जाते भी हैं, पर सच पूछिये तो इनके पास धन देने के सिवा, भौतिक वस्तु देने के सिवा इनके पास कुछ नहीं होता, आशीर्वाद तो बहुत बड़ी चीज हैं, क्योंकि आशीर्वाद का कोष इनका सदैव खाली रहता है, क्योंकि ये अपने जीवन में धर्म यानी सबको आनन्द देने का कार्य करते ही नहीं, बल्कि आम लोगों की खुशियों को रौंदकर अपना घर भरने में लगे होते हैं, तो इनके पास आशीर्वाद की पूंजी कहां से होगी कि ये वर-वधू को दे देंगे।
जबकि आप किसी के वैवाहिक कार्ड को देखें तो उसमें यहीं लिखा रहता है कि “के पावन परिणय के मांगलिक वेला में आप सपरिवार पधारकर वर-वधू को आशीष प्रदान कर हमें अनुगृहीत करें।” यही वाक्य करीब-करीब सभी वैवाहिक कार्डों में लिखा होता है, पर आशीर्वाद लेने की आकांक्षा रखनेवाले और देनेवालों को पता ही नहीं होता कि उन्होंने आशीर्वाद दिया भी या लेनेवाले लिया भी कि ऐसे ही व्यापारिक प्रतिष्ठान में जैसे पैसे देकर सामान खरीदते हैं, ठीक उसी प्रकार वैवाहिक समारोह में गये, गिफ्ट दिये और उसके बदले खाने खाये और चलते बने।
आशीर्वाद कैसे प्राप्त होता है – जो भी पहुंचे हुए लोग हैं, या जिनके पास आशीर्वाद रुपी कोष भरा-पड़ा हैं, वे आशीर्वाद ऐसे ही सभी को लहसून-प्याज की तरह नहीं बांट देते। जिन्हें चाहिए, उसी योग्य को वे प्रदान करते हैं। जैसे गांधारी ने अपने बेटे दुर्योधन के शरीर को कोई क्षति नहीं पहुंचा सकें, इसका तो प्रबंध कर दिया था, पर उसे विजयी भव का आशीर्वाद नहीं दिया, अगर गांधारी अपने बेटे को विजयी भव का आशीर्वाद दे देती तो निश्चय था कि श्रीकृष्ण भी गांधारी के आगे फेल हो जाते।
ठीक उसी प्रकार, एक प्रसंग अर्जुन और दुर्योधन का श्रीकृष्ण के पास एक साथ पहुंच जाना और अर्जुन तथा दुर्योधन द्वारा श्रीकृष्ण से कुछ मांगने की बात करना, दुर्योधन तो श्रीकृष्ण से नारायणी सेना मांगी पर याद रखिये अर्जुन ने श्रीकृष्ण को श्रीकृष्ण से ही मांग लिया और ये आशीर्वाद कितना गहरा था, वो तो जो महाभारत पढ़ते हैं या पढ़े हैं या पढ़ेंगे, वे ही जानेंगे।