सरहुल पर रांची के जोरार बस्ती के युवाओं ने लिया संकल्प, सबको दिखाया रास्ता, कैसे लड़े कोरोना से?
झारखण्ड की राजधानी रांची के नामकोम प्रखण्ड का जोरार बस्ती। आज सरहुल पर्व है। आदिवासियों का एक प्रमुख पर्व। जिसमें सारे आदिवासी थिरकते हैं, नाचते हैं, गाते हैं, उमंग व उल्लास में रहते हैं, पर आज इस बस्ती में ऐसा कुछ भी नहीं दिख रहा। तो आखिर दिख क्या रहा हैं? दिख रहा हैं – सिर्फ और सिर्फ कोरोना से अपने गांव को बचाने की जागरुकता। जो शहरी क्षेत्रों में रहनेवाले मुहल्लों के लोगों के बीच नहीं दिखती।
जरा देखिये, युवाओं/किशोरों ने क्या किया हैं? अपने गांव के ठीक बाहर एक बैरियर बना डाला है, जिसमें साफ लिखा हैं- बाहरी लोगों का प्रवेश बंद, जोरार बस्ती। ये युवा/किशोर किसी से जोर-जबर्दस्ती नहीं करते। ये हाथ जोड़कर प्रणाम/जोहार की मुद्रा में खड़े हो जाते हैं।
वे साफ कहते हैं कि ये बस्ती कोरोनामुक्त हैं और हम यहां के लोगों को न तो कही आने दे रहे हैं और न जाने दे रहे हैं, क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी का कहना है कि जो जहां हैं, वहीं रहे, ऐसे में केन्द्र/राज्य सरकार के आदेशों का पालन करना और कोरोना से लड़ने की जिम्मेवारी हम सब की हैं।
यही नहीं, इन किशोरों/युवाओं ने कोरोना से लड़ने के लिए अपनी बस्ती में मास्क और सेनिटाइजर की भी व्यवस्था की हैं। ये किसी अतिआवश्यक कामों से गांव से बाहर जानेवाले लोगों एवं अंदर जानेवाले लोगों को सेनिटाइज करना नहीं भूलते। इन्होंने सरहुल पर्व पर संकल्प लिया है कि वे अपनी बस्ती में यह जागरुकता घर-घर फैलायेंगे कि सभी को कोरोना से लड़ना हैं तो मास्क पहनना होगा, घर से नहीं निकलना होगा, खुद को सेनिटाइज्ड करना होगा, तथा अन्य बस्तियों को भी इसके लिए जागरुक करना होगा।
जोरार बस्ती के इन युवाओं की सोच का प्रभाव अन्य बस्तियों पर भी पड़ रहा हैं, सरहुल पर्व को इस प्रकार नये तरीके से मनाने का यह उत्साह जोरार बस्ती के युवाओं ने जो दिखाया है, वह काबिले तारीफ हैं, हमारे विचार से ऐसे युवाओं को प्रोत्साहित करना चाहिए, साथ ही शहरों में रह रहे युवाओं को भी इन आदिवासी युवकों से सीख लेनी चाहिए कि ऐसे हालात में कोरोना से कैसे लड़ा जा सकता है?