जिस भोजन में स्वच्छता, ग्राह्य योग्य वस्तुएं तथा सम्मान सम्मिलित हैं, वही भोजन सर्वश्रेष्ठ है, ऐसे ही भोजन ग्रहणीय हैं
अनादिकाल से समस्त जीवों की पहली आवश्यकता – भोजन ही रही है। पशु और मनुष्य में भोजन को लेकर केवल एक ही अंतर है। पशु को सिर्फ भोजन चाहिए, वह भोजन कैसे उपलब्ध हुआ, उसकी वो चर्चा या उस पर ध्यान नहीं देता, जैसे भी उसे प्राप्त हुआ, उसे वो ग्रहण करता है और मनुष्य ऐसा नहीं करता। उसे भोजन चाहिए अवश्य, पर वो भोजन स्वच्छ, ग्राह्य योग्य तथा सम्मानपूर्वक होना चाहिए, जहां भी उसे भोजन में स्वच्छता का अभाव, अग्राह्य-अभक्ष्य पदार्थ या भोजन ग्रहण करने/कराने में अपमानित होने का भय होता है, वह उस भोजन का परित्याग कर देता है।
शायद यही मनुष्य और पशु में भोजन को लेकर सबसे बड़ा अंतर है। लोग यह भी कहते है कि इससे मनुष्यता और पशुता में अंतर भी झलक जाता है। कही जब कोई भोजन को लेकर इन तीनों चीजों पर ध्यान नहीं देता, लोग कह बैठते है कि क्या जी तुम जानवर हो क्या? या लोग कह देते है कि उसने, उसे जानवर की तरह खाना खिला दिया।
क्या है भोजन?
भोजन वह पदार्थ या वस्तु है, जिसे पाकर कोई जीव अपने शरीर को ऊर्जा व शक्ति प्रदान करता है, जिससे उसके शरीर का पोषण होता है, तथा उस पोषण से उसका मन-मस्तिष्क उज्जवल तथा सदैव सक्रिय रहता है। भोजन के छः अवयव है – कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वसा, विटामिन्स, खनिज लवण और जल यानी कोई भी व्यक्ति या पशु अगर भोजन करता है, तो वह इन्हीं छह अवयवों को प्राप्त करता हैं, इससे अधिक कुछ नहीं।
आप देखते होंगे कि जब कोई बच्चा जन्म लेता है, तो उसे मां दुध पिलाती है, डाक्टर तो कहते हैं कि जन्म लेने के बाद बच्चों को छः माह तक दुध ही पिलाना चाहिए, पानी का सेवन नहीं कराना चाहिए, यानी दुध को संपूर्ण आहार माना जाता है। आयुर्वेद में तो ज्यादातर औषधियां दुध या मधु के साथ लेने का ही प्रावधान है, जिससे शरीर का पोषण और बिमारियों से लड़ने के लिए आरोग्यकारी शक्तियां प्राप्त होती रहे।
सर्वश्रेष्ठ भोजन किसे कहते हैं?
भोजन भी नाना प्रकार के हैं, परन्तु सर्वश्रेष्ठ भोजन वहीं है, जो अपने कर्मों के द्वारा सिंचित प्रयासों से प्राप्त धन के द्वारा प्राप्त की गई हो, अगर भोजन चंदे या दान से अथवा भिक्षाटन के द्वारा प्राप्त की गई हैं तो वह भोजन सर्वश्रेष्ठ नहीं हो सकता, पर ब्रह्मचारियों/बटुकों/वेदाध्यायी/गुरुकुल में पढ़नेवाले विद्यार्थियों के लिए सर्वश्रेष्ठ भोजन भिक्षाटन द्वारा प्राप्त तथा एक साथ बनाई गई भोजन ही सर्वश्रेष्ठ माना गया है, ताकि कोई ब्रह्मचारी/बटुक/वेदाध्यायी/विद्यार्थी ये न समझें कि उसके पोषण में केवल उसी के परिवार/जाति के लोगों का धन लगा है, इस प्रक्रिया को अपनाने का मतलब ही होता है कि जब आप संपूर्णता प्राप्त कर लें, तो आपका जीवन प्रत्येक प्राणियों के लिए हो, क्योंकि आपके शरीर को पोषण व विद्याध्ययन कराने में पूरे समाज ने उल्लेखनीय योगदान दिया है।
दो कहानियां – जो भोजन के प्रभावों को हमारे समक्ष शानदार ढंग से प्रस्तुत करती हैं। पहली कहानी –
ये कहानियां मैंने अपनी मां से सुनी है, जो आपके समक्ष रख रहा हूं। भारत में एक बहुत बड़े संत थे। एक दिन उस संत को एक जमीदार ने भोजन पर बुलाया। नाना प्रकार के पकवान उसने बनवाए और संत की प्रतीक्षा करने लगा। इधर संत जमीदार के घर भोजन पर आमंत्रण होने की सूचना पर चल पड़े। रास्ते में उन्होंने देखा कि एक बुढ़ी महिला, अपने मिट्टी के चुल्हे पर रोटियां सेंक रही हैं।
संत ने कहा, मां मुझे एक-दो रोटी खिला दो। बुढ़ी महिला, उस संत के बारे में काफी सुनी थी, जैसे ही देखा कि वे संत उससे दो रोटी मांग रहे हैं, बड़ी प्रसन्नता से खाट बिछाई और संत से हाथ जोड़कर कहा, महाराज आप जल्द यहां बैठे, अभी आपको भोजन परोसती हूं। संत खाट पर बैठ गये, बुढ़ी महिला ने एक छोटी सी थाली में दो रोटियां व नमक-तेल परोस दिये। संत बड़ी प्रेम से खाने लगे, और खाने के बाद जैसे ही पानी पी, उन्हें नींद आने लगी और उसी खाट पर लेट गये। बुढ़ी महिला संत को सोया देखकर पंखा झलने लगी और इस प्रकार कब सुबह हुई, पता ही नहीं चला।
इधर जमीदार, सुबह होते ही संत की खोज में निकला, कि आखिर वो संत हमारे घर क्यों नहीं आये? दूर जाते ही, संत पर उसकी नजर पड़ी, जो खाट से अभी-अभी जगे थे और अपना हाथ-पांव धो रहे थे। जमीदार ने कहा – संत महाराज, मैंने आपको अपने घर कल भोजन पर बुलाया था, अच्छे-अच्छे पकवान बनाये थे, आप आये नहीं। संत ने कहा – कि चूंकि मैं निकला था, तो तुम्हारे यहां जाने को, पर रास्ते में मुझे ये वुढ़ी महिला रोटी सेंकती हुई, दिखाई दी। मैने झट से बुढ़ी महिला को रोटी देने को कहा, और जैसे ही रोटी खाई, पानी पिया, कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला।
लेकिन अब तो समय बीत गया, कोई दिक्कत नहीं, अभी तो तू अपने घर से वो पकवान मंगा, मैं अभी खाउँगा, जमीदार बहुत खुश हुआ, वो अपने घर से पकवान मंगाये, पर ये क्या जमीदार के घर से आये पकवानों में से एक पुड़ी, जैसे ही संत महाराज ने एक निवाला बनाने के लिए तोड़ी, पूरा थाल खुन से भर उठा। संत ने जमीदार से कहा, ए जमीदार, तेरे पकवान में तो खुन सना है, भला ऐसा भोजन मैं कैसे कर सकता हूं? तभी वह बुढ़ी महिला जो यह सब देख रही थी, अचानक शाम की बची हुई एक रोटी संत के आगे कर दी, संत ने उस रोटी को जैसे ही खाने को तोड़ा, दुध की धारा बहने लगी। ये कहानी बताती है कि भोजन किसके घर की करनी चाहिए और भोजन आपके जीवन में क्या प्रभाव डालता है?
अब दुसरी कहानी –
एक बार किसी राजा के राजकुमार को उसकी दासियां अपने महल में खेला रही थी। राजकुमार के गले में नौलखा हार लटक रहा था। अचानक एक संत उधर से गुजरा। उसने दासियों से कहा कि उसे प्यास लगी है, पानी पिलाने का प्रबंध करें। दासियों ने कहा कि मैं अभी पानी ला देती हूं, तब तक आप राजकुमार को देखें। राजकुमार को देखने के क्रम में संत के मन में कलुषित विचार आये, उसने राजकुमार के गले से नौलखा हार निकाला और अपने पोटली में रख लिये, इधर दासियां आई और संत को पानी पिलाया, फिर राजकुमार के साथ खेलने लगी।
इसी क्रम में अचानक राजकुमार के गले में नौलखा हार के नहीं होने से सभी चौंक गई। वो इधर-उधर ढुंढने लगी कि नौलखा हार आखिर कहां गया? दूसरी ओर इस बात की जानकारी जल्द ही राजमहल में फैल गई, कि राजकुमार के गले में नौलखा हार नहीं है, राजा ने इसके लिए दासियों को ही जिम्मेवार ठहराया और उसे कारागार में डालकर, निर्मम तरीके से पिटाई करवानी शुरु कर दी।
इधर जैसे ही एक-दो दिन बीते, संत ने पोटली खोली, उसमें नौलखा हार दिखा। वह सोचने लगा कि संत की पोटली में नौलखा हार का क्या काम? वे यह जानने के लिए कि यह कैसे उनके पास आया और इस नौलखे हार के उनके पास आने के बाद, उन लोगों पर क्या प्रभाव पड़ रहा हैं। वे ध्यानमग्न हो गये। जैसे ही ध्यान टूटा। वे उस राजमहल की ओर चल पड़े, जहां की यह घटना थी।
वे उस राजा के दरबार में पहुंचकर, राजा को कहा कि महाराज, राजकुमार का नौलखा हार, उसके पास हैं, इसलिए इस चोरी की यथोचित दंड उसे दें। राजा हैरान हुआ। वह पुछा कि हे संत, आप को नौलखा हार से प्रेम कैसे हो गया? आप तो वैरागी है। संत ने कहा कि जिस दिन की यह घटना है, उसके कुछ घंटे पहले, उसने एक घर पर भोजन किया, वह भोजन इतना दूषित था कि उसके प्रभाव से उनका मन-मस्तिष्क तक दूषित हो गया, इसलिए हे राजन उस दुष्प्रभाव से ऐसी घटना घट गई।
चूंकि आज तीसरा दिन है, उस भोजन का प्रभाव हमारे शरीर से खत्म हो चुकी है, मेरे अंदर फिर से नये सुंदर भाव जग गये हैं, जिसका प्रभाव है कि हम आपके पास हैं, बस बात इतनी सी है। राजा ने संत के इस वाक्यों को सुनकर बहुत प्रभावित हुआ,और संत को क्षमा कर दिया। यह होता है भोजन का प्रभाव।
आप भोजन कैसा कर रहे हैं? किसके यहां कर रहे हैं? जो भोजन उपलब्ध करा रहा हैं? उसका कर्म कैसा है? ये सारे प्रभाव आपके भोजन ग्रहण करने के बाद आपके मन-मस्तिष्क पर पड़ता है, पर ये उसके लिए हैं, जो मनुष्य हैं, जो मनुष्य के रुप में पशु है, उसके लिए ये बातें कोई प्रभाव नहीं डालती। याद रखिये, पशुओं में भी गौ को रखने के लिए गौशाला, हाथी के लिए गजशाला, घोड़ों को रखने के लिए अश्वशाला बनाये जाते हैं।
आप क्या बनना चाहेंगे पशु या मनुष्य? मनुष्य भी कैसा?
पर आवारा कुत्तों के लिए ऐसा कोई प्रबंध नहीं किया जाता, उन आवारा कुत्तों को लोग घर में लाना तक पसन्द नहीं करते, उसे तो दरवाजे पर ही जो कुछ मिलता हैं, डाल देते हैं,और वो ग्रहण कर लेता हैं तथा जिसने भोजन दिया, उसके आगे अपनी पूंछ हिलाने लगता हैं, ऐसे में आप क्या बनना चाहेंगे पशु या मनुष्य? मनुष्य भी कैसा?
उस बुढ़ी महिला के जैसा, जिसकी रोटी से दुध की धारा निकल पड़ी थी या उस जमीदार के जैसा जिसकी एक पुड़ी को तोड़ने मात्र से ही खुन की धारा से पूरी थाली भर गई थी। यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि यह देश भारत है, हमारे यहा भोजन का महत्व है। हमारे यहां तो जन्म से लेकर मृत्यु तक भोजन के महत्व को प्रदर्शित किया गया हैं, अतः भारतीय बनिये, भारत की मर्यादा, भारत की संस्कृति को अक्षुण्ण रखिये।
जैसन खायब अन्न,
वइसन होई मन ❣️🙏🚩