हे निजी स्कूलों के मठाधीशों आप ये बताओ, नर्सरी में पढ़नेवाले ढाई साल के बच्चे को ऑनलाइन एजूकेशन से क्या मतलब?
भाई, एक सवाल है। जिधर देखो, उधर ऑनलाइन पढ़ाई की चर्चा है। स्कूल फीस जमा करने-कराने को लेकर स्कूल प्रबंधन और अभिभावकों में तकरार है, पर हमें एक चीज समझ में नहीं आ रही कि जो बच्चे नर्सरी, एलकेजी, यूकेजी, पहली या दूसरी कक्षा में पढ़ रहे हैं, उनका ऑनलाइन पढ़ाई से क्या वास्ता। मतलब जिन बच्चों को मोबाइल से कोई मतलब ही नहीं, वे मोबाइल पकड़कर कौन सा ऑनलाइन की पढ़ाई कर, धमाल मचा देंगे।
हमारे आस-पास में कई ऐसे बच्चे हैं, जो नर्सरी से लेकर कक्षा वन या टू में पढ़ाई कर रहे हैं। इन दिनों उनकी पढ़ाई से ज्यादा उनके अभिभावक परेशान है। एक अभिभावक से हमने यूं ही पूछ लिया कि भाई आप इतने परेशान क्यों हैं? उनका कहना था कि कुछ ही देर में स्कूल के टीचर का हमारे मोबाइल पर विडियो कॉल आयेगा, उसके सहारे वे मेरे बच्चों को पढायेंगे।
मैंने पूछा कि आपका बच्चा, कोई हाई स्कूल, या कॉलेज या विश्वविद्यालय में तो पढ़ नहीं रहा कि उसे ऑनलाइन एजूकेशन की इतनी जरुरत है, अरे नर्सरी से लेकर कक्षा टू का बच्चा क्या पढ़ेगा, उसके लिए तो घर में रहनेवाले उनके अभिभावक ही काफी है, ये ऑनलाइन का क्या ड्रामा है? अभिभावक ने कहा कि आप नहीं जानते, ये सब स्कूल फीस के लिए ड्रामा चल रहा है, तो मैंने भी अभिभावक महोदय से पूछ ही डाला कि आपको क्या दिक्कत हैं स्कूल फीस देने में। ऐसे भी आपको पैसे की तो कोई कमी नहीं, दोनों हाथों से लूटाते हैं, समझिये कि यहां भी लूटा रहे हैं, दे दीजिये, स्कूल फीस। उनका कहना था कि भाई जो स्कूल दो महीने से बंद है, उसे हम स्कूल फीस क्यों दें?
मेरा जवाब था कि क्या गर्मी या जाड़े में एक दो महीने की लगातार छुट्टी होती है, तो उसमें स्कूल फीस का आप भुगतान नहीं करते, समझ लीजिये कि आपने गर्मी की छुट्टी का स्कूल फीस दे डाला, उनका कहना था कि बात तो ठीक ही कहते हैं, लेकिन जब स्कूल फीस ही से केवल वास्ता हैं, तो फिर ये ऑनलाइन का ड्रामा क्यों? मैंने कहा कि बेचारे को ड्रामा करने पर मजबूर तो किसी न किसी अभिभावक ने ही किया है, ऐसे में बेचारे सभी स्कूलों ने ऑनलाइन एजूकेशन को देखते ही देखते चून लिया और लीजिये बिना पढ़ाई का पढ़ाई करवा दिया और आपके बच्चे पढ़े या धूल फांके, उसने अपनी व्यवस्था कर ली, और अब आपको स्कूल फीस तो देना ही हैं, लोग दे भी रहे हैं।
सच्चाई यह है कि, चाहे हम कितना भी कुछ कर लें, हमारी औकात स्कूल प्रबंधन के सामने भींगी बिल्ली से अधिक कुछ नहीं, आप जहां दिमाग लगाये कि वो सीधे कहेगा कि आप अपने बच्चे का नाम कटाकर कही दूसरे जगह लिखा दें, तो फिर हम अपने बच्चे का अच्छे स्कूल में नाम कहां से लिखवायेंगे? ज्यादातर अभिभावकों ने स्वीकार कर लिया है कि जो निजी स्कूल होते हैं, वहां पढ़ाई बहुत अच्छी होती हैं, वहां पढ़ने से बच्चों का भविष्य सुरक्षित होता हैं, जबकि सच्चाई इसके ठीक उलट है।
अभी-अभी बिहार से खबर आई है कि दसवी बोर्ड में एक सब्जी विक्रेता यानी किसान के बेटे हिमांशु ने पूरे बिहार में टॉप किया हैं, अब बताइये कि हिमांशु किस निजी विद्यालय का छात्र था, वो तो सरकारी स्कूल से ही पढ़कर टॉप कर लिया और तथाकथित बड़े-बड़े निजी स्कूलों में पढ़नेवाले बच्चे हाथ मलते रह गये, यानी दिन-रात हजारों के मोबाइल से खेलनेवाले उसके आस-पास भी नहीं दिखाई दिये।
दरअसल जो हमारी मैन्टिलिटी बन गई हैं, उस मैन्टिलिटी के नफे हैं तो नुकसान भी हैं और जब आप नफा उठाइयेगा तो एक दिन ऐसा भी आयेगा कि आपको नुकसान भी उठाना पड़े, हमने तो रांची में ही कई आइएएस/आइपीएस के बच्चों को देखा है कि जो तथाकथित बड़े स्कूलों से पढ़कर निकले हैं, वे अपने मां-बाप की दादागिरी के कारण, भले ही बड़े स्कूलों में कुछ फायदा उठा लें, पर जीवन की सच्चाई से जब सामना होता हैं तो वे पूरी तरह जीवन के क्रिकेट से आउट हो चुके होते हैं, इसलिए इस ओर भी ध्यान देने की जरुरत है कि आपने अपने बच्चों को क्या बनाने का संकल्प लिया हैं?
और यह सोचने का सबसे बढ़िया रास्ता यह है कि आप खुद सोचिये कि ढाई साल का बच्चा जो नर्सरी में हैं, जिसे मोबाइल भी ठीक से नहीं पकड़ना आता, वो ऑनलाइन पढ़ाई क्या करेगा? या वो ढाई साल का बच्चा ऑनलाइन एजूकेशन प्राप्त करेगा कि आप नये ढंग से नर्सरी की पढ़ाई शुरु करेंगे, अगर आप स्वयं फिर से नर्सरी में पढ़ना चाहते हैं तो ये कोरोना आपके लिए बढ़िया मौका ढूंढ कर लाया हैं, नहीं तो समझ लीजिये कि जिस देश में राजेन्द्र बाबू ( जिनकी कॉपी में लिखा गया था इक्जामिनी इज द बेटर देन इक्जामिनर ) जैसे महापुरुष हुए, वहां बेवकूफों की शृंखला तो नहीं तैयार हो रही, वह भी ऑनलाइन एजूकेशन के माध्यम से।