प्रतीक चिह्न को बदलकर हेमन्त ने ताल ठोक दिया अब झारखण्ड व झारखण्डियों के सम्मान के साथ कोई समझौता नहीं
लीजिये रांची के आर्यभट्ट हॉल में करतल ध्वनि के बीच झारखण्ड के नये प्रतीक चिह्न का लोकार्पण हो गया। आप कहेंगे कि इस प्रतीक चिह्न की आवश्यकता क्यों थी? जबकि पहले से ही राज्य का एक अपना प्रतीक चिह्न था ही, दरअसल जिस प्रतीक चिह्न में अपना प्रतिबिम्ब नहीं दिखाई पड़े, उसे बदल देने में ही भलाई है। नया प्रतीक चिह्न जो झारखण्ड सरकार ने जनता के समक्ष रखी है, उसमें वह सब कुछ हैं, जिससे झारखण्ड झलकता है, जिसमें भारत का यह राज्य शान से अपने बिम्ब को सबके सामने प्रतिबिम्बित कर रहा है।
जो लोग हेमन्त सोरेन के स्वभाव को जानते है, वे यह भी जानते है कि उनके दिलों में झारखण्ड कहां है, वे तो आज भी कहते है कि वो हर चीज बदल जानी चाहिए, जिसमें झारखण्ड नजर नहीं आता हो। होना भी यही चाहिए, जब झारखण्ड बना तो झारखण्ड उन हर जगहों पर दिखाई देना और महसूस होना चाहिए, जिससे लगता है कि हम झारखण्ड के वाशिंदे हैं, पर अब तक होता यही आया है कि जो सत्ता में आया, वह अधकचरे आइएएस की सोच को ही सर्वोपरि मान लिया और इन अधकचरे आइएएस लोगों ने अपने लोगों को ऊंचाई पर ले जाने के लिए, उन्हें आर्थिक रुप से संपन्न बनाने के लिए राज्य को ही दांव पर लगा दिया।
इसका कारण साफ था कि उन्होंने झारखण्ड को अपनी सेवाएं तो दी, पर वो प्यार नहीं दिया, जिस प्यार की आवश्यकता झारखण्ड और इस राज्य के लोगों को थी। हेमन्त सोरेन ने आज के प्रतीक चिह्न को झारखण्ड की जनता को समर्पित कर संदेश दे दिया कि अब वही होगा, जो झारखण्ड की जनता के दिलों में होगा, इसकी यह पहली शुरुआत है, प्रतीक चिन्हों को परिवर्तित करना।
राजनीतिक पंडितों की मानें तो बदलाव करना सिर्फ भाजपा ही नहीं जानती, बदलाव करना झारखण्ड मुक्ति मोर्चा भी जानती है। जो लोग इतिहास जानते हैं, वे यह भी जानते है कि भाजपा इस राज्य को वनांचल नाम देना चाहती थी, और इसी नाम से अलग राज्य का प्रस्ताव भी दिया था, पर झारखण्ड की जनता के दबाव में उसे भी झूकना पड़ा और इस राज्य का नाम झारखण्ड पड़ गया, लेकिन भाजपा के लोगों पर इस प्रभाव का कोई असर बाद में नहीं दिखा, वे वहीं करते गये, जो उनके मन को भाया। नतीजा सामने हैं कि उनका नीचे-उपर, इधर-उधर लूढ़कता जे आकार का प्रतीक चिह्न मात्र बीस वर्ष में ही दिवंगत हो गया।
अभी तो हेमन्त सोरेन ने प्रतीक चिह्न ही बदले है, देखियेगा अभी और बहुत कुछ बदलेगा। जिसका फायदा आनेवाले समय में हेमन्त सोरेन को प्राप्त होगा। भाजपा की ओर से बहुत ही कम समय में बाबू लाल मरांडी, अर्जुन मुंडा, रघुवर दास आदि बने मुख्यमंत्रियों ने कभी झारखण्ड की जनता के बारे में सोचा ही नहीं, बस बैठ गये नौकरशाहों के बीच और जो नौकरशाहों ने कहा, बस मान गये, चूंकि नौकरशाह जानते थे कि इन नेताओं का क्या है, दो-तीन साल बाद खत्म हो जायेंगे और अगल-बगल झांकते फिरेंगे, पर उन्हें तो झारखण्ड में आजीवन रहना है, और अपने ढंग से जिंदगी जीनी है, इसलिए उन्होंने अपने ढंग से सब काम किये।
जरा देखिये, एक उदाहरण देता हूं, जरा बाबू लाल मरांडी से ही पूछिये कि आप ये बताइये कि आपके समय जो प्रतीक चिह्न लागू हुआ, उसका इतिहास-भूगोल क्या है? उसमे एक्चूयल दिखता क्या है? वे संतोषजनक उत्तर नहीं दे पायेंगे, लेकिन हेमन्त सोरेन ने तो उत्तर दे दिया। दुसरा उदाहरण देखिये, एक आइएएस ने डोभा खुदवाना शुरु किया, कभी किसी ने कहा कि राज्य में चार लाख तो किसी ने कहा पांच लाख तो किसी ने कहां छह लाख डोभा बनवाये गये, पर भगवान जाने ये डोभा आज किस बिल में जाकर बिलबिला रहे हैं?
अब उदाहरण के बाद, इसे भी जानिये कि प्रतीक चिन्ह पर राज्य सरकार का दृष्टिकोण क्या है? हेमन्त सोरेन सरकार का मानना है कि यह प्रतीक चिन्ह राज्य की पहचान और स्वाभिमान से जुड़ा है। इसमें राज्य की संस्कृति, प्राकृतिक खनिज संपदा को समाहित किया गया है, जो अद्भुत है।
मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन तो साफ कहते है कि देश की आजादी में झारखण्ड के भूमि पुत्रों ने लंबा संघर्ष किया। हजारों वीरों ने अपनी कुर्बानी दी। आजादी के बाद से नए भारत के नवनिर्माण में झारखण्ड महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। यहां के श्रमिक अपने श्रम से अन्य राज्यों में समृद्धि ला रहें हैं। आदिवासी बहुल यह राज्य सदैव सामूहिकता में यकीन रखता है। राज्य का नया प्रतीक चिन्ह बदलाव का सारथी है। प्रतीक चिन्ह झारखण्ड की भावना को प्रतिविम्बित करता है।