अपनी बात

न न्याय मांगनेवालों, न विधि-विशेषज्ञों, न ही सुप्रीम कोर्ट की गाइड लाइन पर ध्यान ही दिया और फैसला सुना दिया झारखण्ड के स्पीकर रवीन्द्र नाथ ने

गत् 8 जनवरी को धनबाद निवासी वरिष्ठ समाजसेवी विजय झा ने झारखण्ड विधानसभाध्यक्ष रवीन्द्र नाथ महतो के अध्यक्षीय कार्यालय में एक पत्र के माध्यम से बाघमारा के भाजपा विधायक ढुलू महतो की विधानसभा सदस्यता रद्द करने की गुहार लगाई थी। विजय झा ने अध्यक्षीय कार्यालय को इस दौरान एक पत्र भी सौंपा था, जिसमें उन्होंने प्रमाण के साथ कई उद्धरण भी प्रस्तुत किये थे। जिससे साफ पता चलता है कि ढुलू महतो की विधानसभा की सदस्यता चली जानी चाहिए, पर  स्पीकर रवीन्द्र नाथ महतो ने न तो विजय झा की बातें सुनी, न ही उन्हें अपना पक्ष रखने के लिए अपने अध्यक्षीय कार्यालय में बुलाया, न ही विधि विशेषज्ञों या संविधान विशेषज्ञों से राय ली और पूरे मामले का पटाक्षेप भी कर दिया।

जिसकी जानकारी आज यानी एक सितम्बर को विधानसभा कार्यालय से विजय झा को पत्र द्वारा मिली। विजय झा, झारखण्ड विधानसभाध्यक्ष कार्यालय के इस पत्र को देख हैरान है। उनका कहना है कि न्याय व्यवस्था का सिद्धांत है, सिर्फ न्याय किया जाना ही काफी नहीं है, पक्षकारों को भी यह ऐहसास होना चाहिए कि उसके साथ न्याय हुआ है। आश्चर्य इस बात की भी है कि यह पत्र 30 जुलाई को झारखण्ड विधानसभा सचिवालय से चला है और उसे कतरास-धनबाद पहुंचने में, वह भी इस डिजिटल युग में 33 दिन लग गये।

पत्र में विजय झा को सूचित किया गया है कि दिनांक 24 जनवरी 2020 को ढुलू महतो सदस्य विधानसभा के विरुद्ध अनुमंडलीय न्यायिक दंडाधिकारी धनबाद के द्वारा दिनांक 9 अक्टूबर 2019 को पारित निर्णय के आलोक में सदस्यता समाप्त करने  हेतु आवेदन को सम्यक विचोरापरान्त अमान्य किया जाता है, जबकि विजय झा ने अपने शिकायत पत्र में इस बात का जिक्र किया था कि पंचम विधानसभा के लिए बाघमारा से निर्वाचित विधायक ढुलू महतो ने जो कुछ दिन पहले विधानसभा की सदस्यता का शपथ लिया, उन्होंने खुद चुनाव आयोग को दिये गये अपने नामांकन शपथ पत्र में इस बात का उल्लेख किया है कि विभिन्न मामलों में, वे विभिन्न तारीखों में दोषी पाये गये हैं, जिन सजाओं को जोड़ने पर दो वर्ष से भी अधिक की सजा हो जाती है।

ढुलू महतो ने खुद इस बात की घोषणा की थी कि उन्हें एक मामले में 72 महीनों की सजा और दूसरे अन्य मामले में 12 माह यानी कुल 84 माह की सजा हो चुकी हैं और ये सजा सब ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट धनबाद की ओर से दी गई। ये सजाएं ढुलू महतो की विधानसभा सदस्यता समाप्त करने के लिए काफी है, क्योंकि इस प्रकार की स्थितियों पर सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने गाइडलाइन दे रखी है। अतः बाघमारा से निर्वाचित भाजपा विधायक ढुलू महतो को विधानसभा की सदस्यता समाप्त कर, लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करें।

ज्ञातव्य है कि सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच से जुड़े न्यायमूर्ति आरसी लाहोटी, न्यायमूर्ति शिवराज पाटिल, न्यायमूर्ति ए जी बालकृष्णन्, न्यायमूर्ति बीएन श्रीकृष्णा और न्यायमूर्ति जी पी माथुर ने संयुक्त रुप से यह फैसला दिया था कि सजा को समग्रता में देखा जाना चाहिए, और इसीलिए इस संवैधानिक पीठ ने के प्रभाकरण को 27 महीने की सजा, जिसमें एक धारा में अधिकतम एक वर्ष, और सभी धाराओं को मिलाकर 27 माह की सजा थी, उस के प्रभाकरण को जीवनपर्यन्त चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी थी।

इसी आधार पर विजय झा ने झारखण्ड विधानसभाध्यक्ष से गुहार लगाई कि जब के प्रभाकरण को 27 महीने की सजा होने पर उसे चुनाव से बाहर कर दिया गया तो फिर ढुलू के साथ, जिसे 84 माह की सजा हुई, जिसकी खुद शपथ पत्र में स्वीकारोक्ति हैं, वह सदन में कैसे बैठ सकता है?अतः विधानसभाध्यक्ष ऐसे लोगों पर कार्रवाई कर, एक मिसाल कायम करें।

पर जरा झारखण्ड विधानसभाध्यक्ष का कमाल देखिये, इन्होंने बिना किसी विधि विशेषज्ञों/संविधान विशेषज्ञों से राय लिये, बिना विमर्श किये ही विजय झा के आवेदन को अमान्य कर दिया, जबकि यही स्पीकर बाबू लाल मरांडी को नेता विरोधी दल बनाने में नाना प्रकार के अड़चन डालने के उद्देश्य से विधि विशेषज्ञों की राय ले रहे हैं, अब सवाल उठता है कि जब सुप्रीम कोर्ट के संवैधानिक कोर्ट का एक मामले में फैसला आता है कि सजा को समग्रता में देखना है, और उस समग्रता में देखने के कारण ही केरल के एक विधायक की सदस्यता समाप्त हो जाती है, तो फिर इसी प्रकार के मामले में ढुलू महतो पर स्पीकर रवीन्द्र नाथ महतो क्यों कृपा लूटा रहे हैं, उन्हें अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए।

अब इन सवालों का जवाब कौन देगा…

  • जब 30 जुलाई को ही आवेदन अमान्य कर दिया गया, तो फिर इसकी सूचना देने में आवेदक को 33 दिन कैसे लग गये?
  • स्पीकर ने आवेदक को अपना पक्ष रखने के लिए क्यों नहीं बुलाया?
  • आवेदक से आवेदन से संबंधित किसी भी प्रकार के दस्तावेज की मांग क्यों नहीं की गई? कही ऐसा तो नहीं कि स्पीकर ने मन बना लिया था कि उन्हें हर हाल में ढुलू की रक्षा करनी है, भले ही संवैधानिक पीठ ने कोई नई व्यवस्था क्यों न दे दी हो?
  • क्या स्पीकर को मालूम नहीं कि पूरा आवेदन संवैधानिक पीठ द्वारा दिये गये निर्णयों पर आधारित था, ज्ञातव्य है कि उक्त संवैधानिक पीठ में पांच जजों की बेंच में एक जज स्वयं भारत के मुख्य न्यायाधीश भी थे।
  • संवैधानिक पीठ से संबंधित मामला होने के बावजूद राज्य के विधि विभाग/महाधिवक्ता/विधि सचिव/भारत सरकार के एटार्नी जनरल से विधि मंतव्य नहीं लेना, क्या नहीं बताता कि स्पीकर द्वारा लिया गया निर्णय किसी को लाभ पहुंचाने के लिए किया गया है?
  • स्पीकर स्वयं बीए बीएड है, ऐसेमें विधि संबंधित मामले में बिना विधि विभाग के मन्तव्य प्राप्त किये बिना, संवैधानिक विषय पर निर्णय देना क्या न्याय की हत्या नहीं है?
  • आवेदक की गुहार पर सुनवाई के लिए अवसर न देना और आवेदन को निरस्त करना, क्या प्राकृतिक न्याय के विपरीत नहीं है?
  • लॉक डाउन के दौरान जब सारे काम-काज बाधित हैं, कोई सरकारी कार्यालय (विधानसभा सचिवालय सहित) सुचारु रुप से नहीं चल रहा, ऐसे में यह निर्णय किस परिस्थिति में लिया गया, यह हमेशा संदेह के घेरे में रहेगा।
  • सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गये हर फैसले देश के तमाम निचली अदालतों के लिए गाइड लाइन का काम करता है, और इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को नगण्य कर देना, क्या नहीं बताता कि यहां सुप्रीम कोर्ट की बातों को भी हवा में उड़ा दिया जा रहा है?
  • क्या स्पीकर को नहीं मालूम कि, जब देश के सामने कोई बड़ा संवैधानिक मामला आता है, तभी संवैधानिक बेंच का गठन किया जाता है, ऐसा विरले ही अवसर आता है, जब किसी मसले को हमेशा के लिए निबटाने के लिए संवैधानिक बेंच का गठन किया जाता है, ऐसे में इस संवैधानिक बेंच द्वारा महत्वपूर्ण निर्णय लेने के बावजूद यहां नजरंदाज कर दिया जाना, आखिर क्या बताता है?