दाल में कालाः जिन मुस्लिम संगठनों और चर्च को आदिवासियों की पूजा-पद्धति पसन्द नहीं, वे भी चल पड़े सरना धर्म को समर्थन देने
सबसे पहले देश में रहनेवाले जितने आदिवासी लोग है। पहले वे आदिवासियों के धर्म के मामले में एक राय बनाये। फिर वे अपनी मांगे रखे तो ठीक रहेगा। ऐसे भी यह राज्य का विषय भी नहीं है। इसे केन्द्र को देखना है। सरना धर्म को माननेवाले हर जगह नहीं मिलते, इसलिए इस पर मतैक्य होना असंभव है। अच्छा रहेगा कि जनजातीय लोगों के लिए खासकर धर्म के मामले में मतैक्य हो। रही बात इधर झारखण्ड में कुछ मुस्लिम संगठनों द्वारा सरना धर्म को लेकर इसकी मांग कर रहे लोगों को समर्थन देना या चर्च द्वारा इस पर समर्थन में आगे आना, बताता है कि कुछ न कुछ घालमेल हैं, इसलिए इसकी जांच सीबीआइ स्तर पर होना अनिवार्य है।
वो इसलिए कि मुस्लिम और इसाई तो आदिवासियों में प्रचलित पूजा-पद्धति को स्वीकार ही नहीं करते, तो वे फिर किस मुंह से सरना धर्म के समर्थन में आगे आ रहे हैं। इसका मतलब है कि कही न कही कुछ न कुछ ऐसी बाते हैं, जो बताता है कि यहां सब कुछ ठीक नहीं है। ये विचार है, झारखण्ड के सुप्रसिद्ध आदिवासी नेता एवं लोकसभा के उपाध्यक्ष रह चुके करिया मुंडा के। जो विद्रोही24 से बातचीत के दौरान इन दिनों सरना धर्म को लेकर चल रहे विवाद पर अपना विचार रख रहे थे।
दरअसल इन दिनों झारखण्ड में विधानसभा का मानसून सत्र चल रहा है। इस मानसून सत्र में सरना धर्म के लिए जनगणना कॉलम में धर्म वाली कोड में सरना धर्म भी शामिल हो। इसके लिए कुछ आदिवासी संगठन आंदोलनरत है। जिसमें प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रुप से इनका समर्थन कुछ मुस्लिम संगठन और चर्च के लोग भी कर रहे हैं। सोशल साइट पर भी इससे संबंधित बहुत पोस्ट पक्ष-विपक्ष दोनों में वायरल हो रहे हैं। कुछ लोगों का कहना है कि हजारों वर्षों से हिन्दू व आदिवासी इस झारखण्ड में प्रेम भाव से रहते आये हैं। दोनों में काफी समानताएं भी हैं। इन समानताओं के कारण आदिवासी हिन्दूओं में घुले-मिले हैं, जिसे बाहरी ताकते देखना पसन्द नहीं कर रही और वे इस प्रेम-भाव को कटुता में बदलने का प्रयास कर रही है।
झारखण्ड में ही शिबू सोरेन, हेमन्त सोरेन, अर्जुन मुंडा, बाबू लाल मरांडी, जैसे कई आदिवासी नेता है, जो पूरे झारखण्ड में सर्वग्राह्य है। लोग इन्हें सम्मान के साथ स्वयं को जोड़ते हैं। इन्हें भी कई मंदिरों में मत्था टेकते हुए या विभिन्न हिन्दू तीर्थ स्थलों में जाकर अपनी श्रद्धा निवेदित करते हुए देखा जा सकता है, लेकिन कुछ लोग धर्म की आड़ में विष-बेली का वृक्ष रोपने में ज्यादा दिमाग लगा रहे हैं। जरा देखिये ये नीचे दिया गया फोटो, ये इस्लाम धर्मावलम्बी है।
इनका आदिवासी और आदिवासियत से कोई लेना-देना नहीं, पर जरा देखिये कैसे सरना के नाम पर समर्थन देने के लिए आंदोलनरत है। यही हाल पिछले दिनों चर्च का रहा। चर्च ने हेमन्त सरकार को पत्र लिखकर सूचित किया कि आदिवासियों को उनका हक सरना धर्म का जनगणना में उल्लेखित धर्म कोड दे दिया जाय, दरअसल जानकारों का मानना है कि सरना तो बहाना है, वे इसकी आड़ में धर्मांतरण कर, अपनी संख्या बढ़ाने की जुगार में लगे हैं।
चूंकि हिन्दू व आदिवासियों की एकता इतनी यहां मजबूत है कि चर्च और मुस्लिम संगठनों को धर्मांतरण करने-कराने में बाधाएं आती है, लेकिन जैसे ही सरना कोड लागू होगा, तो इन्हें लगता है कि इसका फायदा ये उठा लेंगे, हालांकि जानकार यह भी बताते है कि सरना कोड अगर किसी कारणवश लागू हो भी जाता है तो इसका फायदा ये उठा नहीं पायेंगे, क्योंकि फिर आदिवासी समाज अपनी धर्म व कोड को जमीनी स्तर पर लागू कराने व संख्या दिखाने को लेकर, इनके खिलाफ मशाल लेकर खड़ा हो जायेगा, जिसकी झलक आज देखने को भी मिल गई, जब भाजपा के ही आदिवासी नेता राज्यसभा सांसद समीर उरांव ने चर्च को पत्र लिखकर पूछ डाला।
समीर उरांव ने आर्च बिशप, फेलिक्स टोप्पो, थियोडोर मसकेरहन्स आदि को सूचित करते हुए अपने पत्र में लिखा है कि “सरना कोड से संबंधित मुख्यमंत्री को लिखे गये आपके पत्र की जानकारी समाचार पत्रों के माध्यम से हुई। जनजाति समाज एवं सरना धर्म के प्रति आपके अंतःकरण में उपजे सात्विक विचारों का मैं हृदय से स्वागत और अभिनन्दन करता हूं। मैं समझता हूं आपके पूर्वजों के संस्कार ने आप सब को सरना धर्म के प्रति ऐसे भाव प्रकट करने के लिए प्रेरित किया। सरना समाज लगातार अपनी पहचान, भाषा, संस्कृति, परम्परा के प्रति जागरुक हो रहा है। जो समाज के लिए सुखद एवं शुभ है।
मैं आपके पत्र के आलोक में आप सभी महीसी समाज के अगुआ से विनम्र आग्रह करता हूं कि सरना समाज के प्रति अपने प्रेम का विस्तार करते हुए अपनी पहचान छोड़ मसीही समाज में शामिल भाई-बहनों को पुनः सरना धर्म में शामिल कराने की घोषणा करें, ताकि यह समाज सांस्कृतिक रुप में और मजबूत हो सकते। हम सब और मजबूती के साथ अपने हक की लड़ाई लड़ सकेंगे।”
हालांकि भाजपा के राज्यसभा सांसद समीर उरांव ने पत्र व्यंग्यात्मक तौर पर लिखा है, पर ये पत्र बहुत कुछ कह दे रहा है कि चर्च ये मत भूले कि उनकी चालाकी को आदिवासी समाज या आदिवासियों के नेता समझ नहीं पा रहे हैं, वे बखूबी समझ रहे हैं और इसका जवाब देना वे अच्छी तरह जानते हैं, बस समय का इंतजार कर रहे हैं।