अपनी बात

बदल रहा देश, अब धनतेरस में चरित्र व स्वास्थ्य पर नहीं ध्यान देता, वो कार-मोटरसाइकिल, सोने-चांदी की खरीद में ही सुख ढूंढने लगा है

कल धनतेरस था। बाजार में बहुत भीड़ थी। बर्तन की दुकानों से ज्यादा, सोने-चांदी, हीरे-जवाहरात की दुकानों पर ज्यादा भीड़ नजर आई और फिर जो भीड़ बची, वह मोटरसाइकिल व कारों की दुकानों पर देखी गई। जिसके पास जितने अधिक पैसे, लोग उसका उतना ही प्रदर्शन करने में लगे थे। मोटरसाइकिलों व कारों की खरीदनें में भी लोग इस बात का ध्यान रख रहे थे, कि कौन कितनी महंगी मोटरसाइकिल व कार खरीद कर, एक दूसरे की छुट्टी कर रहा है।

जो दुकानदार व मालिक कोरोना को लेकर रो रहे थे, जिनका कुछ दिनों पहले दिवाला निकल रहा था, धनतेरस ने दिवाली के पूर्व ही धमाल दिखा दिया, उनके घरों में धन की ढेर लग गई। खुशियां इतनी दिखी कि उनके चेहरे का सिकन ही गायब था। घर के बच्चे-बूढ़े, महिला-पुरुष सभी मग्न, सभी खुश क्योंकि उनकी खुशियां उनके घर पर बरस रहे धन ने लौटा दी थी, उन्हें इस धन में ही परमआनन्द व ब्रह्मानन्द दिखाई पड़ रहा था।

जो लोग भारत-चीन सीमा पर तनाव के बाद चीनी सामग्रियों का बहिष्कार करने का नारा दे रहे थे, वे भी चीनी लड़ियों को लेने में ज्यादा दिलचस्पी ले रहे थे, क्योंकि उनके पास, उनके अनुसार, इन लड़ियों का कोई विकल्प नहीं था, और जिनके पास मोबाइल का विकल्प था भी वे भी चीनी मोबाइलों पर टूट पड़े, देश की सीमाओं पर शहीद हो रहे सैनिक उन्हें कल याद नहीं आ रहे थे, उन्हें यह याद नहीं आ रहा था कि भारत का कोई सिपाही आज भी इस भयानक ठंड में भारत-चीन सीमा पर देश की रक्षा के लिए खड़ा है।

स्थिति ऐसी थी कि भारत के कबीर व तुलसी के देश में पूंजीवाद ने इस प्रकार बीजारोपण कर दिया था कि अगर लोग कबीर व तुलसी को धनतेरस के दिन बाजारों में देख लेते, तो उनकी भी खिल्ली उड़ाने से नहीं चूकते और कबीर को भी यह कहकर चिरकाने लगते – मन लागा मेरा यार अमीरी में, जो सुख पाओ चीनी सामान खरीद में, वो सुख नाहीं गरीबी में, मन लागा मेरा यार अमीरी में…।

मैं 54 साल का हो गया हूं। बचपन में लोगों को देखता था कि जो मध्यमवर्गीय परिवार होता, वो अपने घरों में पड़े पीतल या कांसे के टूटे-फूटे, पुराने बर्तनों को बर्तन की दुकान पर ले जाता, और उसके बदले कुछ पैसे लगाकर नये बर्तन खरीदकर धनतेरस का पर्व मनाता, इससे उसके घर में खुशियां और नये बर्तनों के आने से जरुरत की सामग्रियां भी घर में आ जाती, जो नित्य दिन के काम में आ जाता। इसके लिए धनतेरस का बेसब्री से इंतजार भी होता, पर अब तो शायद ही किसी के घर में पीतल या कांसे के बर्तन का उपयोग होता होगा, अब तो सभी के घर में लोहे या प्लास्टिक के बर्तनों का उपयोग होता है, ऐसे में पीतल व कांसे की बर्तन को लोग क्यों पूछे?

अब तो आवश्यकता भी बदल गई, मोटरसाइकिल या कार की जरुरत हो या नहीं, पर खरीदना जरुरी है, चाहे घर में कार रखने की जगह हो या न हो, पर खरीदेंगे जरुर और उसे रखेंगे अपने घर के ठीक सामने या घर से सटाकर, वह भी सड़क पर, चाहे उसके बाद लोगों को आने-जाने में पसीने ही क्यों न छूट जाये? चाहे घर में प्रतिदिन एक चम्मच शुद्ध घी खाने की औकात हो या न हो, धनतेरस के दिन महंगी मोटरसाइकिल या कार खरीदकर अथवा सोने-चांदी के गहने खरीदकर दूसरों की छाती पर मूंग जरुर दलेंगे, ताकि आनन्द की प्राप्ति हो जाये, पता नहीं ऐसी सोच लोगों को कहां से आ गई, वह भी स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद। इससे अच्छा तो गुलाम भारत था, कम से कम उस वक्त ऐसी सोच तो नहीं थी।

आम तौर पर कहां गया है कि धन की तीन गतियां है – दान, भोग अथवा नाश। धन का दान सर्वोत्तम गति माना गया है, अगर आप दान नहीं करते, तो आपके पास दुसरा विकल्प है कि उसका उपभोग करिये नहीं तो तीसरा विकल्प आपके सामने है ही, वह स्वतः नष्ट हो जायेगा। लेकिन चरित्र का क्या विकल्प है, कोई बता सकता है कि चरित्र रुपी धन दान किया जा सकता है, या उसका उपभोग अथवा उसे नष्ट किया जा सकता है, अगर उत्तर नहीं हैं, तो फिर चरित्र रुपी धन को जीवन में उतारने की जरुरत है, या नाशवान धन को खरीदने की।

क्या नाशवान धन सुख देता है, या उसमें सुख देने की क्षमता है, तो फिर जब उसमें सुख देने की क्षमता है ही नहीं, तो हम चरित्र रुपी धन को क्यों न संवारें। कहा भी गया है – धन गया कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया कुछ गया और चरित्र गया तो सभी कुछ चला गया। ऐसे में जिस देश में, जिस समाज में चरित्र रुपी धन की ही महिमा सर्वत्र गाई गई है, वहां कार, मोटरसाइकिल, सोने-चांदी में सुख की कामना लोग कैसे कर बैठे? और अगर यही सब चलता रहा तो आनेवाले समय में क्या लोग स्वतः अपने चरित्र का नुकसान कर स्वयं को खत्म नहीं कर लेंगे। देश हो या समाज या परिवार, जान लीजिये, चरित्र से ही बनता है। धन से नहीं।

क्या कोई बता सकता है कि चरित्र किस दुकान पर खरीद-बिक्री होती है, जहां जाकर हम उधार या नकद लेकर आधा किलो या स्वविवेक के अनुसार हम कोई भी मात्रा में चरित्र की खरीदारी कर लें? चरित्र को न तो कोई बेच सकता है और न खरीद सकता है, चरित्र तो धारण किया जाता है, चरित्र तो माता-पिता व गुरु तथा आदर्श समाज के द्वारा गढ़ा जाता है, अगर माता-पिता, गुरु व समाज ही चरित्र को ताक पर रखकर सोने-चांदी, कार व मोटरसाइकिल में अपना भविष्य ढूंढने लगे तो समझ लीजिये, देश कितना प्रगति कर रहा है या कहां तक जायेगा।

ऐसे भी भारत सोने-चांदी या कार-मोटरसाइकिल खरीदने का नाम नहीं है, हमारा देश तो त्याग व चरित्र का भान करानेवाला देश है। इस देश ने कभी धनाढ्यों को माथे पर नहीं चढ़ाया यहां तो लोगों ने लंगोटी धारण करनेवाले को अपना राष्ट्रपिता मान लिया, सामान्य जिंदगी जीनेवाले पटेल को अपना सरदार मान लिया, तुलसी-नानक-कबीर-रविदास जैसे महान संतों को अपना पथ-प्रदर्शक मान लिया। ऐसे में जरा सोचियेगा कि आपने धनतेरस कैसा मनाया और इन महान विभूतियों ने या इनके काल में धनतेरस कैसा मनता होगा? या ये महान हस्तियां अथवा इनके काल के लोग कैसे धनतेरस मनाते होंगे?

मेरा तो साफ मानना है कि खुशियां ईश्वर देता है। खुशियां आपके अच्छे कर्म देते हैं। धन कभी खुशियां नहीं दे सकता। जिन-जिन लोगों ने अवैध व अनैतिक रुप से धन कमाकर धनतरेस के दिन अथवा किसी भी दिन सुख की आकांक्षा लेकर, धन का विकल्प खरीदा, वही विकल्प उनके दुख का कारण बना और उन्हें पूरी तरह से नष्ट करके रख दिया, पर इसके विपरीत जिन्होंने चरित्र रुपी धन पर ध्यान दिया। निरन्तर उसे अपने मूल्यों द्वारा गढ़ते रहे। उन्होंने एक न एक दिन ऊंचाई को छू लिया और अपने जीवन को सार्थक भी कर लिया। धनतेरस का मतलब भी यही है, अपने स्वास्थ्य और चरित्र के प्रति सचेष्ट हो जाइये।

प्रतिवर्ष आनेवाला यह धनतेरस बताता है कि चिन्तन करिये कि आपने एक वर्ष में क्या खोया, क्या पाया? अगर आप इस पर ध्यान दिये तो आप अंधकार से प्रकाश की ओर चल दिये, नहीं तो आप वहीं हैं, जहां पहले से थे, यानी अंधकार में और आपको कोई प्रकाश की ओर ले भी नहीं जा सकता, क्योंकि उस अंधकार के मार्ग को किसी दूसरे ने नहीं, आपने खुद चुना है।