हाहाहाहाहाहाहाहाहा, ये यूनियन/क्लब के लोग मिलकर पत्रकारों की दशा और दिशा सुधारेंगे?
भाई, मेरा तो साफ मानना है कि उस व्यक्ति अथवा संस्था की दशा और दिशा कोई नहीं सुधार सकता, जो व्यक्ति अथवा संस्था अपनी दशा और दिशा सुधारने को खुद उत्सुक न हो। नेताओं-सरकारों या किसी यूनियन की वैशाखियों या टुकड़ों पर किसी भी व्यक्ति अथवा संस्था की दशा या दिशाएं आज तक नहीं सुधरी। कल तक हमने केवल यहीं सुना था कि आज का विषय है – “पत्रकारिता की दशा और दिशा” पर आज समय बदला है। चालाक लोगों ने विषय ही बदल डाले हैं। विषय हो गया – पत्रकारों की दशा और दिशा।
इसमें वे लोग भी शामिल हो रहे हैं, जो पत्रकारों के लिए सरकार द्वारा बने क्लब चलाते हैं और वे लोग तो है ही जो पत्रकारों के शोषण का एक नया अध्याय ही लिखने के लिए तैयार हैं। कमाल यह भी है, कि ऐसे लोगों को शर्म नहीं आती, वे मंच पर बैठकर, उन मासूम लोगों से जो कि मंच के नीचे कुर्सियों पर बैठकर भविष्य के सपने बून रहे होते हैं, ऐसे लोगों से गर्म शॉल वह भी सम्मान के नाम पर इनसे खुद को ओढ़वा लेते हैं तथा कुछ जुगाड़ टेक्नॉलॉजी से इन्हीं में से कुछ को गर्म शाल या सफेद किस्म के चादर ओढ़ाकर अपने पक्ष में ताली ठोकवा लेते हैं।
हम आपको बता दें कि इस प्रकार के कार्यक्रमों को आयोजित करने-कराने में ये नेताओं का भी सहारा लेते हैं, नेता भी इनके कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं, शायद उन्हें लगता है कि ये ही पत्रकार उनके भाग्य-विधाता है, वे आराम से मंच पर बैठकर खुद भी गर्म शाल लेकर आनन्द के सागर में डूबकी लगाते हैं। हमारा मानना है कि इस प्रकार के कार्यक्रम में कम से कम संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को बचना चाहिए, क्योंकि इससे समाज में गलत संदेश भी जाता है।
नेताओं को मालूम होना चाहिए कि कोई भी पत्रकार किसी भी नेता का कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता, जब तक उसने खुद ऐसे कामों को न किया हो, जिससे समाज की मर्यादा छिन्न-भिन्न होती हो। इसके लिए सुंदर उदाहरण है – 2019 में हुई झारखण्ड विधानसभा चुनाव का परिणाम। जब यहां के सारे अखबार-चैनल हर-हर रघुवर, भज-भज रघुवर का मंत्र जाप कर रहे थे, उसके बावजूद भी वे रघुवर को सत्ता में नहीं ला सकें, जबकि बिना किसी अखबार-चैनल की कृपा के हेमन्त अभी सत्ता में हैं, जनता का उन्हें आशीर्वाद प्राप्त है।
नेताओं को तो चाहिए कि ऐसा आयोजन करनेवाले बड़े-बड़े मठाधीशों यानी संपादकों-डायरेक्टरों से सीधे उसी मंच से पूछे कि सरकार तो आपको बाद में मदद करेंगी, पहले आप बताइये कि आपने अपने अखबार में काम करनेवाले पत्रकारों की दशा और दिशा सुधारने के लिए क्या किया? क्या आप उन्हें समय पर वेतन देते हैं? अरे समय पर की बात छोड़िये, वेतन देते भी हैं? अगर वेतन देते हैं तो फिर आपके यहां पांच-छह महीने कामकर पत्रकार आपके यहां सेवा बंद क्यों कर देते हैं? आप अपने यहां नेट/मोबाइल का उपयोग करने क्यों नहीं देते जबकि समाचार संकलन के लिए यह आज बहुत ही जरुरी है? समाचार संकलन के लिए ही अपने संवाददाताओं को पेट्रोल क्यों नहीं देते?
समय-समय पर जो नेताओं से पत्रकारों के कल्याण के लिए गाड़ियां लेते हैं, वे गाड़ियां, उन पत्रकारों के कल्याण के लिए न दिखाई देकर, किसी मठाधीश के यहां क्यों दिखाई पड़ती है? जैसे ही नेता ये सवाल इस प्रकार के आयोजनकर्ताओं से पूछेंगे, आप देखेंगे कि दुबारा इस तरह का कार्यक्रम ही नहीं होगा। दरअसल यह साल में एक-दो बार वह भी जाड़े में इसलिए करवाया जाता है ताकि इसी बहाने एक पिकनिक हो जाये। एक दूसरे का सम्मान हो जाये, अखबारों की सुर्खियां बन जाये और जिन यूनियन का दिल्ली में बैठे यूनियनों से संबंद्धता मिली है, उसे भी यह बात मालूम हो जाये कि उसके यूनियन के लोग रांची में कितने मजबूत हैं?
सच्चाई तो यह है कि हटिया में हुए पत्रकारों की दशा और दिशा में किसी ने मंच पर बैठे नेताओं से यह नहीं पूछा कि जो मंच पर बैठ एक अखबार के संपादक है, वे कब अपने अखबार में काम कर रहे पत्रकारों को मजीठिया दिला रहे हैं, भला ये सवाल पूछने की ताकत किसमें हैं? और ये कौन पूछेगा? यूनियन में रहना है कि नहीं? यहां तो केवल सरकार से लेना हैं और अपनी पी-आर नेताओं से बनानी है ताकि ये लोग जान लें कि हमारे पॉकेट में कितने पत्रकार हैं, जबकि सच्चाई यह है कि इनके पॉकेट में कोई पत्रकार नहीं होता और न ही इनका कोई वजूद होता है। भला आप भीख मांगियेगा और अपना वजूद भी दिखाइयेगा तो दोनों तो नहीं ही चलेगा?
सच्चाई तो यह है कि पहले वे संपादक जो इस प्रकार की यूनियन चलाते हैं, पहले वे अपने अखबारों में हो रहे कांडों पर श्वेतपत्र जारी करें, लोगों को बताएं कि उनके यहां पत्रकारों पर दिये जानेवाले वेतन के मद में कितने बकाये हैं, कितने इपीएफ के पैसे बकाये है? कौन-कौन सी सुविधा दे रखी है और उसके बाद यूनियन या पत्रकारों की दशा और दिशा पर बात करें तो सही में विद्रोही24 को बहुत खुशी होगी।