हेमन्त जी बचिये अपने सलाहकारों से, अगर यही हाल रहा तो ये आपको तीस से 03 पर ले आयेंगे
हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के इंडिया कांफ्रेस में झारखण्ड के मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन ने कहा – आदिवासी न हिन्दू था और न हिन्दू है। जैसे ही उन्होंने ये वाक्य कहे, लोग अपने-अपने ढंग से इसका अर्थ निकाल रहे हैं। अर्थ निकालना भी चाहिए, क्योंकि हार्वर्ड के माध्यम से हेमन्त सोरेन ने एक राजनीतिक बयान देकर, विवाद को ही जन्म दिया है। इन दिनों ऐसे भी भारत में कुछ ऐसी कम्यूनिटियां पैदा हो गई हैं, जिन्हें हिन्दू नाम से ही चिढ़ हैं, और ऐसे लोगों को खाद-पानी देने का काम वे वामपंथी व कांग्रेसी करते हैं, जिनको लगता है कि इस प्रकार की चीजों को हवा देने से उनको राजनीतिक फायदा मिल जायेगा, क्योंकि हिन्दूओं का ध्रुवीकरण भाजपा के पक्ष में हैं।
ऐसे जो भारतीय धर्म व संस्कृति के जानकार है, उनका तो हिन्दू शब्द पर ही आपत्ति है। वे मानते है कि हिन्दू शब्द विदेशी आक्रान्ताओं की देन है। वे तो ये भी कहते है कि किसी भी प्राचीन भारतीय वांग्मय में हिन्दू शब्द का समावेश नहीं हैं। यह हिन्दू शब्द का पहली बार प्रयोग विदेशी आक्रान्ताओं ने उन भारतीयों के लिए किया, जो भारतीय भू-भाग में रहा करते थे, पर वे न तो मुस्लिम थे और न ही ईसाई, और यही कारण बन गया कि आनेवाले समय में यह शब्द उन लोगों के लिए प्रयोग होने लगा, जो न तो मुस्लिम थे और न ही ईसाई।
कालातंराल में इसी हिन्दू शब्द का प्रयोग सनातन-वैदिक धर्मावलम्बियों के साथ-साथ उन सारे लोगों के लिए होने लगा, जो भारत में रहा करते थे। चूंकि इनकी संख्या बहुतायत थी, ये हिन्दू कहलाने लगे। कालांतराल में पूरा भू-भाग हिन्दुस्तान कहलाने लगा और यहां के लोग हिन्दुस्तानी कहलाने लगे। आप इसे इस प्रकार समझे कि कभी एक स्थान का नाम प्रयागराज था। इस्लामी शासकों ने इसका नाम बदलकर इलाहाबाद रख दिया और अब वो इलाहाबाद फिर से प्रयाग राज बन चुका है।
अब सवाल उठता है कि जब उस स्थान का नाम प्रयाग राज था ही, तो फिर उसे नया नाम देने की क्या जरुरत थी। दरअसल हर आक्रांता/शासक उन सारी चीजों को मिटा देना चाहता है, जिससे उस देश की संस्कृति झलकती है, यही कारण था कि किसी के नाम बदल दिये गये तो कई मंदिरों को तोड़ डाला गया, जो भारत की महान संस्कृति का बखान कर रहे थे।
ठीक उसी प्रकार न तो भारत में कोई हिन्दू था और न किसी खास को आज हिन्दू कहा जाय तो उस पर किसी को आपत्ति है, क्योंकि ये शब्द इस प्रकार घुल-मिल गये है कि सनातनियों-वैदिक व अन्य धर्मावलम्बियों को आप हिन्दू भी कहें तो उन्हें इस शब्द से चिढ़ नहीं है। लेकिन चिढ़ किसको हैं, तो चिढ़ उनको हैं, जो इन दिनों इस शब्द से ज्यादा प्रभावित है, जिन्हें लगता है कि इस शब्द ने उनकी राजनीति को कबाड़ा बना दिया हैं, इसलिए वे देशी-विदेशी जगहों पर हिन्दू शब्द को लेकर अपना गुस्सा प्रकट करते हैं।
हिन्दूओं के खिलाफ विषवमन करनेवालों ऐसे लोगों को जैसे लगता है कि एक मदिरा प्राप्त हो गया हो, जिसे पीकर वे अपने आप में न रहकर, वो सारी उलूल-जूलूल हरकत करते हैं, जिससे इस बहुसंख्यक समुदाय को पीड़ा होती है, फिर भी ये कुछ नही बोलते, चुपचाप सहते हैं, क्योंकि हिन्दुओं के लिए विश्व में कोई ऐसा देश ही नहीं हैं, जो इसके खिलाफ विरोध दर्ज करा सकें। एक नेपाल था भी, तो वह भी धर्मनिरपेक्षता का शरबत पीकर स्वयं को हिन्दुमुक्त होने का लबादा ओढ़ लिया, और रही बात ईसाइयों और मुस्लिमों की तो उनके क्या कहने, जिधर देखों, उधर उनके माननेवालों की देश बहुतायत में हैं।
जो अपने हिसाब से मानवीय मूल्यों की बातें करते हैं, जहां सिर्फ उनकी चलती है, और गलती से वहां कोई हिन्दू अल्पसंख्यक के रुप में पैदा हो गया तो उसकी सही दिशा देखनी हो तो पाकिस्तान चले जाइये। जहां सिक्खों-हिन्दुओं की बहु-बेटियों को अगवा कर लिया जाना और फिर उसे धर्मांतरित कर इस्लाम का जन्मघूंटी पिला दिया जाना वहां आम बात है, अगर पाकिस्तान नहीं भी जाना चाहते हैं तो राजस्थान या दिल्ली का चक्कर काट आइये, जहां पाकिस्तान से आये हिन्दुओं का समूह झुग्गी-झोपड़ियों मे रह रहा हैं, जिनमें ज्यादातर दलित हैं, उनकी मनोदशा देख लीजिये।
खैर, हेमन्त सोरेन ने जिस प्रकार हार्वर्ड को अपनी व्यथा सुनाई और अपनी पीड़ा दिखाते हुए, स्वयं को हिन्दु कहलाना उन्होंने अच्छा नहीं समझा, तो हम चाहेंगे कि हेमन्त सोरेन को यह व्यथा अपने क्रियाकलापों में भी दिखानी चाहिए। उन्हें काशी-विश्वनाथ मंदिर जाकर शिवलिंग पर जल चढ़ाने से बचना चाहिए। उन्हें अपने घर में नवरात्र भी नहीं मनाना चाहिए। उन्हें तारापीठ जाने से भी बचना चाहिए। उन्हें दीपावली और छठ से भी दूरियां बनानी चाहिए, क्योंकि कथनी और करनी में अंतर किसी भी राजनीतिज्ञ के लिए शुभ नहीं।
हेमन्त सोरेन को अपने पिता से कुछ बातें सीखना चाहिए, जब शिबू सोरेन मुख्यमंत्री थे, तब उन्हें रावण के पुतला दहन कार्यक्रम में आमंत्रित किया गया था, जहां उन्होंने जाने से इनकार कर दिया था, जरा पूछना चाहिए कि, हे पिताजी आपने ऐसा क्यों किया? शायद उत्तर मिल जाय। उन्हें यह पूछना चाहिए कि झारखण्ड के ज्यादातर जंगलों-पहाड़ों में सूर्य मंदिर/शिव मंदिर आदि क्यों दिखाई देते हैं? खुद उनके ही इलाके संथाल परगना में वैद्यनाथ क्यों विराजते हैं, वासुकिनाथ क्यों विराजते हैं?
हेमन्त सोरेन को यह भी पूछना चाहिए कि, हे पिताजी आप ये भी बताइये कि वैद्यनाथ मंदिर या वासुकि नाथ मंदिर में जो पंडा लोगों को शिव पर जल चढ़ाने के लिए संकल्प कराते हैं, तो उसमें वे भारत के विभिन्न नामों को तो बोलते हैं, पर हिन्दू या हिन्दुस्तान क्यों नहीं बोलते, जबकि भारत का एक नाम हिन्दुस्तान भी हो गया है, तब पता चलेगा कि हिन्दू या हिन्दुस्तान क्या होता है?
हेमन्त सोरेन को यह भी पूछना चाहिए कि श्रीरामचरितमानस में शृंगवेरपुर के राजा निषादराज गुह, श्रीरामचन्द्र की सेवा के लिए अपनी सारी राजगद्दी क्यों उनके चरणों में रख देते हैं? श्रीरामचरितमानस में शबरी और उसकी नवधा भक्ति की चर्चा क्यों हैं? जबकि वे निषादराज गुह और भीलनी शबरी जिसके आगे पूरा हिन्दु समुदाय माथा टेकता है, उनकी इतनी सम्मान क्यों है? मैं श्रीरामचरितमानस इसलिए लिख रहा हूं कि यह अवधी भाषा में लिखी गई है, जल्दी समझ में आ जायेगा। वाल्मीकि की चर्चा करुंगा तो फिर एक संस्कृत का विद्वान खोजने के लिए कहीं से जुगार करना होगा।
हेमन्त सोरेन को पूछना चाहिए यही के साहित्यकार अशोक प्रियदर्शी से कि, विदेशी फादर कामिल बुल्के तुलसी और उनके राम के प्रति इतनी फिदा क्यों और कैसे हो गये? भारतीय धर्म-साहित्य में तो आदिवासियों की महानता और उनकी वीरता के कई किस्से भरे-पड़े हैं, आप कहां से सिद्ध करेंगे कि हिन्दू और आदिवासी अलग-अलग है। हमारे पास कई ऐसी किताबें हैं, जिन्हें आप हिन्दू धार्मिक पुस्तकें बता देंगे, जिसमें आदिवासियों की महान गाथाएं वह भी एक से एक भरे पड़े हैं। एकलव्य उन्हीं में से एक हैं, एकलव्य को तो जानते ही होंगे, जिनका अंगूठा काट लिया गया था।
अंततः हेमन्त सोरेन जी, याद रखिये। ये जो आपने अपने अगल-बगल में रघुवर दास की तरह जो नाना प्रकार के सलाहकार बैठा लिये हैं। जो वे आपको सलाह दे रहे हैं, निःसंदेह आपको तीस से तीन की ओर ले जाने की तैयारी कर दिये हैं, क्योंकि 2020 में जो भी आपने यश कमाया है, वो यश 2021 में इन प्रकार की हरकतों से पूरी तरह समाप्त होने को बेताब है, यह मुझे स्पष्ट अनुभव हो रहा है। ऐसे भी जहां आपने भाषण दिया है, वहां से आपको दूरियां बनानी चाहिए थी, आपको उन लोगों से भी दूरियां बनानी चाहिए, जो झारखण्ड के लिए बदनुमा दाग है, पर मैं देख रहा हूं कि आपके सलाहकारों ने वैसे लोगों को आपके समकक्ष बैठाने का काम शुरु कर दिया है, जो आपके अनुकूल नहीं है।
अगर आपने इसी प्रकार से एक-दो और बयान दे दिया, तो समझ लीजिए, आपकी सत्ता गई। जब आपकी सत्ता गई तो नुकसान आपके सलाहकारों का नहीं होगा, यह नुकसान आपको थोड़ा हो सकता है, पर झारखण्ड का तो पुरा नुकसान हो जायेगा, क्योंकि मैं आपको जानता हूं कि आप सरल, सहज और सहृदय हैं। मैं नहीं चाहता कि आपको झारखण्ड खो दें, पर जो स्थितियां हैं, वो खतरनाक है, सलाहकारों ने आपको चारों ओर से घेर लिया हैं, और ये सलाहकार आपके चाहनेवालों को आप तक पहुंचने ही नहीं दे रहे हैं, ऐसा घेर लिया है कि जैसे लगता है कि अगर कोई आपके पास पहुंच गया तो उनकी रोजी-रोटी ही समाप्त हो जायेगी, इसलिए उन्होंने एक तरह से ऐसी व्यवस्था कर दी है कि कोई आप तक पहुंच ही नहीं सकता।
उदाहरण – एक महादलित युवा पिछले एक साल से आपसे मिलने को बेताब है, उसको आपसे मिलने ही नहीं दिया जा रहा और हद तो तब हो गई कि हमको ही आपसे मिलने में एक साल लग गये, आपके सलाहकारों को कई बार फोन किया, पर वे क्यों फोन हमारा उठायेंगे, या जवाब देंगे, ये स्वयं को मुख्यमंत्री से कम थोड़े ही समझते हैं। खैर, जो मन करें, वे करें। हमारा काम है – जगाना, जगाते रहेंगे। झारखण्ड के हित के लिए कुछ करते रहेंगे।
अंत में…
कोई तीन दिन तक सोया रह गया और चौथे दिन जगा, इसका मतलब ये नहीं कि तीन दिन तक सूर्य उगा ही नहीं, दिन हुआ ही नहीं। उसी तरह किसी व्यक्ति विशेष के द्वारा चलाया गया धर्म, धर्म नहीं होता, क्योंकि धर्म उस व्यक्ति के जन्म के पूर्व से था, हैं और रहेगा। धर्म कोई चला ही नहीं सकता, वो सत्य है, शाश्वत है। हां, व्यक्ति-विशेष के द्वारा चलाया गया कुछ भी, मत कहलाता है और उसे माननेवाले मतावलम्बी कहलाते हैं, ठीक उसी प्रकार हिन्दू हो या आदिवासी, उनके धर्म को किसने चलाया, कोई बता ही नहीं सकता।
इसलिए आदिवासी और हिन्दूओं में कई समानताएं हैं, दोनों प्रकृतिपूजक है। ये अलग बात है कि जिन अंग्रेजों ने आदिवासी और हिन्दूओं में कई प्रकार की विघटन के बीज बोने की कोशिश की, पर वे सफल नही हो पाएं, लेकिन आज जब भारत और यहां के आदिवासियों की प्रगति करने का समय हैं तो आदिवासी और हिन्दूओं में नये-नये विवादों का जन्म कैसे हो? इस पर दिमाग लगाया जा रहा हैं, अफसोस यह कि उसमें आप जैसे लोग भी आहूति डाल रहे हैं, डालिए, जो करना है, करिए, हमें क्या?
झारखण्ड के भाग्य में अगर रोना ही लिखा है, तो हम और आप कर भी क्या सकते हैं, खूब इसी प्रकार का बयान दीजिये, दिलवाइये, विषवमन कराइये, अपने सलाहकारों के दिव्यज्ञान से अनुप्राणित होइये। हम तो चाहते है कि अभी आप सारे विवादों से दूर होकर, 2020 की तरह केवल मानवीय मूल्यों पर स्वयं को रेखांकित करिये, ताकि झारखण्ड का नाम हो, आपका नाम हो, पर ये तभी संभव होगा, जब आप…