द रांची प्रेस क्लब मतलब उल्टा चोर कोतवाल को डांटे!
द रांची प्रेस क्लब से जुड़े महान पदाधिकारियों ने प्रेस क्लब से जुड़े चार महत्वपूर्ण सदस्यों, जिन्होंने उनके द्वारा की गई गलतियों का पर्दाफाश किया। खूलेआम विरोध किया। उनकी गलतियों को AGM में उठाकर, उनके मन में छूपे गलत इरादों को तार-तार कर रख दिया, उन चारों पर हंगामा करने, धक्का-मुक्की करने व बदसलूकी करने का आरोप लगाते हुए, कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया है।
साथ ही डेट भी मुकर्रर कर दी है, कि ये चारों सदस्य 09 मार्च को संध्या पांच बजे तक क्लब कार्यालय में अपना लिखित पक्ष रखे। ये कारण बताओ नोटिस डिजिटल भी जारी हुआ है यानी व्हाट्सएप-इमेल से भी जारी हुआ है, साथ ही इसकी हार्ड कॉपी आफिस से ले जाने को इन चारों सदस्यों को कहा गया है। जिन चार सदस्यों को द रांची प्रेस क्लब के महान सपूतों ने निशाने पर लिया है। वे हैं- द रांची प्रेस क्लब के पूर्व कार्यकारी सदस्य संजय रंजन, वरिष्ठ पत्रकार सुशील सिंह मंटू, वरिष्ठ पत्रकार बिपिन सिंह एवं चंद्रशेखर सिंह।
आखिर ये मामला क्या है? आखिर क्यों द रांची प्रेस क्लब के महान सपूतों को ये चारों फूंटी आंखों नहीं सुहाते। उसका मूल कारण है कि इन चारों सदस्यों ने खुलकर AGM में उन बातों का विरोध किया, जिससे रांची प्रेस क्लब की आत्मा को दूषित करने का प्रयास किया जा रहा था। ये वहीं चार लोग थे, जिन्होंने खुलकर कहा कि द रांची प्रेस क्लब के पदाधिकारी अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए प्रेस क्लब के संविधान के साथ खेलने की कोशिश कर रहे है।
दरअसल AGM में द रांची प्रेस क्लब के पदाधिकारी तीन प्रस्तावों का अनुमोदन करा रांची प्रेस क्लब के संविधान मे संशोधन कराना चाहते थे, जो नियम विरुद्ध था। पहला ये चाहते थे कि ये लोग जब तक जीवित रहे, चुनाव लड़ते रहे और द रांची प्रेस क्लब के विभिन्न पदों पर कायम रहे, जबकि वर्तमान संविधान कहता है कि एक व्यक्ति एक ही पद पर, वह भी दो ही टर्म रह सकता है, तीसरे टर्म के लिए उसी पद पर वो चुनाव नहीं लड़ सकता, ये इसे बदलना चाहते थे।
दूसरा ये चाहते थे कि प्रेस क्लब के अधिकारियों का कार्यकाल दो साल का न होकर तीन साल का हो, जबकि वर्तमान में ये संभव नहीं है। तीसरा ये चाहते थे कि जो चुनाव में वोट देने का एक साल की जो बॉडिंग है, उसे घटाकर छह माह कर दिया जाय, ताकि अपने लोगों को प्रेस क्लब में घुसाकर प्रेस क्लब पर सदा के लिए नियंत्रण कर लें।
बात यहा संविधान के संशोधन की भी नहीं थी, आप कोई भी संशोधन कराये, पर वो नियमानुकूल हो तो सही है, पर इन्होंने अपने पावर का गलत इस्तेमाल करना शुरु कर दिया। 28 फरवरी को एजीएम की मीटिंग बुलाई और लगे संशोधन करने का प्रस्ताव लाने, जबकि नियम है कि जब आप कोई संशोधन लायेंगे तो उस संशोधन की जानकारी आपको 14 दिन पूर्व सारे सदस्यों को देनी होगी, लेकिन इन्होंने जानकारी कब दी?
जब सुशील सिंह मंटू ने एक दिन पहले यानी 27 फरवरी को ये सवाल उठाए कि प्रेस क्लब के पदाधिकारी, चोरी-छुपे संविधान में संशोधन करना चाहते है, तब इन्होंने आपा-धापी में 27 फरवरी को लगभग एक बजे, सभी को व्हाट्सएप पर यह संशोधन की सूचनाएं उपलब्ध कराई, जो नियम के विरुद्ध था। इधर जैसे ही AGM शुरु हुई। प्रेस क्लब के महान सपूत पदाधिकारियों ने वो सब करना शुरु किया, जो प्रेस क्लब का संविधान इन्हें इजाजत नहीं दे रहा था, और लीजिये फिर यही से शुरु हुआ विरोध।
संजय रंजन, सुशील सिंह मंटू, बिपिन सिंह और चंद्रशेखर सिंह सहित कई सदस्यों ने विरोध करना शुरु किया, जो रांची प्रेस क्लब के महान सपूतों का नागवार लगा, भला कोई उनका विरोध करें, ये कैसे वे बर्दाश्त करते, लीजिये उन्होंने जबर्दस्ती प्रस्ताव को पास कराने का निर्णय लिया और देखते ही देखते AGM हंगामे की भेंट चढ़ गई। दोनों पक्षों ने अपने-अपने ढंग से हंगामा-विरोध करना शुरु किया।
एक जबर्दस्ती प्रस्ताव पास कराने पर अड़ा था, और दूसरा पक्ष गलत तरीके से प्रस्ताव पास कराने के निर्णय का विरोध कर रहा था। मंचासीन एक पदाधिकारी तो इतना आक्रामक था कि उसकी भाषा आपत्तिजनक थी। तभी अचानक मंच से कहा गया कि प्रस्ताव पर वोटिंग कराई जायेगी, फिर बाद में अध्यक्ष ने ही कह दिया कि इसके लिए SGM यानी स्पेशल जेनरल मीटिंग बुलाई जायेगी। मामला खत्म हुआ।
इधर बताया जाता है कि कल प्रेस क्लब के महान सपूतों ने एक बैठक की, शायद AGM की मीटिंग का जो उनके पास विजूयल था। उन्होंने उसे देखा, और वही देखा जो सिर्फ उन्हें देखना था। उस विजूयल में इन्हें इन चारों की गलतियां दिखी, पर उस व्यक्ति की गलती नहीं दिखी, जो चंद्रशेखर पर हाथ छोड़ रहा था।
उन्हें अपने एक पदाधिकारी की गलती नहीं दिखी, जो अपने ही सदस्यों के लिए, वह भी मंच से आपत्तिजनक भाषा का प्रयोग कर रहा था, जिसका विडियो विद्रोही24 के पास मौजूद है। उन्हें अपने ही एक अधिकारी का प्रेस क्लब के बाहर ही कर रहे कृत्य दिखाई नहीं पड़े, यानी गजब की प्रेस क्लब है भाई। जिसे दूसरे में छिद्र न होते हुए भी छिद्र दिख जाता है, पर अपनी वाली छिद्र दिखती ही नहीं।
राजनीतिक पंडित कहते है कि उन्हें समझ नहीं आ रहा कि आखिर रांची प्रेस क्लब से अधिकारियों को इतना मोह क्यों हो गया है? आखिर इससे क्या फायदा मिलता है? कुछ न कुछ फायदा तो होता ही होगा या उठाते ही होंगे तभी तो इसके लिए इतनी दिमाग लगाई जा रही है, संविधान में संशोधन और पता नहीं क्या-क्या कराया जा रहा है, नहीं तो कोई अध्यक्ष बने, कोई महासचिव बने, वो कितने दिनों या कितने वर्षों तक रहे, क्या मतलब है?
राजनीतिक पंडित तो यह भी कहते है कि गड़बड़ियां तो बहुत है, पर उन गड़बड़ियों को ध्यान देकर हटाने की बजाय, नई गड़बड़ियां लाकर खड़ी कर देना, कहा की बुद्धिमानी है। राजनीतिक पंडित तो यह भी कहते है कि आखिर प्रेस क्लब के महान सपूतों को तो ये बताना चाहिए कि पहली कमेटी के कुछ लोग किनके पैसों से टूर पर गये थे, अगर वे कहते है कि अपने पैसे पर टूर पर गये थे, तो रांची प्रेस क्लब के काम के लिए अपने पैसे क्यों आप लगायेंगे? गड़बड़ियां तो यहीं से शुरु होती है न, आप किसी को बोलने का मौका क्यों देते हैं? अगर बोलने का मौका देते हैं तो सुनने की ताकत भी रखिये, और रही बात कारण बताओ नोटिस की, तो इन सबसे डरता कौन है?
हां, अंतिम बात, रोइये मत, इमोशनल ब्लैकमेलिंग बंद करिये, बात रखिये और सही रखिये, सभी के दिलों को जोड़िये, केवल अपनी कुर्सी बरकरार रहे, अगर ये सोचेंगे तो आप समझ लीजिये कि आप एक गलत प्रथा को जन्म दे रहे हैं, और आनेवाले समय में लोग आपको इसी बात के लिए याद रखेंगे कि आपने इस गलत प्रथा को जन्म दिया, अच्छी बातों के लिए नहीं जानेंगे। ऐसे भी कहा जाता है कि महत्वपूर्ण यह नहीं कि कौन कितने दिनों तक जिया या कितने दिनों तक उक्त पद पर रहा, महत्वपूर्ण यह है कि उसने वहां रहकर समाज को दिया क्या? वर्तमान में तो सब कुछ दिख रहा है, कि आप सभी ने क्या दिया है?