अपनी बात

कौन कहता है कि सदियों से महिलाओं को पुरुष से पीछे रखा गया है? सच्चाई तो यह है कि महिलाएं नेतृत्वकर्ता हुई हैं

कौन कहता है कि सदियों से महिलाओं को पुरुष से पीछे रखा गया है? मेरे विचार से यह सवाल खड़ा करना ही गलत है, चाहे वह सवाल किसी ने भी उठाये हो। भारतीय वांग्मय या साहित्य में तो ऐसे कई उद्धरण है कि जिसे देखते ही पता चल जाता है कि महिलाओं को कभी भी पुरुषों के पीछे नहीं रखा गया, हमेशा उन्हें समानान्तर स्थान दी गई।

इतिहास पलटिये तो पता चलता है कि हमारे देश की महिलाओं ने कदम से कदम मिलाकर पुरुषों को महान बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, जरा सोचिये जीजाबाई नहीं होती, तो शिवाजी कहां से होते, जीजाबाई को समाज में कम स्थान था क्या? 1857 के संग्राम की वीरांगना लक्ष्मीबाई के बारे में क्या ख्याल है?

जब सिंधिया परिवार अंग्रेजों की गुलामी में लगा था, तब लक्ष्मीबाई अंग्रेजों के गर्दन नाप रही थी, ऐसे में आप कैसे कह सकते हैं कि सदियों से महिलाओं को पुरुषों से पीछे रखा गया है, यानी जो मन किया, बक दिये, बोलना है, बोल दिये, लिखना है, लिख दिये, ऐसा थोड़े ही होता है, जनाब।

आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस है, इस अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का इतिहास भी पढ़िये तो पता चल जायेगा, कि इसकी शुरुआत ही बताता है कि विदेशियों की गंदी सोच से प्रभावित वहां की महिला समाज ने निकलने के लिए इसे ग्रहण किया, जिसे बाद में संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपनाया, और इसके अपनाने के पहले से ही भारत में महिलाओं को सम्मान मिलता रहा है।

अपने यहां जो भी गड़बड़िया आई, उसके लिए विदेशी आक्रमणकारी दोषी है, जिसके प्रभाव में आकर महिलाओं की दुर्दशा प्रारम्भ हो गई, नहीं तो स्वतंत्रता आंदोलन को देखें, तो गांधी को महात्मा बनाने में कस्तूरबा का कम योगदान नहीं था, इसी प्रकार पं. जवाहर लाल नेहरु के साथ उनकी पत्नी कमला कदम से कदम मिलाकर उस वक्त साथ दी थी। महान स्वतंत्रता सेनानी सरोजिनी नायडू की जीवनी को भी आप देख सकते हैं।

स्वतंत्रता के बाद श्रीमती इंदिरा गांधी के राजनीतिक जीवन को देखिये तो पता चल जायेगा कि हमारे देश में महिलाओं का क्या स्थान था, हां कुछ काल व परिस्थितियों में कभी कुछ गड़बड़ हुआ होगा, लेकिन यह मान लेना कि महिलाओं के साथ गलत हुआ। मैं नहीं मानता। आज भी महिलाओं को मां, बहन, चाची, दादी, नानी के रुप में जो सम्मान मिलता है, उस सम्मान को देख कोई भी विदेशी अचंभित हो जाता है, ये हमनें स्वयं आंखों से देखा है, क्योंकि रांची में कई विदेशी युवक-युवतियों को हमने यहां की परम्परा पर मुग्ध होते देखा है।

झारखण्ड में ही कई ऐसी महिलाएं हुई हैं, जिनकी कहानियां खुब प्रचलित है, और कई घरों में पढ़ी व सुनी जाती है। फूलो-झानो उन्हीं में से एक है। उरांव आदिवासी वीरांगना सिनगी दई को भला कौन झारखण्डी भूल सकता है, इसलिए अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर इस प्रकार के शब्द शोभा नहीं देते। मैं तो उन अंसख्य महिलाओं को अपनी श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूं, जिनकी योगदान ने भारत के मान को बढ़ाया है, चाहे वह विदेश में ही क्यों न रहती हो, ऐसी महिलाएं ही वंदनीय है।