संतोषी मरी नहीं, मार दी गई…
संतोषी मरी नहीं, मार दी गई। इसके लिए हम एक को दोषी नहीं ठहरा सकते। संतोषी की मां कहती है कि उसकी बच्ची भूख की वजह से मर गई, पर स्थानीय प्रशासन कहता है कि वह बीमारी से मरी है, संभवतः वह बीमारी का नाम मलेरिया भी बता रही है, पर हम किसी भी हालात में प्रशासन की बात नहीं मानेंगे, क्योंकि जिसके घर में घटना घटी, उसी की बात ज्यादा सुनी जायेगी, हम संतोषी की मां के उस कथन के साथ है, कि उसकी संतोषी भूख की वजह से मर गई।
घटना रांची से करीब 160 किलोमीटर दूर जलडेगा प्रखंड के कारीमाटी गांव की है। बताया जाता है कि चूंकि उसका राशन कार्ड आधार से लिंक नहीं था, इसलिए राशन दुकानदार से उसे पिछले आठ महीने से राशन नहीं मिल रहा था, जिसकी वजह से 11 वर्षीया संतोषी की मौत हो गई। घटना 28 सितम्बर की है। स्थानीय प्रशासन ने भूख से मौत की खबर सुनकर तीन सदस्यीय कमेटी जांच के लिए बनाई। उस जांच कमेटी ने भी रिपोर्ट दे दी है। उसका कहना है कि मौत का कारण भूख न होकर बीमारी है।
कुछ लोग बताते है कि संतोषी के घर की हालात को देखकर, इसकी सूचना उपायुक्त के जनता दरबार में 21 अगस्त और 25 सितम्बर को दी गई थी, फिर भी प्रशासन ने उस परिवार की सुध नहीं ली।
अब अपनी बात…
- जिस गांव में यह घटना घटी, क्या उस गांव के लोग इतने संवेदनहीन हो गये कि वह अपने गांव में रह रहे पड़ोसियों की सुध नहीं ले रहे, कि वह किस हालात में है? मैं पिछले पैतीस सालों से झारखण्ड में हूं। यहां के ग्रामीण क्षेत्रों का कई बार दौरा किया हूं। जो लोग बाहर के लोगों को इतनी आवभगत करते हैं कि बिना कुछ खिलाये किसी को जाने नहीं देते, वहां कोई भूख से मर जाये, ये बात कुछ हजम नहीं होती। फिर भी घटना घटी है, तो इससे साफ पता चलता है कि हमारे इन गांवों में भी अब शहरों की बीमारियों का पदार्पण हो चुका है, जो बहुत ही खतरनाक है।
- ग्रामीणों का यह कहना कि संतोषी के घर की हालात को देखकर, इसकी सूचना उपायुक्त को दो-दो बार दी गई, फिर भी प्रशासन नहीं जगा। यह साफ बताता है कि यहां सिस्टम पूरी तरह फेल है, जब रांची स्थित मुख्यमंत्री रघुवर दास द्वारा संचालित मुख्यमंत्री जनसंवाद केन्द्र में जब मुख्यमंत्री की ही बात प्रशासनिक अधिकारी नहीं सुनते तो भला एक ग्रामीण की बात उपायुक्त क्या सुनेगा?
- आधार कार्ड का राशन कार्ड से लिंक न होना और इस आधार पर संतोषी के घर में अनाज नहीं पहुंचना ये बताता है कि यहां डिजिटल को बढ़ावा देने का काम देख रहे भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी का विभाग कैसा डांवाडोल है? याद रखिये ये मुख्यमंत्री के सचिव सुनील कुमार बर्णवाल का विभाग है, जो मुख्यमंत्री रघुवर दास के प्रथम श्रेणी के खासमखास है।
- आश्चर्य इस बात की भी है कि जब सर्वोच्च न्यायालय तक ने भोजन के अधिकार वाली विषयों पर आधार की अनिवार्यता समाप्त कर दी, फिर भी आधार की अनिवार्यता और उसकी स्वीकार्यता झारखण्ड में किसके कहने पर चल रही है? जिस वजह से उक्त राशन दुकानदार ने संतोषी के परिवारवाले को आठ महीने से अनाज देने से वंचित रखा। एक तरह से देखा जाय तो, राशन से वंचित करनेवाले ही सही मायनों में असल दोषी है, पर सिर्फ इन्हें ही दोषी मानकर, अन्य को हम उनके द्वारा किये गये अपराध से मुक्त नहीं कर सकते।
- आखिर भोजन के अधिकार के नाम पर लाखों-करोड़ों का धन इक्टठा करनेवाले विभिन्न प्रकार की स्वयंसेवी संस्थाएं, एनजीओ आदि क्या करती है? जब उनके रहते इतनी बड़ी-बड़ी घटनाएं घट जाती है, चूंकि ये गांवों में न जाकर, ये शहरों में ही सेमिनार संगोष्ठी कराकर, तथा उक्त सेमिनार-संगोष्ठी की खबर को अखबार में छपवाकर, चैनल में चलवाकर अपने काम का इतिश्री कर लेते हैं, जबकि इनका सर्वाधिक जोर गांवों में जाकर भोजन के अधिकार और उससे संबंधित आनेवाली समस्याओं को जन-जागरण चलाकर ग्रामीणों को आत्मनिर्भर बनाना है, पर ये सारा काम छोड़कर, वे काम करते है, जिनकी जरुरत नहीं।
- झारखण्ड में हम इसके लिए मीडिया को भी दोषी मानते है, ये जनसामान्य से जुड़ी खबरों को छोड़कर, बेसिर-पैर की खबरें, नेताओं की चाटुकारिता, सरकार की आरती तथा व्यापारियों-पूंजीपतियों के तलवे चाटने में ही ज्यादा समय बिताते है, अगर ये सही रहते और संतोषी के परिवार से जुड़ी वह खबर, कि इसे कई महीनों से राशन का अनाज नहीं मिल रहा, को स्थान देते तो संतोषी नहीं मरती और न इस प्रकार के समाचार से हमें दो-चार होना पड़ता।
धिक्कार है, ऐसे नेताओं, प्रशासनिक अधिकारियों और मीडिया से जुड़े लोगों को जिन्होंने अपने दायित्वों को नहीं समझा तथा संतोषी की जान चली गई और अब संतोषी के शव पर विधवा प्रलाप कर रहे हैं। मैं तो कहता हूं कि इसके लिए सभी जिम्मेवार है, सभी को अपने मुंह पर कालिख पोत लेनी चाहिए, और आइने के समक्ष खड़ा होकर अपना चेहरा देखना चाहिए कि वे कितने भयावह है, जिनके कुकर्मों से एक संतोषी की जान चली गई।