अपनी बात

आदिवासी-आदिवासी करते रहिये, ब्राह्मणों व ब्राह्मणवादी/मनुवादी व्यवस्थाओं को मजबूत करते रहिये, चाहे उसके विरोध के नाम पर आपको वोट ही क्यों न मिला हो, समझे हेमन्त जी

चुनावी महीने हो या किसी भी प्रकार का राजनीतिक मंच, राज्य के मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन, बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्षा बहन मायावती की तरह ब्राह्मणवादी व्यवस्था व मनुवादी व्यवस्था पर खुब बोलते हैं, खुब गहरी चोट करते हैं, लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है क्या? या इनकी कथनी और करनी में अंतर है?

क्योंकि सत्ता में न रहने से लेकर, सत्ता में आ जाने तक, जो इनकी सोच रही हैं, वो ठीक इसके उलट हैं। ब्राह्मणो पर इनकी कृपा ऐसी है कि लोग यहां तक कहने लगे है कि भाजपा या कांग्रेस क्या ब्राह्मणों की मदद करेगी, जितना मदद ब्राह्मणों की राज्य के मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन ने की है। आश्चर्य है कि ऐसे-ऐसे ब्राह्मण नेता या ब्राह्मण अधिकारी जो राज्य में फ्यूज बल्ब की तरह हैं।

जिनको कोई जनता अपना नेता या अधिकारी तक नहीं मानती, उनके नाम पर तो एक वोट मिलने का तो सवाल ही नहीं उठता, गये हुए हैं काम से वाले लोगों को, जिस प्रकार से हेमन्त सोरेन ने सम्मान या पद-प्रतिष्ठा दिलाई हैं, उससे खुद ब्राह्मणवादी व्यवस्था पर चोट पहुचांने वाले अधिकारी या नेता ही सन्न हो गये हैं, क्योंकि कोई समझ भी नहीं रहा और इधर ब्राह्मणों की बल्ले-बल्ले हो जा रही है।

जैसे देखिये… कुछ दिनों पहले राज्य खाद्य बोर्ड के अध्यक्ष पर हिमांशु शेखर चौधरी को बिठा दिया गया। हिमांशु शेखर चौधरी कभी हेमन्त के प्रेस सलाहकार भी हुआ करते थे। बाद में हेमन्त सोरेन की सत्ता गई तो उन्होंने इन्हें सूचना आयुक्त बनवा दिया। सूचना आयुक्त समझते है न, जिसका ज्यादातर मामला सरकार के विरुद्ध ही रहता है, वैसा व्यक्ति भी सरकार के गुड फैथ में हैं, और राज्य सरकार उसे फिर से राज्य खाद्य बोर्ड का अध्यक्ष बना रही हैं तो समझ लीजिये, राज्य में ब्राह्मणवादी व्यवस्था का हाल खस्ता है या मजबूत?

अब आगे देखिये झारखण्ड लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष अमिताभ चौधरी, स्टाफ सेलेक्शन कमीशन के अध्यक्ष सुधीर त्रिपाठी, स्टेट इलेक्शन कमीशन के आयुक्त डी के तिवारी, मुख्यमंत्री के सचिव विनय कुमार चौबे, ये सभी उच्च कोटि के ब्राह्मण है, और अब मुख्यमंत्री के अपने विधायक प्रतिनिधि पंकज मिश्रा को कौन नहीं जानता, जिनकी कीर्ति पूरे देश में फैल रही हैं, फिर भी मुख्यमंत्री उसे हटाने की सोच भी नहीं सकते।

पूर्व में गोपाल तिवारी भी कभी हेमन्त सोरेन के निकट सहयोगियों में रहे हैं। तो समझ लीजिये, नेताओं के कथनी और करनी में कितना फर्क होता है। इसलिए बेकार की बातों में मत उलझिये। आज जो विश्व आदिवासी दिवस था, वो पूर्णतः आदिवासियों को मूर्ख बनाने का ही दिन था, भला तो उच्च कोटि के ब्राह्मणों का ही होना है, जो आइएएस हो, जो धन-संपत्ति से युक्त हो, जो सरकार की चरणवंदना करते हो और अंत में सिर्फ ये गाना गाते हो – “जो तुमको हो पसंद, वहीं बात करेंगे, तुम दिन को कहो रात, तो हम रात कहेंगे…”