अपनी बात

शर्मनाक: रांची प्रेस क्लब के पदाधिकारियों के धरने से रांची के प्रतिष्ठित संपादकों/अखबारों ने बनाई दूरियां, दलों में झामुमो ने भी किया किनारा, बैजनाथ अभी भी अचेतावस्था में, न्याय को लेकर संघर्ष अनवरत् जारी

पिछले तीन दिनों से रांची प्रेस क्लब से जुड़े पदाधिकारियों और उनके समर्थकों का रांची प्रेस क्लब परिसर में धरना जारी है। धरना का मुख्य उद्देश्य बैजनाथ महतो पर जानलेवा हमला करनेवाले अपराधी को शीघ्र गिरफ्तार करने के लिए स्थानीय पुलिस प्रशासन और राज्य सरकार पर दबाव डालना है।

अब रांची पुलिस और राज्य सरकार पर इसका कितना दबाव पड़ा है, ये तो भगवान जाने, पर इतना तय है कि इस धरने को लेकर राजनीति भी जारी है। एक पक्ष जो सत्ता से जुड़ा है, इसे ड्रामेबाजी कह रहा है, तो दूसरा पक्ष उतनी ही जोरदार ढंग से इस धरने के साथ है।

जो ड्रामेबाजी कह रहा है, उसमें सत्तापक्ष के लोग भी शामिल है, साथ ही रांची के तथाकथित प्रतिष्ठित संपादक और उनके अखबारों के समूह भी हैं, जो इस समाचार से ही पिछले तीन दिनों से दूरियां बनाये हुए हैं और इसकी खबर तक से तौबा कर ली है।

जो राजनीतिक जानकार है, उनका कहना है कि चूंकि इन अखबारों पर सरकार का दबाव है, इसलिए इस धरने पर कुछ भी नहीं छाप रहे हैं, वहीं दूसरी ओर बुद्धिजीवियों को मत है कि ऐसा कुछ भी नहीं, क्योंकि जो अपने लिए भी न लड़ सकें, वो तो इन्सान भी नहीं हो सकता।

आश्चर्य है कि गम्हरिया में पत्रकारों पर हुए अत्याचार की खबर और पत्रकारों के संघर्ष के समाचार कुछ अखबारों में आ रही हैं, लेकिन रांची में रांची प्रेस क्लब की धरने की खबर को इनके द्वारा ब्लैकआउट कर दिया गया है। कमाल है पिछले तीन दिनों में राज्य के स्वास्थ्य मंत्री व कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता बन्ना गुप्ता, कांग्रेस पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष राजेश ठाकुर, भाजपा नेता संजय सेठ व भाजपा विधायक दल के नेता बाबू लाल मरांडी व अन्य सामाजिक संगठन धरनार्थियों से जाकर मिले, उनके साथ सहानुभूति दिखाई, लेकिन झारखण्ड मुक्ति मोर्चा का एक भी नेता रांची प्रेस क्लब जाकर धरनार्थियों से जाकर नहीं मिला।

कमाल है, रांची प्रेस क्लब के पदाधिकारियों की बात करें तो इसमें करीब-करीब कोई न कोई पदाधिकारी किसी न किसी अखबार से जुड़ा जरुर है, पर जरा हिन्दुस्तान, प्रभात खबर, दैनिक भास्कर या दैनिक जागरण जो रांची की बड़ी अखबारें मानी जाती है, पूरा उलट कर देख लीजिये, कही इससे जुड़ी खबर नही हैं।

आश्चर्य यह भी है कि झामुमो छोड़ सारे दलों के कोई न कोई नेता इन प्रेस क्लब के पदाधिकारियों से धरना स्थल पर जाकर मिले, पर किसी भी अखबार के संपादक ने रांची प्रेस क्लब जाकर धरना दे रहे इन पत्रकारों से मिलने की जहमत नहीं उठाई। अब आप इसी से समझिये कि एक निकृष्ट पक्षी कौआ भी, अपने एक कौवे को घायलावस्था में देख, कांव-कांव कर कौवों की भारी भीड़ इकट्ठी कर लेता हैं, पर इन पत्रकारों/संपादकों के अंदर की एकता देखिये।

बैजनाथ पिछले कई दिनों से अचेतावस्था में हैं। उसके लिए संघर्ष जारी है, पर उस संघर्ष का भागीदार होना तो दूर, उस पर समाचार भी छापने का ईमानदार प्रयास ये अखबार नहीं कर रहे। स्थिति यह है कि जो पुलिस पदाधिकारी स्वयं को पत्रकार के साथ मधुर संबंध बनाने की बात करते हैं या जो पत्रकार कहते है कि उनके फलां पुलिस पदाधिकारी के साथ बहुत ही मधुर संबंध हैं।

उन पुलिस पदाधिकारियों और प्रेस क्लब के पदाधिकारियों के मधुर संबंध की भी पोल उस दिन खुल गई, जब रांची प्रेस क्लब के पदाधिकारियों का झूंड पुलिस मुख्यालय पहुंच गया और पुलिस महानिदेशक ने भी एक बोली में मिलने की इनसे जहमत नहीं उठाई, कई बार के मान-मनौव्वल के बाद पत्रकारों को बोला गया कि वे कांफ्रेस हॉल में बैठे, तब जाकर पुलिस महानिदेशक पत्रकारों से भी मिले।

सुनने में ये भी आ रहा है कि जो पत्रकार इस दौरान बैजनाथ महतो की अवस्था को देखकर आक्रामक थे, उनकी विजूयल कांट-छांटकर उन पुलिस पदाधिकारियों को दिखाई गई कि देखिये फलां पत्रकार आपके खिलाफ कैसे-कैसे नारे लगा रहा था। ये स्थिति हैं, पत्रकारों की।

राजनीतिक पंडित तो साफ कहते है कि पत्रकारों में दरअसल एकता नाम की चीज ही नहीं हैं। कहने को प्रेस क्लब और संपादक तथा अखबार-चैनल है। ये आपस में ही इतनी बेमतलब की लड़ाइयां और एक-दूसरे से खीझ पाले रहते है कि कोई भी समय निकालकर कभी भी इनमें से किसी को अपना शिकार बना लेता हैं, तो कोई घायल कर देता है, तो कोई इनकी जिंदगी से खेल जाता है।

जरा देखिये, एक मामले में स्वतंत्र पत्रकार व बाबूलाल मरांडी के राजनीतिक सलाहकार को पुलिस गिरफ्तार कर रांची लाई और उस वरिष्ठ पत्रकार से देखिये, यहां के कुछ चिरकूट पत्रकार (जिनकी सही मायने में जांच करा ली जाये, तो ये भी किसी न किसी लफड़े में तो जो जरुर लटपटाते मिलेंगे) किस प्रकार से उनसे पेश आ रहे थे, वे ऐसा सवाल कर रहे थे, जैसे अदालत ने उन्हें मुजरिम करार दे दिया हो।

क्या स्थिति है, आज पुलिस पत्रकारों को झूठे मामले में फंसा रही हैं तो इसके लिए दोषी कहीं न कही पत्रकार ही हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि अच्छा हुआ फलां फंस गया, पर वे नहीं जानते कि ऐसा कहकर वे अपने लिए रास्ता बना रहे हैं, ताकि पुलिस उनके घर भी जाकर कभी भी, उनका ही गर्दन पकड़ लें और ये कह दें कि आपने भी ये गड़बड़ किया हैं, चाहे वो गड़बड़ करें या न करें।

खैर, सुधरना हैं तो सुधरिये, नहीं तो सिस्टम आपको खुद ही सुधार देगा। मत भूलिए कि बैजनाथ महतो घायल होने के बाद भी इलाज के लिए, वो भी रिम्स में आठ घंटे तक इंतजार करता रहा, किसी ने बताया कि वो मीडिया से हैं तो जाकर डाक्टरों की नींद टूटी, फिर इलाज हुआ।

दूसरी ओर हमलावर तक अभी भी पुलिस नहीं पहुंच सकी और इधर एक ऐसे कांड में वरिष्ठ पत्रकार सुनील तिवारी जो रांची प्रेस क्लब के मेम्बर भी हैं, जिनके कई आइएएस/आइपीएस से मधुर संबंध थे, उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया, जो सभी को हैरान करनेवाली है। अब इससे ज्यादा हम क्या कहे/लिखें?