आखिर एक पत्रकार दूसरे पत्रकारों से, एक मीडिया संस्थान दूसरे मीडिया संस्थानों से इतना नफरत क्यों करता हैं भाई?
आखिर एक पत्रकार दूसरे पत्रकारों से, एक मीडिया संस्थान दूसरे मीडिया संस्थानों से इतना नफरत क्यों करता हैं भाई? किसी पत्रकार की मौत पर भी उसका दिल क्यों नहीं पसीजता, आखिर वो इतना क्रूर कैसे होता जा रहा हैं, दूसरों के लिए समाचार देनेवाला, अपनों के लिए इतना घृणा कहां से ले आता है? यह मैं इसलिए लिख रहा हूं कि पिछले दिनों विभिन्न मीडिया संस्थानों में काम कर चुके रांची के चर्चित पत्रकार आकाश भार्गव का निधन हो गया, लेकिन रांची के किसी प्रमुख अखबार ने अपने समाचार में इस बात का जिक्र ही नहीं किया कि आकाश भार्गव अंतिम समय में किस चैनल में सेवा दे रहे थे, जबकि वे अच्छी तरह जानते थे कि आकाश भार्गव किस चैनल में सेवा दे रहे थे और उस चैनल से उनका कैसा रिश्ता रहा है?
रांची के अखबारों का दूसरा अपराध देखिये। दैनिक भास्कर, हिन्दुस्तान और प्रभात खबर ने तो आकाश भार्गव से संबंधित समाचार भी प्रकाशित किये, भले ही उसने उस संस्थान का नाम ही नहीं दिया कि वे किस संस्थान में काम करते थे, लेकिन दैनिक जागरण ने तो समाचार की जगह पर सिर्फ मुख्यमंत्री और उनके सलाहकार के केवल शोक संदेश से ही संबंधित समाचार छापा, समाचार तो सीधे नदारद था।
रांची प्रेस क्लब में एक दिन आकाश भार्गव को लेकर शोक सभा भी आयोजित की गई, शोक सभा में एक अखबार के संपादक भी पहुंचे थे, मैने उनको फोन लगाया कि जनाब आप शोक सभा में पहुंचे, लेकिन अखबार में आपने ये लिखा ही नहीं कि आकाश भार्गव किस चैनल में कार्यरत थे, इसकी वजह क्या थी? जनाब का उत्तर था – हमें मालूम नहीं था।
अब सवाल उठता है कि हम कैसे मान लें कि आकाश भार्गव को वे जानते ही नहीं थे, या जिसने न्यूज लिखी, उसे पता ही नहीं था कि आकाश किस चैनल में काम कर रहा था? ये तो साफ लग रहा था कि संपादक जी, बच कर निकलना चाह रहे थे। इसी साल 19 मई (कोरोना गाइडलाइन्स का पालन करते हुए) को मैंने इन्हीं सभी बातों के लिए अपने घर में एक दिन की भूख हड़ताल की थी, जिसे कई पत्रकारों ने समर्थन भी किया था।
हमारा सवाल था कि जिन संस्थानों में जो पत्रकार काम करते हैं, उन पत्रकारों का उन संस्थानों में वजूद क्यों नहीं? आखिर सरकार ऐसा प्रावधान क्यों नहीं लाती कि इन पत्रकारों को भी मरने के बाद उचित सम्मान मिलें, उनके परिवार कहें कि ये फलां चैनल/अखबार में काम करते थे। हमारी दूसरी मांग थी कि पत्रकार विपरीत परिस्थितियों में काम करते हैं, उनके लिए सरकार सोचे तथा विभिन्न मीडिया संस्थानों को जो विज्ञापन देती हैं, उसी में से दस प्रतिशत सेस लगाकर पत्रकारों के लिए कल्याण संबंधी कोष बना दें, ताकि कोई पत्रकार कभी दिवंगत हो या मुश्किल में आये तो उसे या उसके परिवार को कल्याण संबंधी कोष से उसकी मदद हो जाये।
उस दिन खुशी इस बात की थी कि 19 मई को स्वयं मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन ने मुझसे संपर्क किया था, और कहा था कि इस मुद्दे को वे स्वयं देखेंगे और जल्द कुछ निदान निकालेंगे, पर आज तक उस मुद्दे पर क्या हुआ, हमें कुछ पता नहीं। मैं कई बार मुख्यमंत्री से इस संदंर्भ में मुख्यमंत्री से संपर्क करने की कोशिश की, पर मुझे सफलता नहीं मिली, ऐसे भी मुख्यमंत्री को उनके लोगों ने ऐसा घेर लिया है कि अब शायद ही उनसे हमारी मुलाकात हो, पर जिस प्रकार की स्थितियां झारखण्ड के पत्रकार झेल रहे हैं, या उनके परिवारों के साथ विभिन्न मीडिया संस्थान कुचक्र रच रही हैं, वो खतरनाक है। आश्चर्य तब होता है कि सब कुछ जानकर भी, जैसे बकरियां कसाइयों के दुकानों पर बंधी रहती है, यहां के पत्रकार भी मीडिया संस्थानों से बंधे हैं।
आश्चर्य और भी है कि जो तथाकथित पत्रकारों के संगठन इनकी लड़ाईयां लड़ने की बात करते हैं, वे कितना सफल हैं, वे खुद ही बता दें तो बड़ी बात होगी और बताये रांची प्रेस क्लब के अधिकारी भी कि वे तो खुद ही बड़े-बड़े अखबारों से जुड़े हैं, उन्होंने अपने संस्थानों से आकाश भार्गव मामले में ईमानदारी बरतने को क्यों नहीं कहा और जब नहीं कहा और आप कुछ करने की स्थिति में नहीं हैं, तो आपको ईमानदारी दिखाते हुए, अपने पद से इस्तीफा दे देनी चाहिए। अंत में, मैं यह कह देना चाहता हूं कि कर्मफल का सिद्धांत सभी पर लागू होता हैं, याद रखिये इसी धरती पर अपने कर्मफल का परिणाम सभी भोगेंगे, कुछ भोग चुके हैं, कुछ भोग रहे हैं और कुछ अपनी पारी का इंतजार कर रहे हैं।