अपनी बात

पाकिस्तान में एक अखबार की कीमत 25 रुपये और भारत में मात्र पांच रुपये, अगर यहां भी अखबार की कीमत पाकिस्तान की तरह हो गई तो क्या पाठक अखबार खरीदेंगे?

क्या आपको मालूम है कि पाकिस्तान में एक अखबार की कीमत क्या है? इसका उत्तर है – 25 रुपये। इसमें पृष्ठों की संख्या भी भारत के अखबारों की तरह ही होती है, यानी 22-24 की संख्या तक, जो समयानुसार घटती बढ़ती रहती है, लेकिन भारत में पाकिस्तान के अखबारों के मुकाबले एक अखबार की कीमत पांच गुणा कम यानी मात्र पांच रुपये हैं।

कभी-कभी सोचता हूं कि अगर भारत में भी एक अखबार की कीमत अगर 25 रुपये तक हो जाये, तो क्या लोग अखबार इसी प्रकार खरीद पायेंगे, जैसा कि आजकल खरीद रहे हैं या अखबार से तौबा ही कर लेंगे और ले-देकर स्मार्टफोन से ही काम चला लेंगे। सच्चाई यह है कि अखबार छापना और उसे बेचना दोनों आजकल घाटे का सौदा है, चाहे वो अखबार कही भी क्यों न छपे, क्योंकि जो पाठक हैं वो सही कीमत देकर पढ़ना नहीं चाहता, उसे तो पांच रुपये की अखबार में भी मुफ्त के बहुत कुछ चाहिए, और अगर अखबार मुफ्त में मिल जाये तो आनन्द ही आनन्द है।

जो राजनीतिक पंडित हैं, वो तो साफ कहते है कि जिस देश में पाठकों को मुफ्त अखबार पढ़ने की आदत लग जाती है, उन्हें सही समाचार कभी प्राप्त ही नहीं होता, बल्कि उनके पास वहीं समाचार पहुंचता हैं, जो मुफ्तखोरी से प्राप्त हो रही होती है, जिसमें विज्ञापन का स्वाद चिपका होता है, क्योंकि अखबार को पाठकों तक आने के लिए कागज, मशीन, मजदूर, रिपोर्टरों, संपादकों की आवश्यकता होती हैं और ये सारी चीजें बिना पैसे के तो संभव नहीं, ऐसे में अखबार मालिक/संपादक क्या करें? उनके पास कोई विकल्प नहीं होता और एक मात्र सहारा विज्ञापन ही होता है, जिस पर वे आश्रित होते हैं।

विज्ञापन अगर सरकारी हो, तो अखबार पर सरकार और उनके लोगों का सीधा हस्तक्षेप होता हैं, यानी जरा सी सरकार को आंख दिखाई, विज्ञापन बंद। ज्यादातर अखबारों के विज्ञापन का मूल स्रोत सरकारी विज्ञापन ही है, जो प्रमुख अखबार हैं, उन्हें तो कुछ निजी कंपनियों/प्रतिष्ठानों के विज्ञापन मिल जाते हैं, पर सब के लिए ऐसा संभव नहीं, ऐसे में अखबारों की जो भारत में स्थिति हैं, वो तो होनी ही हैं। ऐसे में किसी पत्रकार/संस्थान से ईमानदारी की बात सोचना भी बेमानी है, क्योंकि उनके पास भी परिवार है, पेट है, कैसे चलेगा?

मुझे याद है कि 1982 में बिहार के पटना से निकलनेवाली आर्यावर्त की कीमत मात्र 40 पैसे थी, बात उस समय की हैं, जब बिहार का मतलब ही आर्यावर्त हुआ करता था, लेकिन आज आर्यावर्त तो नहीं हैं, पर जो रांची में जो अखबार हैं, उसकी कीमत पांच रुपये से अधिक नहीं है। कई पत्रकार मित्र को जब हमने बताया कि पाकिस्तान में एक प्रतिष्ठित अखबार की कीमत 25 रुपये हैं तो वे हैरान रह गये, लेकिन जब वस्तुस्थिति सामने रखा तो वे आश्चर्यचकित थे। उसमें भी वो अखबार जिसमें विज्ञापन की कोई कमी ही नहीं रहती।

लेकिन भारत में स्थिति ठीक इसकी उलट हैं, आखिर इसके लिए दोषी कौन है, अखबार मालिक, संपादक, पत्रकारों के क्रियाकलाप या पाठकों की मानसिकता कि अधिक दाम होने पर वे अखबारों से मुंह मोड़ लेने की भी सोच रखा करते हैं। एक पत्रकार मित्र ने कभी  कहा था कि जिस देश में कार से उतरकर लोग अखबार के पन्नों पर कूपन साटकर लाइन में लग कर एक प्लास्टिक का मग लेने के लिए काउंटर तक पहुंच जाते हैं, वहां अखबार की कीमत 25 रुपये तो दूर अगर गलती से दस रुपये हो जायेगा तो कई अखबारों के ऑफिस में ताले झूलते नजर आयेंगे, इसलिए जैसा चल रहा हैं, वैसा चलने दीजिये, सब कुछ किस्मत पर छोड़ दीजिये।