अपनी बात

बाबा मंदिर प्रबंधक पद से रमेश परिहस्त को हटाने को लेकर सर्वत्र रोष, विधायक अम्बा प्रसाद के प्रति भी लोगों की भारी नाराजगी

जैसे ही देवघर स्थित बाबा वैद्यनाथ मंदिर के प्रबंधक रमेश परिहस्त को उनके पद से मुक्त करने की खबर आई। उनके विरोधियों, खासकर धर्मरक्षिणी सभा से जुड़े कुछ पदाधिकारियों में खुशी की लहर दौड़ गई। ऐसा लगा कि उन्हें बिन मांगे मुंहमांगी मुराद मिल गई। वैद्यनाथधाम जानेवाले कई नेताओं/अधिकारियों/माननीयों और देश के अन्य जगहों के प्रमुख लोगों से भी हमने बातचीत की।

उन सभी का कहना था कि रमेश परिहस्त को उनके पद से मुक्त करना सही नहीं हैं, क्योंकि उनके प्रबंधकीय में वैद्यनाथधाम काफी तेजी से प्रखरता की और बढ़ा हैं, पर ये भी सच्चाई है कि रमेश परिहस्त से धर्मरक्षिणी सभा के कुछ लोग बहुत ही नाराज चल रहे थे, नाराज एक अखबार के लोग भी थे और नाराज वे भी थे, जिन्हें कभी रमेश परिहस्त ने भाव ही नहीं दी, पर जिस ईमानदारी से उन्होंने अपने दायित्वों का अब तक निर्वहण किया हैं, उसकी प्रशंसा देवघर के लोग मुक्तकंठ से करते हैं, साथ ही वे पदाधिकारी भी करते हैं, जिनकी वजह से वैद्यनाथधाम में आई भीड़ आराम से पूजा अर्चना में भाग लेकर अपना जीवन धन्य कर लेती हैं।

रही बात अम्बा प्रसाद और उनके साथ हुई बहस की, तो रमेश परिहस्त से जुड़े लोग स्पष्ट कहते है कि बाद में ये मामला शांत भी हो गया था, और दोनों बड़े ही आत्मीय भाव से बात भी किये, मंदिर में पूजा अर्चना भी की और उधर रमेश परिहस्त वैद्यनाथ मंदिर में आई भारी भीड़ को सेवा देने में जुट गये। वहां इस घटना के प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि रमेश परिहस्त को हटाना एक बहुत बड़ी भूल है, हालांकि जब भी वे अदालत का दरवाजा खटखटायेंगे, उन्हें कोई हटा भी नहीं सकता, उन्हें सफलता अवश्य मिलेगी। इसमें कोई किन्तु-परन्तु नहीं हैं।

झारखण्ड के एक बड़े सेवानिवृत्त अधिकारी (अपना नाम न लिखने के शर्त पर बताते हुए) कहते हैं कि चूंकि रमेश परिहस्त की कर्त्तव्य परायणता एवं मंदिर प्रबंधन के लिए समर्पित भावना के कारण अनेक प्रकार की कुव्यवस्था पर विराम लग गया था, जो स्थानीय भ्रष्ट पंडाओं की अवैध दुकान पर ताला लगाने का काम किया। यही बात कुछ पंडा को हज़म नहीं हो रहा था और वे मौक़े की ताक में थे।

वे आगे कहते है कि सबसे अहम बात कि इस पूरे प्रकरण में विधायक अम्बा प्रसाद की छवि धूमिल हुई है। देर-सबेर इस मामले को लेकर रमेश परिहस्त उच्च न्यायालय की शरण में जाने को बाध्य होंगे हीं, तब असली निर्णय गौर करने लायक़ होगा।

भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश कार्यसमिति सदस्य विनय कुमार सिंह तो साफ कहते है कि कृष्ण-कृपासे ही आज के जमाने में  न्याययुक्त और धर्मसम्मत बातें कही-सुनी और गुनी जा सकती हैं। पद के अहंकार में मदमस्त माननीयोंको शिवभक्त प्रबंधक के साथ ऐंठने के कुफल का बोध नहीं है। अपने भक्तों की अवमानना करनेवालों के प्रति भगवान् श्रीशंकरजी का तो खुला एलान ही है –

जो नहिं दंड करौं खल तोरा। भ्रष्ट होई श्रुति मारग मोरा।।” 

अर्थात् रे! दुष्ट/दुष्टा, यदि मैंने तुझे दंडित नहीं किया,तो मेरा वेदमार्ग ही भ्रष्ट हो जाय।

  • उत्तर कांड, श्रीरामचरितमानस।

और,सब जानते हैं कि श्रीशंकर, कुछ भी हो जाय, वेदमार्ग को भ्रष्ट होते नहीं देख सकते। विनय कुमार सिंह तो साफ कहते है कि यदि कोई भक्त के प्रति अपराध करता है तो उसे इसका दंड किसी न किसी रूप में अवश्य भुगतना पड़ता है –

जो अपराध भगत का करई। राम रोष पावक सो जरई।।”

अर्थात् जो भक्त के प्रति अपराध करता है, वह भगवान् श्रीराम के रोषरूपी अग्नि में जलकर भस्म हो जाता है।

  • श्रीरामचरितमानस

विनय कुमार सिंह कहते है कि आज के प्रजातंत्र में प्रजा को मात्र वोट की आजादी है, वोट देकर प्रजा, राजा अर्थात् शासकों का गुलाम हो जाती है। जहाँ शासक जनतांत्रिक मन-मिजाज का होगा, वहाँ तानाशाही जन्म नहीं ले सकती, वह चाहे जनतंत्र हो,या राजतंत्र। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम प्रजा से कहते हैं—

“जो अनीति कछु भाखौं भाई। तो मोहि बरजहु भय बिसराई।।”

  • उत्तर कांड, श्रीरामचरितमानस।

आज चापलूसी-युग में कथित प्रजातंत्र के पहरेदारों का/के जो आचरण हैं, वे सर्वविदित ही हैं। किंतु महर्षि वाल्मीकि की ओर से शासकों को ऐसा जनतांत्रिक परामर्श है—

      “सुलभा: पुरुषा: राजन्‌ सततं प्रियवादिन: । अप्रियश्च तु पथ्यश्च वक्ता श्रोता च दुर्लभ:।।”

अर्थात् हे राजन! प्रिय बोलनेवाले पुरुष तो सुलभता से मिल जाते हैं, परंतु अप्रिय एवम् हितकर बात कहने और सुननेवाले लोग बड़े दुर्लभ होते है।

  • सुंदर कांड, वाल्मीकी रामायण।

हमारे माननीय न भूलें। जनतांत्रिक आदर्श के जिस धरातल पर प्रभु श्रीराम और महर्षि वाल्मीकि खड़े हैं, वहाँ तक प्लेटो, अरस्तू, रूसो आदि की पहुँच नहीं है। किंतु शासक,चाहे वह किसी शासन-प्रणाली का हो, यदि वे भारत के मनीषियों के राज्यादर्श का अनुसरण करे, तो तानाशाही आ नहीं सकती। हमारे चक्रवर्ती सम्राट् विक्रमादित्य, भोज, मेवाड़ के महाराणा (वे स्वयं को भगवान् एकलिंगजी के ट्रस्टी मानकर राज करते थे), छत्रपति शिवाजी आदि ने राजतंत्र में जनतंत्र को प्रतिष्ठित कर रखा था-इतिहास इसका गवाह है।