भाजपा विरोधी पत्रकारों का रुदन काम न आया, चार राज्यों में फिर से जनता ने ‘कमल’ खिलाया
चुनाव परिणाम सामने आ चुका है। पंजाब छोड़कर उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, मणिपुर व गोवा में भाजपा की बल्ले-बल्ले हो गई है। कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी यहां तक कि आम आदमी पार्टी की भी इन राज्यों में हालत खराब है और हालत खराब उन पत्रकारों की भी हैं, जो इन राज्यों में चुनावों के दौरान यहां की खाक छान रहे थे और आम जनता द्वारा दिये जा रहे चुनौतियों के बावजूद अपने अरमानों का कब्र सजाने की तैयारी कर रहे थे।
कहने को तो ये राष्ट्रीय स्तर के पत्रकार थे, पर इनकी हरकत किसी राजनीतिक दल के कार्यकर्ताओं से अधिक नहीं थी। मेरा मानना है कि जब कोई पत्रकार राजनीतिक दलों का कार्यकर्ता बन जाता हैं तो वह समाज का कम, अपना वो ज्यादा नुकसान करता है। लोग उससे दूरियां बनाने लगते हैं। चाहे कितने भी राजनीतिक दल, जिसकी वे चिरौरी करते हैं, उन्हें बेस्ट पत्रकार का तमगा क्यों न पहना दें, पर आम जनता उन्हें वेस्ट (बेकार) समझकर, उनके साथ वैसा ही व्यवहार करने लगती है।
मेरे विचार से किसी दल का समर्थक होना या उसे वोट करना आपका निजी मामला हो सकता है, पर उस निजी मामले को, आम जनता से जोड़कर विश्लेषण करना, देश व समाज के साथ गद्दारी है। राष्ट्रीय स्तर के पत्रकारों, जिनसे गांवों-छोटे-छोटे शहरों के पत्रकार सीख लेते हैं, इन पत्रकारों ने अपनी हरकतों से उनके मन मे ऐसे बीज बोए हैं, जिससे आनेवाले समय में देश का बहुत बड़ा नुकसान होना तय है।
जरा देखिये, इन भाजपा विरोधी पत्रकारों का आम जनता से सवाल क्या रहा हैं? ये पूछते हैं कि आप कौन सी बिरादरी या जात के हैं? जनता जब कहती है कि उसके यहां सुरक्षा सबसे बड़ा मसला रहा हैं तो ये टपक कर कहते है कि महंगाई और बेरोजगारी भी तो मुद्दा है, और जब महंगाई और बेरोजगारी पर आम जनता उन्हें घेरने का प्रयास करती हैं तो फिर ये ऐसा सवाल ला देते हैं, जिसे सुन कोई भी व्यक्ति इन पत्रकारों पर तरस ही खायेगा।
ऐसे पत्रकारों में अजीत अंजुम, रवीश कुमार, आशुतोष, उर्मिलेश, पुण्य प्रसुन वाजपेयी, अभिसार शर्मा, मतलब मैं कितने लोगों के नाम लिखूं, पेज कम पड़ जायेंगे, एक लंबी शृंखला है। ये सब पत्रकारिता नहीं कर, सब कुछ कर रहे हैं। ये भाजपा के खिलाफ हाथ-पैर धोकर पड़े हुए हैं। अरे भाई कोई दल जीते या कोई हारे पत्रकारों को इससे क्या मतलब? जनता जिसे चूने, जनता का मुद्दा क्या होगा, ये भी पत्रकार अब डिसाइड करेंगे। कमाल है, ये अधिकार इन पत्रकारों को किसने दे दिया?
राजनीतिक पंडितों की मानें तो वे साफ कहते है कि ये जो आज नये किस्म की पत्रकारिता चली है, वो तब से चली है, जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ऐसे पत्रकारों को भाव देना बंद कर दिया, जबकि पूर्व के प्रधानमंत्री जितने भी रहे, वे समय-समय पर इन्हें भाव दिया करते थे, बात करते थे या जब वे कभी विदेशी टूर पर निकलते थे, तो पत्रकारों की टीम भी ले जाया करते, पर जब से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बने हैं तो ऐसे लोगों को उन्होंने भाव देना बंद कर दिया और लीजिये तभी से इन पत्रकारों ने पीएम मोदी के खिलाफ कैंपेन चलाना शुरु कर दिया।
सच्चाई यह भी है कि जितना ये नरेन्द्र मोदी के खिलाफ कैंपेन चलाते हैं, जनता भी उतने ही प्रबलता के साथ पीएम मोदी और भाजपा को मजबूत बनाती चली जाती है। आज का पांच राज्यों का चुनाव परिणाम उसी का सबूत है। जब उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, गोवा व मणिपुर में भाजपा फिर से मजबूत बनकर उभरी और जो भाजपा में रहकर भाजपा में ही पलीता लगाने का काम कर रहे थे, उन पत्रकारों और नेताओं को देश की जनता ने सबक सिखा दिया। लगता है कि कुछ महीनों तक इन नेताओं/पत्रकारों को नींद नहीं आयेगी।