अपनी बात

आग लगे ऐसी सोच और ऐसी पत्रकारिता पर, जो गरीबों की आह की खबरों को भी अपने अखबार में स्थान न दें  

23 मार्च 2022, झारखण्ड विधानसभा में बजट सत्र चल रहा था और दूसरी ओर भू-माफिया व भाजपा विधायक ढुलू महतो से त्रस्त बाघमारा के किसानों का समूह अपनी 91 एकड़ जमीन को मुक्त कराने के लिए राजभवन के समक्ष अर्द्ध-नग्न प्रदर्शन कर रहा था, पर क्या आप जानते है कि इतनी बड़ी खबर को रांची के करीब-करीब सारे अखबारों ने पचा लिया और अपने अखबारों में दूसरे दिन इस समाचार को स्थान ही नहीं दी।

एक अखबार जो स्वयं को कहता है कि वो झारखण्ड में सर्वाधिक बिकनेवाला अखबार है, वो खुद को अखबार नहीं आंदोलन कहने से भी नहीं इतराता, उस अखबार ने भी अपने रांची संस्करण में इस समाचार को तवज्जो नहीं दी। इस अखबार के धनबाद संस्करण में ये समाचार दिखी भी तो वो कतरास-बाघमारा पेज पर, वो भी बरोरा डेडलाइन से।

अब सवाल उठता है कि जिस समाचार को रांची डेडलाइन से छपना चाहिए, वो बरोरा डेडलाइन से वो भी बाघमारा-कतरास पेज पर क्यों? रांची की घटना, रांची डेडलाइन से वो भी रांची संस्करण में क्यों नहीं छपी, इसका सही उत्तर तो अखबार जगत में काम करनेवाले लोग ही बतायेंगे, पर बतायेंगे नहीं। पत्रकारिता का स्तर यहां कितना गिर गया हैं, ये घटना साफ-साफ बया कर रही है।

एनजीओ के कार्यक्रमों के समाचार के लिए आधे पेज और गरीबों व जनहित के समाचारों के लिए अखबारों के पास जगह ही नहीं। अब सवाल उठता है कि क्या राज्य की हेमन्त सरकार ने इस खबर को न छापने को कहा था? अरे भाई, हेमन्त सोरेन या उनकी सरकार को ढुलू महतो पर कृपा लूटाने की क्या गरज पड़ी हैं, तो वो वजह क्या थी, जिसको लेकर रांची के अखबारों ने इस समाचार से दूरियां बना ली।

बाघमारा के ये किसान और राजनीतिक पंडित तो साफ कहते हैं कि एक दिन ऐसा आयेगा कि इन गरीबों की हाय, उन अखबारों-संपादकों व पत्रकारिता के नाम पर मठाधीशी करनेवालों को लगेगी, और लोग धूल-धूसरित हो जायेंगे। पूर्व में पत्रकारिता जनहित व जनसरोकारों वाली होती थी, पर आज की पत्रकारिता नेता-ठेकेदारों, पुलिस-प्रशासनिक अधिकारियों की चरणवंदना से प्रारंभ होती हैं और उन्हीं पर समाप्त हो जाती हैं, ऐसे में तो आनेवाले समय में इनकी आह तो लगेगी ही, और इससे ऐसे लोग बर्बाद होंगे ही।

राजनीतिक पंडितों की मानें, तो ये सारे किसान उस दिन अपने पैसे से धनबाद से चलकर रांची पहुंचे थे, इनके पास इतने पैसे भी नहीं थे कि वे एक दिन ठहर सकें या सभी विधायकों से मिलकर अपनी दुखड़ा उन्हें सुना सकें, या विधानसभा पहुंचकर सीएम हेमन्त सोरेन से मिलकर अपनी बातें रख सकें, हार-पछताकर, भूख-प्यास से बिलबिलाते आये, राजभवन पर अपना दुखड़ा रोया, जिसने उनके दुखड़े को सुना, उन्होंने अपने यहां स्थान दी और बाकी जो मठाधीशी कर रहे थे, उन्होंने मठाधीशी दिखा दी। आग लगे ऐसी पत्रकारिता और ऐसे पत्रकारों की सोच पर।