ये हैं रांची प्रेस क्लब से जुड़े महान पत्रकार, जिनके पास प्रभात का हाल जानने के लिए समय नहीं
जिनके शरीर में दिल ही नहीं, वे पत्रकारों के हितों की रक्षा की बात करते हुए प्रेस क्लब पर कब्जा जमाने की कोशिश में हैं, हालांकि उनकी यह इच्छा रघुवर सरकार ने पूरी भी कर दी है, क्योंकि रघुवर सरकार ने इन्हीं महापुरुषों को फिलहाल रांची प्रेस क्लब चलाने का जिम्मा दे दिया है। जरा देखिये, तीन दिन पूर्व की घटना हैं, एक पत्रकार जिसका नाम प्रभात कुमार रंजन है, वह अपनी बीमारी की इलाज के लिए गुरुनानक अस्पताल में भर्ती है, वह मदद की गुहार लगाता है, वह कहता है कि उसके साथ पत्रकारों का एक यूनियन चलानेवाले एक शख्स ने चीटिंग की है, उसका यह वीडियो वायरल होता है, जिसे देख और सुनकर छोटे-छोटे पत्रकारों का समूह प्रभात कुमार रंजन की मदद के लिए खड़ा हो उठता है।
जयशंकर की इसमें प्रमुख भूमिका होती है, फिर जुड़ते है, गिरिजा शंकर ओझा, ब्रजेश राय, सुरेन्द्र सोरेन, भुजंग भूषण, अरविन्द प्रताप, विजय राघवन, हरिबंश, राजेश कृष्ण, मुकेश सिन्हा, सुभाष पाठक, समीर, बिपिन, ओम रंजन मालवीय आदि, जो अपनी पॉकेट के अनुसार खुलकर उसकी मदद करते हैं, साथ ही कुछ ऐसे लोग भी जुड़ते है, जिनका नाम मैं नहीं जानता, जिसके कारण मैं उनका नाम लिख नहीं रहा, पर जरा पूछिये रांची प्रेस क्लब से जुड़े उन महान महापुरुषों से कि क्या उनकी इसमें कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए? क्या वे केवल रांची प्रेस क्लब से जुड़कर उसकी कुर्सी तोड़ने के लिए बने है, अगर ऐसा नहीं तो फिर उनकी क्या भूमिका रही? रांची प्रेस क्लब का निर्माण किसलिये हुआ है?
बताएं भारत रत्न पाने का स्वप्न देखनेवाले, सूचना आयुक्त बननेवाले और सूचना आयुक्त बनने का सपना देखनेवाले, राज्यसभा जानेवाले और राज्यसभा जाने का स्वपन देखनेवाले, सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग का डायरेक्टर बनने का ख्वाब देखनेवाले, राज्य सरकार का विज्ञापन अनैतिक रुप से अपने अखबारों-चैनलों तथा स्मारिका के नाम पर उठानेवाले, कि उन्होंने प्रभात कुमार रंजन को क्या मदद की?
ये इतने अनैतिक है, कि इन्होंने इस खबर को न तो अपने अखबारों में जगह दी और न ही चैनलों में, अगर ये सिर्फ इस घटना को खबर की तरह पड़ोस देते तो लाखों हाथ प्रभात के सहयोग के लिए उठ खड़े होते। अरे छोड़िये, इन महापुरुषों ने तो प्रभात कुमार रंजन से मिलकर उसे ढांढस भी नहीं बंधाया, जबकि इनको डायलॉगबाजी करने को कहिये तो देखिए आध्यात्मिक प्रवचन करनेवालों और नेतागिरी करनेवालों के भी बाप निकल जायेंगे, मैं तो कहूं कि इनसे अच्छे तो वे कौएं है, जो अपने जैसे कौवों को विपरीत परिस्थितियों में देखकर कम से कम कांव-कांव करके अपना दुखड़ा तो रोते हैं, पर इनमें तो ये भी बात नहीं।
अब सवाल उठता है कि जहां ऐसे लोग हो, जिन्हें मानवीय मूल्यों से भी कोई मतलब नहीं, वहां की सदस्यता मिल भी जाये तो आम पत्रकारों को क्या लाभ होगा? ये सारे फायदे तो ये चालाक लोग ही उठायेंगे और छोटे पत्रकार टुकर-टुकर ताकते रह जायेंगे। हम ऐसी सोचवाले तथाकथित पत्रकारों व संस्थानों की कड़ी भर्त्सना करते है। आज मैंने प्रभात कुमार रंजन से बात की और पूछा कि प्रभात बताओं कि आज तक कितने संपादकों ने तुमसे मिलकर या फोन कर हाल-चाल पूछा। उसने बताया – किसी ने नहीं। उसने कहा मिले वहीं जिनके दिल में उसके लिए दर्द था। ज्यादा क्या बताऊँ?
सही सवाल..
सही जवाब
आपको प्रणाम।।
और मित्रों को आभार..
सार्थक और प्रभावी लेख, पत्रकारों की आंख खोलने वाली