SC के न्यायाधीशों के बयान को ज्यादातर भारतीयों ने गैर-जिम्मेदाराना, बचकाना और हिंसात्मक रवैया अपनाने को उकसानेवाला बताया
जी हां, नुपूर शर्मा को लेकर, अपने आर्डर में एक शब्द भी नहीं लिखनेवाले, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने जो टिप्पणियां की हैं, उसको लेकर सोशल साइट पर उबाल है। हर तबके के लोग अपने अपने ढंग से इसकी तीखी आलोचना कर रहे हैं, पर जिन्हें राजनीति करनी हैं, वे इसे अपने ढंग से लेकर प्रशंसा या आलोचना कर रहे हैं।
लेकिन ज्यादातर सामान्य लोगों को इस बात का डर हैं कि इससे हिंसात्मक रवैया अपनानेवालों को बल मिलेगा और जो सामान्य जनता है, उन्हें भय के साये में जीने को विवश होना पड़ेगा, क्योंकि देश में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के बयानों के बाद जो माहौल बना हैं, वो बताने के लिए काफी हैं कि इससे किनका मनोबल बढ़ा हैं। कई विद्वानों का तो कहना है कि उन्हें इस बात की आशा ही नहीं थी कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की टिप्पणियां ऐसी आयेगी और जब टिप्पणियां कर ही दी, तो फिर उसे अपने आर्डर पर क्यों नहीं लिखा, वो भी लिख देते, देश की जनता वो भी पढ़ लेती।
फेसबुक पर रामानुज पाठक लिखते है कि “नूपुर शर्मा ने अपने ऊपर हुए सभी मुकदमों को क्लब करके दिल्ली के किसी न्यायालय में शिफ्ट करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में आवेदन दिया है। आज उस याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के दो माननीय न्यायाधीशों ने जो टिप्पणी की है वह निहायत ही गैर जिम्मेदाराना है, बचकाना है और नैसर्गिक न्याय के बिल्कुल विरुद्ध है।
उनके द्वारा की गई टिप्पणी सांप्रदायिकता को बढ़ाने वाला है, आम जनमानस को झकझोरने वाला है तथा गैर सामाजिक तत्वों को हिंसात्मक रवैया अपनाने के लिए उकसाने वाला है। नूपुर शर्मा को यदि कोई नुकसान पहुंचता है तो उसके लिए यह टिप्पणी (के बहाने दिया गया लगभग फैसला ही) जिम्मेवार होगा। अच्छा होगा कि सुप्रीम कोर्ट इसमें दखल देते हुए जितना जल्दी हो सके उनके ही दोनों जजों द्वारा किए गए गलती को सुधार कर अपने देश को आग में झोंकने से बचाये।”
झारखण्ड उच्च न्यायालय के वरीय अधिवक्ता अभय मिश्र फेसबुक पर लिखते है कि “उच्चतम न्यायालय की नूपुर शर्मा के लिए की गई मौखिक टिप्पणी कोई नई बात नहीं। मैंने 24 वर्ष के वकालत में यह अनुभव किया है। सरसों में ही भुत है। ऑनलाइन कोर्ट में तो यह अनुभव थोड़ा ज्यादा हुआ। उसका कारण मेरा Gmail का प्रोफाइल फोटो। जब भी ऑनलाइन होता तो मेरा यही प्रोफाइल पिक्चर रहता।
सिर्फ कुछ वरीय अधिवक्ता व मित्रों (उनकी संख्या बहुत कम) का कहना था अच्छा लगता है। मगर बहुसंख्यक लोगों का यह भी कहना था इसे बदल लो। मैंने कहा यह नहीं बदलेगा। जो करना है कर ले। कौन का कानून हैं? संविधान के किस अनुच्छेद का उल्लंघन है? हां, मैं बता दूं पूरे झारखंड उच्च न्यायालय में “जय श्री राम का उद्घोष करने वाला” एकलौता मेरा ही प्रोफाइल रहा, पूरे ऑनलाइन न्यायालय में।
सेकुलरिज्म सर चढ़कर बोलता है पूरे न्यायालय में। “कुए में ही भांग मिला हुआ है।” दिवाली में पटाखा मत फोड़ों। होली में रंग मत लगाओ। मंदिर का गर्भ गृह का धन लूट लो। पूरे भारत की मंदिर सरकार के अधीन चर्च और मस्जिद उनके अधीन। दही हांडी की ऊंचाई तक क्या हो। मंदिर में माहवारी में महिला जाए या नहीं, तो नूपुर शर्मा के बारे में टिप्पणी कोई बड़ी बात नहीं है। “दीया में शुद्ध देसी घी नहीं पेट्रोल लग गया है।”
वरीय पत्रकार चंडीदत्त झा तो फेसबुक पर साफ लिखते है कि “दुनिया में जहां भी लोकतांत्रिक व्यवस्था है, अब तक कहीं की भी अदालत ने आतंकी हिंसा को कभी भी जस्टिफाई नहीं किया। लोकतांत्रिक इतिहास की यह पहली घटना है, जब किसी देश के सुप्रीम कोर्ट ने आतंकियों को अपनी तरफ से प्लेट में परोसकर आतंक का जस्टिफिकेशन दिया है। न्यायाधीशों ने भारत के सुप्रीम कोर्ट को कलंकित कर दिया। नुपूर शर्मा को फटकार लगाते बड़ी बात नहीं थी, लेकिन उदयपुर की घटना को जस्टीफाइ करके कभी न मिटनेवाला कालिख पोत लिया अपने मुंह पर।”