अपनी बात

आखिर हम भारतीय किसी भी प्रकार की मजदूरी करनेवालों को हेय दृष्टि से क्यों देखते हैं, आखिर हम अपनी सोच कब बदलेंगे?

पता नहीं अखबार/चैनल/पोर्टलवाले श्रम और श्रमिकों को इतना हेय दृष्टि से क्यों देखते हैं, जबकि सूक्ष्मरुप से विवेचना की जाये तो वे खुद भी एक तरह से श्रमिक हैं। बुद्धिजीवियों की माने तो दुनिया में कौन ऐसा व्यक्ति हैं जो श्रम नहीं करता, कोई शारीरिक तो कोई मानसिक श्रम करता ही है, पर श्रम तो श्रम ही हैं, लेकिन एक मानसिक श्रम को सर्वश्रेष्ठ मान लेना और दूसरी जगह जहां शारीरिक श्रम लगता हैं, उसे हेय दृष्ट से देखना क्या ये मानसिक विकलांगता का घोतक नहीं।

विश्व में कई ऐसे देश है, जहां शारीरिक श्रम को हेय दृष्टि से नहीं देखा जाता, लेकिन भारत में सर्वत्र शारीरिक श्रम को हेय दृष्टि से देखा जाता हैं। इसे कोई इनकार नहीं कर सकता। यहां रिक्शा चलानेवाला, ऑटोरिक्शा चलानेवाला, किसी के घर में पोछा लगानेवाला/पोछा लगानेवाली, जूते-चप्पल का मरम्मत करनेवाले, नगर-निगम या नगरपालिका में काम करनेवाले सफाईकर्मियों, खेतों में काम करनेवाले किसानों-मजदूरों, फैक्ट्रियों में काम करनेवाले मजदूरों, खोमचे लगाकर दुकान लगानेवालों, साइकिल-मोटरसाइकिल की मरम्मत करनेवालों, बिजली का काम करनेवालें मजदूरों, सड़क की मरम्मत करनेवाले महिला व पुरुष मजदूरों को लोग हेय दृष्टि से देखते हैं।

भारत में इस प्रकार का काम करनेवाले लोगों को लोग सम्मान की नजरों से नहीं देखते, चाहे वो कितने भी ईमानदार व चरित्रवान क्यों न हो। चाहे वे ईमानदारी व चरित्रता के आधार पर पूरी जिंदगी ही क्यों न बिता दी हो, पर ऐसे लोगों के लिए उनलोगों के दिलों में कोई जगह नहीं होती, वे इन्हें हेय दृष्टि से देखते ही हैं, जैसे इनलोगों ने ऐसा काम चून कर कोई बहुत बड़ा सामाजिक अपराध कर दिया हो।

जबकि दूसरी ओर आईएएस/आईपीएस हो या ग्रुप बी व ग्रुप सी के अधिकारी+कर्मचारी, वे कितने बड़े लूटेरे, यौन-शोषक, बेईमान, अपराधी व चरित्रहीन ही क्यों न हो, इनकी इज्जत समाज में कुछ ज्यादा ही देखने को मिलते हैं। एक समय था कि हमारे देश में आप क्या काम करते हैं, उसकी कही चर्चा नहीं होती थी, हां आप कितने बड़े विद्वान या चरित्रवान हैं, इसी की चर्चा ज्यादा होती थी, लोग उनके आगे अपना मस्तक भी झूकाते थे। ऐसे कई प्रमाण हमारे पास हैं, जो आज के मतानुसार वे पिछड़े थे, दलित थे, पर उन्होंने अपनी शुद्ध चरित्र के द्वारा पूरे समाज को अपने आगे नतमस्तक कर दिया। जैसे -संत रविदास।

कहने को तो गोस्वामी तुलसीदास व संत ज्ञानेश्वर ब्राह्मण कुल में ही जन्म लिये, पर इन दोनों महात्माओं पर ब्राह्मणों ने ही कम जुल्म नहीं किये, पर इन्होंने इन सभी का कोई प्रतिकार नहीं करते हुए अपने कर्म को ही प्रमुख मानते हुए, वही किया जो उन्हें करना था, आज इन दोनों का समाज में कितना सर्वोच्च स्थान हैं, लगता है हमें बताने की जरुरत नहीं।

इन दिनों झारखण्ड में फीफा अंडर 17 में चयनित अष्टम उरांव की खूब चर्चा है। अष्टम उरांव झारखण्ड की गुमला जिले के विशुनपुर प्रखण्ड की बनारी टोला गांव की रहनेवाली है। जब तक वह संघर्ष कर रही थी, उसका कहीं कोई नाम लेनेवाला नहीं था, पर जैसे ही वह अपने प्रतिभा के बल पर, अपने श्रमिक माता-पिता के त्याग व तपस्या के बल पर आकाश को चूमी, लोगों के सोच ही बदल गये।

आज अष्टम उरांव के गांव में सड़कें बन रही हैं, ये सड़कें अष्टम उरांव के नाम पर ही बन रही हैं। गुमला प्रशासन ने अष्टम उरांव के घर पर डिजिटल टीवी व इन्वर्टर का भी प्रबंध करवा दिया है, ताकि उसके माता-पिता अपनी बेटी का खेल देख सकें। दरअसल ये अष्टम उरांव को इस प्रकार की सुविधा मिलनी ही चाहिए क्योंकि उसने विपरीत परिस्थितियों में वो करके दिखाया हैं, जो कोई आईएएस व आईपीएस ही नहीं बल्कि पूंजीपतियों के घर में पैदा होनेवाले रईसों के बेटे-बेटियां भी नहीं कर सकते। लेकिन अब सवाल उठता है कि जिस श्रम व श्रमिक माता-पिता के त्याग व तपस्या के चलते अष्टम आकाश को चूम ली हैं, वो आकाश की ऊंचाइयों को प्राप्त कर लेने के बाद इतना हेय कैसे हो जाता है?

एक अखबार और एक पोर्टल बताता है कि उसके माता-पिता अष्टम उरांव के नाम पर बननेवाली सड़कों पर ही मजदूरी कर रहे हैं, जिसके एवज में उनके माता-पिता को 250-250 रुपये की मजदूरी मिल रही हैं। मैं कहता हूं कि अगर कोई माता-पिता गर्व से यह मजदूरी का काम कर रहा हैं, और इसी मजदूरी से अपने परिवार का पालन-पोषण कर रहा हैं, बच्चों को आकाश तक छूवा लेने की अपनी जिम्मेदारी निभा देता हैं, वह श्रम हेय कैसे हो सकता हैं?

हालांकि अष्टम उरांव की मां कहती है कि वो अब मजदूरी नहीं करेगी, बात भी सही है, जब ईश्वर ने उसे सब कुछ छप्पड़ फाड़कर आशीर्वाद के रुप में धन-धान्य से परिपूर्ण कर रहा हैं तो वह इस प्रकार की मजदूरी क्यों करेगी? प्रगतिशीलता तो होनी ही चाहिए, जबकि अष्टम उरांव के पिता ने कहा कि वो तो मजदूरी करेगा, अगर मजदूरी नहीं करेगा तो क्या करेगा, घर कैसे चलायेगा?

अब यहां सवाल दो हैं, एक है मजबूरी में श्रम करना और दूसरा दिखावे के लिए श्रम करना, दोनों अलग-अलग चीज है, पर यहां कुछ ऐसे लोग भी होते हैं, जो कहते है कि जिस श्रम से हम या हमारा परिवार उस ऊंचाई तक पहुंचा हैं, उस श्रम को हम कदापि नहीं छोड़ेंगे, ऐसे लोगों की संख्या वर्तमान में नगण्य है, पर ऐसे लोग ही इतिहास के पन्नों में अंकित हो जाते हैं।

आप इतिहास की पन्नों को उलट कर देखें तो दीपक वहीं प्रकाश फैलाता हैं, जहां अंधकार होता हैं, जहां प्रकाश पहले से ही इलेक्ट्रानिक व डिजिटल के रुप में फैला हैं, वहां दीपक क्या करामात दिखायेगा? मैंने तो रांची में ही देखा एक प्लम्बर का बेटा क्रिकेट में अंतरराष्ट्रीय जगत में छा गया, पर जब वो क्रिकेट जगत में छाने का प्रयास कर रहा था, तब तक उसका पिता प्लम्बर ही था, और अपने बेटे को ऊंचाई पर देखने को बेताब था। अंततः वो छा गया। नाम उसका महेन्द्र सिंह धौनी है, पर क्या आज धौनी के पिता प्लम्बर का काम करते हैं? उतर है – नहीं।

भला एक अंतरराष्ट्रीय जगत का क्रिकेट सितारा उसका पिता प्लम्बर का काम क्यों करें? उसे किस चीज की कमी, भाई हमारे देश में तो कोई भी काम करता हैं, तो उसकी मजबूरी होती हैं, उसे सब कुछ घर बैठे ही मिल जाये, तो निश्चय ही वो बेकार हो जायेगा, वो काम नहीं करेगा, क्योंकि उसे तो दुनिया की सारी चीजें प्राप्त हो गई।

अब आइये, इसी पर मैं एक और कहानी सुनाऊं। एक थे -पृथ्वी राज कपूर। आप नाम सुने हीं होंगे। वहीं राज कपूर के पिता। पृथ्वी राज कपूर ने उन्हें अचानक फिल्म में लाकर खड़ा नहीं कर दिया। उन्हें फिल्मी की बारीकियों को समझने के लिए वो सारे काम उनसे करवाये, जो उन्हें जानने थे। उसके बाद ही राजकपूर, राजकपूर बने और इसी परम्परा को राजकपूर के बच्चों ने नहीं अपनाया, नतीजा सभी के सामने हैं। ऋषि कपूर के बाद कोई फिल्म जगत में टिक ही नहीं पाया। स्थिति ऐसी हो गई कि आरके स्टूडियो ही खतरे में पड़ गई।

रांची के सुप्रसिद्ध पत्रकार प्रकाश सहाय कहते है कि आखिर क्या बात है कि साधारण घर में जन्म लेनेवाला बच्चा आईएएस/आईपीएस बन जाता है, पर इसी आईएएस/आईपीएस का बच्चा आईएएस/आईपीएस नहीं बन पाता। इनका बच्चा लाखों/करोड़ों रुपये देकर डाक्टर/इंजीनियर्स तो बन जाता है, लेकिन आईएएस/आईपीएस नहीं बन पाता।

प्रकाश सहाय कहते है कि इसका सीधा कारण है कि आईएएस/आईपीएस बन जाने के बाद इन घरों में पैदा लेनेवाले बच्चे सुविधाभोगी बन जाते हैं, उनमें किसी चीज या पद को प्राप्त करने के लिए इच्छा नहीं होती, वे जानते है कि उन्हें जो जरुरत होगी उनका आईएएस/आईपीएस बाप लाकर खड़ा कर देगा, जबकि दूसरी ओर साधारण घरों में जन्म लेनेवाले, मजदूरी करनेवाले बच्चों के पास खोने को कुछ नहीं रहता और पाने के लिए पूरा संसार होता है, वे निकल पड़ते हैं, असुविधाओं में अपनी सुविधा के मार्ग को चुनने के लिए संघर्ष करने को और लीजिये उन्हें निश्चित रुप से सफलता मिल जाती है।

प्रकाश सहाय कहते है कि एक बार जब वे खुलकर पत्रकारिता कर रहे थे, तभी डाक्टरों की हड़ताल हो गई। डाक्टरों ने अपनी हड़ताल को सफल बनाने के लिए व राज्य सरकार का ध्यान आकृष्ट कराने के लिए सड़कों पर जूते-चप्पल की पॉलिश करने लगे। तभी उन्होंने कहा था कि इसका क्या मतलब? इसका मतलब है कि आप जूते-चप्पल की पॉलिश करने का जो काम करते हैं, उन्हें और उनके काम को हेय दृष्टि से देखते हैं।

अगर जूते-चप्पल की पॉलिश करनेवाले लोग अपनी समस्याओं को लेकर राज्य सरकार का ध्यान आकृष्ट कराने के लिए अपने कंधे पर आला लगाकर प्रदर्शन करने लगे तो आपकी स्थिति क्या होगी? तब तो आपका काम और हेय दृष्टि से देखनेलायक हो जायेगा, क्योंकि वे आपकी जूती आपके सरवाली लोकोक्ति को चरितार्थ कर देंगे। दरअसल ये स्थिति इसलिए होगी कि आपने जूते-चप्पल की पॉलिश करनेवालों को कभी सम्मान दिया ही नहीं। प्रकाश सहाय कहते है कि ये जो बड़े-बड़े लोगों की सोचने की जो शैली हैं, उसे बदलना ही होगा, अगर नहीं बदलेंगे तो फिर प्रकृति खुद ही बदल देगी।

वे विद्रोही24 से बातचीत के क्रम में आगे कहते हैं कि भाई एपीजे अब्दुल कलाम को देखिये, लाल बहादुर शास्त्री जी को देख लीजिये, इनका जीवन किस स्थिति में रहा हैं, अगर इन्हें सब कुछ मिल ही जाता तो फिर ये वो होते, जो आज है, जिनके जीवन से लोग प्रेरणा ले रहे हैं। इतिहास साक्षी है। दुनिया में छोटे-छोटे लोगों, मजदूरों, पर चरित्रवान लोगों ने ही इतिहास बनाये हैं, जिन्हें उनके मुकाम तक पहुंचने तक दुनिया हेय दृष्टि से देखी हैं, पर जैसे ही उन्हें सफलता मिली, वहीं लोगों ने पहले उनके आगे सर झूकाई है।

सुपर स्टार अमिताभ बच्चन, अपने बेटे अभिषेक के लिए क्या नहीं कर दिया, पर वे अभिषेक को सुपर स्टार नहीं बना सकें, अभिषेक के समय में उनके समकालीन शाहरुख, सलमान और आमिर फिल्म जगत के पहलवान बने हुए हैं। आखिर शाहरुख खान कैसे सुपर स्टार बन गये या अपने समय में अमिताभ बच्चन कैसे सुपर स्टार बने, आप पायेंगे कि उन्होंने संघर्ष किया। उसको पाने के लिए एड़ी-चोटी एक कर दिये। ऐसा नहीं कि अमिताभ बच्चने के पिता हरिवंश राय बच्चन फिल्म जगत के बहुत बड़े महानायक थे या वर्तमान में शाहरुख खान के पिता बहुत बड़े फिल्मों के महानायक थे।

एक समय के लिटिल मास्टर सुनील मनोहर गावस्कर अपने बेटे रोहन गावस्कर को खुद जैसा नहीं बना सकें, जबकि उनके पास किसी चीज की कमी नहीं थी, इसलिए हमेशा याद रखिये, अपवादों पर ध्यान मत दीजिये, हमेशा याद रखिये, कि अभावों में ही संघर्ष करनेवालों की जमात पैदा होती हैं, जो अनिश्चित को निश्चित में बदल देती हैं। इसलिए जब कभी कोई दर्जी/मजदूर/किसी के घर में पोछा लगानेवाला या लगानेवाली का बेटा/बेटी आईएएस/आईपीएस बनें तो ये नहीं कहें या लिखे कि दर्जी/मजदूर/किसी के घर में पोछा लगानेवाला या लगानेवाली का बेटा/बेटी आईएएस/आईपीएस बना, ये लिखना ही उस आईएएस/आईपीएस बननेवाले बेटा/बेटी का अपमान हैं।

बल्कि ऐसे वक्त पर उस आईएएस/आईपीएस बननेवाले बेटे/बेटियों को अपनी माता-पिता पर गर्व कराना सीखाइये और सफलता प्राप्त करनेवाले अभ्यर्थियों को यह खुलकर कहना भी चाहिए कि उसके माता-पिता मजदूरी करते हैं/थे और ये कोई शर्म की बात नहीं। जो भी काम करें, वो ईश्वर को समर्पित करके करें, अरे देखिये न जब महाभारत के युद्ध में भगवान कृष्ण जब अर्जुन के सारथि (आज के युग में ड्राइवर) बन सकतें हैं।

युद्धिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय भगवान होने के बावजूद जब श्रीकृष्ण सभी आगंतुकों के चरण पखारने का काम स्वयं के लिए अनुरोध पूर्वक ले सकते हैं तो फिर आप इस चक्कर में क्यों पड़े है कि कौन काम निकृष्ट हैं और कौन काम निकृष्ट नहीं हैं। याद रखिये, सारे के सारे काम अच्छे हैं, बशर्ते उसमें ईमानदारी और चरित्र शामिल हो, और वो सारे काम बुरे हैं, जिसमें बेईमानी और चरित्रहीनता शामिल हो।