छा गये स्वामी वासुदेवानन्द, विभिन्न कथाओं से योगदा भक्तों का किया मार्गदर्शन, बताया भगवान को कैसे भक्त प्रिय होते हैं?
सचमुच आज का दिन योगदा भक्तों को बहुत दिनों तक याद रहेगा। विभिन्न कथाओं से आज के सत्संग को रोचक बनाते हुए स्वामी वासुदेवानन्द ने लोगों को बता दिया कि भगवान को कैसे भक्त प्रिय होते हैं? उन्होंने समय, ध्यान और प्रभु तीनों के सामंजस्य की तुलना करते हुए कहा कि यह समय व्यर्थ करने के लिए नहीं, ध्यान करने का हैं, प्रभु को पाने का हैं। स्वामी वासुदेवानन्द रांची स्थित योगदा सत्संग मठ के ध्यान केन्द्र में आज रविवारीय सत्संग को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने सबसे पहले नारद और श्रीकृष्ण की कथा सुनाई।
नारद-श्रीकृष्ण की कथा
एक बार नारद जी के मन में आया कि भगवान श्रीकृष्ण का सबसे बड़ा भक्त कौन हैं? यह जानने के लिए भगवान श्रीकृष्ण से ही यह प्रश्न क्यों न पूछा जाये? नारद को लगा कि भगवान श्रीकृष्ण बिना किन्तु-परन्तु के नारद का ही नाम लेंगे, क्योंकि नारद को यह विश्वास था कि भगवान श्रीकृष्ण का सबसे बड़ा भक्त उनके सिवा कोई दुसरा नहीं हैं। वे श्रीकृष्ण के पास पहुंचे और भगवान से पूछा कि भगवन् आपका सबसे बड़ा भक्त कौन है? कृपया उसका नाम बताएं। भगवान श्रीकृष्ण ने नारद से कहा कि वे इसका उत्तर जरुर देंगे, पहले नारद उनका एक काम कर दें।
नारद ने पूछा – प्रभु आप बताएं, आपका कौन सा काम है? भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि उनके सिर में बहुत तेज दर्द हैं और ये दर्द तभी ठीक होगा, जब कोई अपना चरण-रज लाकर उनके सिर पर लगा दें। नारद चरण-रज लाने के लिए निकल पड़े। वे गोपियों के पास पहुंचे। गोपियों से कहां भगवान श्रीकृष्ण के सिर में तेज दर्द हैं, क्या गोपियां अपना चरण-रज भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित करेंगी। गोपियों ने कहा कि वे चरण-रज देकर, नरक क्यों जाना चाहेंगी। वो अपना चरण-रज नहीं देंगी। इसके बाद नारद, राधिका के पास पहुंचे और सारा हाल कह सुनाया।
राधिका ने तुरन्त अपना चरण-रज दे दी और ये कहां कि राधिका को भगवान के लिए नरकवास भी झेलना पड़ें तो वो इसके लिए तैयार है। नारद चरण-रज लेकर श्रीकृष्ण के पास पहुंचे और राधिका की बात भगवान श्रीकृष्ण को सुना दी। भगवान श्रीकृष्ण ने तुरन्त कह दिया, नारद तुम्हें लगता है कि तुम्हारा उत्तर मिल गया होगा। हमारी सबसे बड़ी भक्त राधिका हैं, तुम नहीं। राधिका मेरे लिए नरकवास को भी मंजूर कर रही हैं, पर तुम नहीं, तुम चाहते तो तुम भी तत्काल चरण-रज अपना दे सकते थे, पर तुमने नरक जाना मेरे लिए उचित नहीं समझा और न ही इस पर ध्यान दिया, तुम तो दूसरों के चरण-रज लेने को निकल पड़े। इसलिए मेरा असली भक्त वहीं हैं, जो मेरे लिए अपना सर्वस्व का त्याग करें, नरक भी झेलना पड़ें तो उसके लिए भी तैयार रहे।
पुरी की यात्रा और सिद्ध-महात्मा
एक बार एक सिद्ध महात्मा पुरी की यात्रा पर भगवान की दर्शन के लिए निकल पड़े। यह वह समय था, जब लोग अपने घर पर सिद्ध-महात्माओं, संतों आदि को अपने घर पर ठहराया करते, उनकी सेवा-सुश्रुषा करते। वो सिद्ध-महात्मा एक गृहस्थ के घर में यात्रा के दौरान ठहर गये। इसी दौरान गृहस्थ की पत्नी सिद्ध-महात्मा पर मोहित हो गई और कहा कि वो सिद्ध महात्मा के साथ अपना जीवन बिताना चाहती है। महात्मा ने कहा कि यह कैसे हो सकता है, वो संन्य़ासी हैं और उसका पति अभी जीवित हैं। यह तो महापाप है। हम जैसे संन्यासियों को ये शोभा भी नहीं देता। फिर क्या था?
थोड़ी ही देर बाद गृहस्थ की पत्नी हाथ में एक तलवार लिये उक्त सिद्ध महात्मा के सामने प्रकट हो गई। महात्मा को यह समझते देर नहीं लगी कि गृहस्थ की पत्नी ने क्या किया हैं? फिर भी गृहस्थ की पत्नी ने कह डाला कि उसने अपने पति का अभी-अभी गला काट डाला हैं, वो मरा पड़ा हैं, अब उसने समस्या ही खत्म कर दी हैं, अब तो ठीक है। सिद्ध महात्मा ने कहा कि यह तो और अनाचार हो गया। गृहस्थ की पत्नी को लगा कि ये सिद्ध-महात्मा उसकी बातें नहीं सुनेगा, उसने चाल-चली। अपने कपड़ें को चिथड़े करने शुरु किये और शोर मचाया। शोर सुनकर, आस-पास के लोग पहुंचे।
गृहस्थ के पत्नी ने शोर मचाते हुए कहा कि यह खुद को महात्मा कहनेवाला व्यक्ति उसके पति को मार डाला और उस पर बुरी नजर डाला है। महात्मा चूंकि परमज्ञानी थे। वे वर्तमान परिस्थितियों को देख मुस्कुराने लगे। उन्हें लगा कि पूर्व जन्म के कर्मफल बचे हुए हैं, उसका प्रतिफल लगता है कि सामने आ रहा हैं, प्रभु उसे पूर्व के कर्म-फलों के दंड देने के लिए इस समय को चुना है। यह जानकार परम आनन्द में हो गये, क्योंकि संतों-महात्माओं के ये लक्षण हैं कि उन्हें जीवन मिल रहा हैं या मृत्यु इसकी परवाह नहीं करते, वे दोनों अवस्थाओं में परम आनन्द में होते हैं। तभी उस समय के न्यायकर्ताओं की टीम आ गई। न्यायकर्ताओं ने सिद्ध-महात्मा के दोनों हाथ काटने के आदेश दे दिये।
इधर बिना देर किये उस सिद्ध महात्मा के दोनों हाथ काट दिये गये। सिद्ध महात्मा अपने लहुलूहान बाजूओं को लेकर आगे की यात्रा पर निकल पड़ें। थोड़ी दूर जाते ही भगवान की कृपादृष्टि सिद्ध महात्मा पर पड़ी और उन्होंने सिद्ध महात्मा की कटी हाथों को फिर से जोड़ दिया। भगवान को देख, सिद्ध महात्मा आह्लादित थे। भगवान ने पूछा कि अगर कोई उसके मन में सवाल हैं तो पूछे। सिद्ध महात्मा ने कहा कि भगवान के दर्शन हो गये और उसे क्या चाहिए? बस वो संतुष्ट हैं। फिर भी, भगवान ने उसे सवाल पूछने को कहा।
सिद्ध-महात्मा ने कहा कि प्रभु यह जो तत्काल घटनाएं जो घटी हैं, उसके विषय में विस्तार से वो जानना चाहते हैं। भगवान ने कहा कि पूर्व जन्म में वो सिद्ध महात्मा एक पंडित था। जो पत्नी थी वो गाय थी और जो पति था वो कसाई था। एक बार गाय भागती हुई तुम्हारे पास पहुंची और तुमने उस गाय को अपने दोनों हाथों से उसकी रस्सियों को पकड़कर कसाई के हाथों सौंप दिया। कसाई ने बिना देर किये, उसके गर्दन पर चाकू चला दिये। इसलिए इस जन्म में गौ ने पत्नी के रुप में जन्म लेकर कसाई बने पति का गर्दन उड़ा दिया और चूंकि तुमने दोनों हाथों से गौ के गर्दन पकड़ लिये थे, जिसके कारण गौ की जान चली गई।
उस कर्मफल के अनुसार तुम्हारी हाथ इस जन्म में काट दी गई थी। यही कर्म-बाधा तुम्हें मेरे पास आने से रोक रही थी। आज वो कर्म-बाधा समाप्त हो चुकी हैं। अब तुम मेरे सन्निकट हो। सिद्ध-महात्मा ने यह सारी वृतांत सुनकर स्वयं को भगवान को समर्पित कर दिया और भगवान ने भी उसे अपना दर्शन देकर उसे परमानन्द से भर दिया।
हीरे के टूकड़े या कंकड़-पत्थड़
दक्षिण भारत में एक बहुत बड़े साधक हुए। वे हमेशा प्रभु के ध्यान में ही अपना जीवन व्यतीत करते थे। जो कुछ ईश्वर देता, उसी से प्रसन्न रहते। एक बार वहीं के राजा ने उनके आचरण की शुद्धता की परीक्षा लेनी चाही। उसने साधक को एक थैली चावल देना शुरु किया और उस थैली में हर बार हीरे के कुछ टूकड़ें जान-बूझकर डाल दिया करता, कि देखते हैं कि यह साधक उन हीरों का क्या करता है? यह क्रम लगातार पांच दिन तक चलता रहा। जब छठां दिन आया। तो राजा अपने मंत्री के साथ उस साधक के घर गया।
राजा ने साधक के घर पर जाकर साधक से पूछा कि वो जो थैली भरी चावल देता हैं, उसका क्या करता है? साधक की पत्नी ने कहा कि वो जो थैली भरी चावल उसके यहां से मिलती हैं, उसे बनाने में बड़ी परेशानी होती है, क्योंकि उसमें कंकड़-पत्थड़ ज्यादा होते हैं, उसे बीनने में ही काफी वक्त लग जाता है। राजा ने कहा कि वो कंकड़-पत्थड़ नहीं बल्कि हीरे हैं। साधक की पत्नी ने कहा कि आपके लिए वो हीरे होंगे, मेरे लिए तो वो कंकड़-पत्थड़ ही हैं, आप ऐसा करें, वो सारे कंकड़-पत्थड़ उस गड्ढ़े में फेंके हुए हैं, आप उसे ले जाये। राजा यह देखकर अवाक् रह गया। सचमुच वो सारे हीरे साधक के कुटिया के पीछे बने गड्डे में बिखड़े-पड़े थे।
चैतन्य महाप्रभु का वो अद्भुत शिष्य
एक चैतन्य महाप्रभु के बहुत बड़े शिष्य हुए। वे प्रभु के परम आनन्द में हमेशा डूबे रहते थे। एक दिन कहीं कोई शास्त्र का जानकार शास्त्रार्थ करने के लिए निकलना चाहता था और वो ऐसे शास्त्रों के जानकार के पास जाकर शास्त्रार्थ करना चाहता था, जो उसे लिखकर दे दें कि वो उससे हार गया हैं, ताकि वो अपनी विद्वता प्रदर्शित कर सकें। उसे चैतन्य महाप्रभु के शिष्य की जानकारी मिली। वो उनके पास पहुंचा और कहा कि वो उनसे शास्त्रार्थ करना चाहता है, ताकि उन्हें हराकर वो ऐसा सर्टिफिकेट प्राप्त करें, जिसमें यह लिखा हो कि उसने चैतन्य महाप्रभु के शिष्य को हरा दिया हैं।
चैतन्य महाप्रभु के शिष्य ने उसे तुरन्त बिना शास्त्रार्थ किये ही हार मान ली और उसे यह सर्टिफिकेट प्रदान कर दिया। फिर क्या था, वो शास्त्रों का जानकार बहुत खुश होता हुआ, नगाड़ा पीटकर वहां से जीत की गुमान में निकल पड़ा कि चैतन्य महाप्रभु के शिष्य ने तो बिना शास्त्रार्थ किये ही हार मान ली, मतलब वो तो सचमुच महान बन चुका है। इधर इस घटना की बात चैतन्य महाप्रभु के शिष्य के शिष्य को पता चली तो वो रास्ते में ही शास्त्रों के उक्त जानकार को रोक लिया और कहा कि पहले वो जहां से जीत का सर्टिफिकेट लेकर निकला हैं, उनके शिष्य को तो हरा दें। फिर क्या था?
शास्त्रों के उक्त जानकार की सिट्टी-पिट्टी निकल गई। वो हार चुका था। चैतन्य महाप्रभु के शिष्य का शिष्य अपने गुरु के पास पहुंचा और गुरुदेव को कहा कि उसने उस शास्त्र के जानकार का ज्ञान का घमंड चूर-चूर कर दिया है। वो तो बड़ी प्रसन्न होकर, अपने गुरु को सुना रहा था, पर ये क्या चैतन्य महाप्रभु के शिष्य नाराज हो गये। उन्होंने अपने शिष्य को फटकारा और कहा कि तुम नहीं जानते।
तुमने नहीं देखा कि जब उसने मेरी ओर से अपनी हार का सर्टिफिकेट (कागज का टूकड़ा) उसे मिला था, तो कितना प्रसन्न था, उसकी प्रसन्नता पर तुमने कुठाराघात कर दिया, भला ऐसे कर्मों से किसी को परमानन्द की प्राप्ति हुई हैं, भगवद् प्राप्ति हुई है। अरे सभी के आनन्द में ही तो आनन्द का नाम प्रभु को प्राप्त करना है। वो व्यक्ति एक कागज के टूकड़े से ही तो प्रसन्न था, उसने मेरा लिया ही क्या था?
एक निराकार को माननेवाले संत और गोविन्द जी की मूर्ति
एक ब्रह्म समाज से जुड़े रामकृष्ण के समकालीन एक संत थे। वे भगवान को नहीं मानते थे। पर उनके घर में पूर्वजों की एक ठाकुरवाड़ी थी, जिसमें गोविन्द जी की मूर्ति थी। घर के सभी सदस्य गोविन्द जी की मूर्ति के आगे सर झूकाते पर वे ऐसा कभी नहीं करते। एक दिन गोविन्दजी की मूर्ति ने उनके ध्यान में आकर कहा, तुम जाकर पूजारी को कहो कि उसने उन्हें आज पानी नहीं दिया। संत ने कहा कि तो वे मुझसे क्यों कह रहे हैं, मैं तो आपके पास जाता नहीं, आप खुद पुजारी को क्यों नहीं कहते? दूसरे दिन फिर गोविन्द जी की मूर्ति उनके फिर ध्यान में आई और कहा कि आज खीर में चीनी नहीं थी। जाकर सब को कह देना।
संत ने दोनों घटनाओं को घर के सभी सदस्यों को सुनाया। सभी ने ये बातें स्वीकारी कि कल खीर में सचमुच चीनी कम थी। तीसरे दिन गोविन्दजी की मूर्ति ने ध्यान में आकर कहा कि उनके लिए वो संत सोने के गहने बना दे, पैसे की व्यवस्था वो कर देंगे। संत ने कहा कि ये पैसे आयेंगे आखिर कहां से? गोविन्द जी की मूर्ति ने कहा कि संत की बुआ ने उनके गहने बनाने के लिए 60 रुपये रखे हुए हैं। उनसे मांग कर वो सारा काम करवा दें। संत ने अपनी बुआ के पास जाकर ध्यान की सारी बातें कह डाली।
संत की बुआ ने भी स्वीकार किया कि हां उनके पास गोविन्दजी की प्रतिमा को सजाने के लिए 60 रुपये रखे हैं। संत की बुआ ने वे सारे रुपये संत को दे दिये। संत कोलकाता के बाजारों से गोविन्दजी की मूर्ति के लिए गहने बनवा लाये और मूर्ति को सजा दिया गया। फिर भगवान संत के ध्यान में आये और कहा कि जरा मेरे को देखों तो कि मैं कैसा लग रहा हूं? संत आखिरकार भगवान को देखने अंदर चले गये। भगवान से आत्म-साक्षात्कार होता है।
वे भगवान की इस अद्भुत लीला को देख आश्चर्य में पड़ रहे हैं। वे भगवान से पूछते है कि उन्होंने उनके साथ ऐसा क्यों किया? आखिर पूर्व में उनके हृदय में निराकार भाव क्यों भरें? मेरे जीवन में ऐसा तोड़-फोड़ क्यों किया? भगवान ने कहा कि पहले ये बताओं कि ऐसा करने में तुम्हारा गया क्या? मेरी चीज में उसके साथ जो करुं, तुम्हारे से इससे मतलब?
इन सारी प्रेरणात्मक सत्य कथाओं से स्वामी वासुदेवानन्द ने गीता के 12 वें अध्याय के 14वें श्लोक से लेकर 20वें श्लोक के रहस्यों से पर्दा उठा दिया। उन्होंने कहा कि आखिर भगवान किन भक्तों को अपना प्रिय मानते हैं? उन्हें जानने की कोशिश कीजिये। आनन्द आ जायेगा। उन्होंने कहा कि जो मन-इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किये हुए हैं और ईश्वर में दृढ़ निश्चयवाला है। वह ईश्वर में अर्पण किये हुए मन-बुद्धिवाला भक्त भगवान को प्रिय है। उन्होंने कहा कि जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता, वह भक्त भगवान को प्रिय होता है। जो पुरुष आकांक्षा से रहित, बाहर-भीतर से शुद्ध, चतुर, पक्षपात से रहित और दुखों से छूटा हैं, वहीं भक्त भगवान को प्रिय होता है।
उन्होंने कहा कि जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है, जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों का त्यागी है, वह भक्त भगवान को प्रिय होता है। जो शत्रु-मित्र, मान-सम्मान, सर्दी-गर्मी, सुख-दुख दोनों में समभाव रहता हैं, आसक्ति से रहित हैं, वहीं भक्त भगवान को प्रिय होता है। जो निन्दा-स्तुति दोनों को समान समझता है, जो मननशील है, जो किसी भी प्रकार से शरीर का निर्वाह होने में सदैव संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है, ऐसे भक्त भगवान को प्रिय होते हैं, परन्तु इसमें भी श्रद्धायुक्त पुरुष परायण होकर इस उपर कहे हुए धर्ममय अमृत को निष्काम प्रेम भाव से सेवन करते हैं। वैसे भक्त भगवान को अतिशय प्रिय होते हैं।