धर्म

सारी दुनिया बाहर की ओर जाना चाहती है पर जो साधक होता है, वो अंदर की ओर आना चाहता है – ब्रह्मचारी निश्चलानन्द

सारी दुनिया बाहर की ओर जाना चाहती है पर जो साधक होता है वो अंदर की ओर आना चाहता है। जो साधक होते हैं, वे ईश्वर को पाने के लिए समय निकाल ही लेते हैं, साधना के लिए समय निकालना उनके लिए सहज होता है। उक्त बातें आज रांची स्थित योगदा सत्संग आश्रम में रविवारीय सत्संग को संबोधित करते हुए ब्रह्मचारी निश्चलानन्द ने कही।

ब्रह्मचारी निश्चलानन्द ने कहा कि ऐसा नहीं कि साधना करने से आपका जीवन सुखमय हो जायेगा, अगर ये सोच कर आप साधना करते हैं तो फिर आपका साधना करना या न करना दोनों बराबर है, पर इतना तय है कि साधना करने से आप स्वयं औरों से अलग पायेंगे। उन्होंने कहा कि साधना का सबसे सुंदर समय सुबह और शाम है।

उन्होंने कहा कि साधना के लिए, ईश्वर को पाने के लिए, आपको समय निकालना ही चाहिए। जब आप सांसारिक चीजों को पाने के लिए समय निकाल लेते हैं तो फिर साधना के लिए आप समय क्यों नहीं निकाल सकते? उन्होंने कहा कि ये मत सोच लीजियेगा कि भगवान को आपका समय चाहिए, भगवान तो सिर्फ ये देखना चाहते है कि आपके मन में वे किस गहराइयों तक हैं। उनको आपका समय कम, आपका मन पर ज्यादा ध्यान है।

उन्होंने कहा कि आप कुछ भी करिये, कोई काम में लगे रहिये, पर अपने मन और हृदय को हमेशा अनुभव कराइये कि आपको प्रभु की आवश्यकता है, क्योंकि इस माया रुपी संसार में माया से बचकर निकल पाना भी उतना आसान नहीं हैं। माया हमेशा आपको अपनी ओर खींचती है, क्योंकि पूर्व जन्म से जुड़ी घटनाएं और आपकी महत्वाकांक्षाएं आपको प्रभु की ओर जाने से रोकने का प्रयास करती है।

उन्होंने बड़े ही सुंदर और तार्किक ढंग से परमहंस योगानन्द की कविता – ‘नींद की गहराइयों में… … … प्रभु, प्रभु, प्रभु’ गाकर योगदा भक्तों को सुनाया और उसके भावार्थ को समझाने में कामयाब रहे। उन्होंने कहा कि बहुत सारे लोग कहते है कि उनके पास बहुत सारे काम हैं, इस कारण हम साधना नहीं कर सकते, पर ब्रह्मचारी निश्चलानन्द का कहना था कि हम बहुत सारे कामों को भलीभांति संपन्न कर भी प्रभु को पाने के लिए साधना कर सकते हैं।

उन्होंने कहा कि ये साधना तभी हो सकती हैं, जब आप इसमें उद्देश्य को शामिल करें। जैसे आप किसी उद्देश्य के लिए काम करते हैं, कि हमें पैसों के लिए कमाना हैं, अपने जरुरतों को पूरा करने के लिए कमाना हैं, उसी प्रकार आप अपने मन में ये भाव उत्पन्न करिये कि हमें प्रभु को पाने के लिए साधना करनी है। जैसे आप अपने लिए, दूसरों के लिए काम करते हैं, समाज और देश के लिए काम करते हैं, ठीक उसी प्रकार अपने मन में इसी प्रकार का  भाव रखते हुए साधना करनी चाहिए, साधना को अपना उद्देश्य बनाना चाहिए।

हमारी चेतना सिर्फ अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए भी होनी चाहिए, क्योंकि असली संतुष्टि इसी से होती है। कोई भी काम हम करें तो ये अपने मन में भाव अवश्य रखें कि यह काम ईश्वर को समर्पित है, इससे आप कर्मफल से मुक्त हो जाते हैं और यही आपको मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त करता है। मतलब साधना की पहली अवस्था अपने लिए, दूसरी अवस्था दूसरों के लिए तीसरी अवस्था कर्मफल को ईश्वर को समर्पण, चौथी अवस्था ईश्वर या प्रभु को हर हाल में प्रसन्न रखना और पांचवीं अवस्था हम कुछ नहीं, बल्कि हम जो कर रहे हैं, वो सभी ईश्वर के द्वारा संपन्न हो रहा हैं, ऐसी सोच ही साधना को दिव्यता प्रदान करती है।

उन्होंने कहा कि वर्तमान जो क्षण चल रहा है, उस क्षण का हम निर्माण नहीं कर सकते, इसलिए इस वर्तमान क्षण का हम कितना फायदा उठा रहे हैं, इसका भी भान हमें होना चाहिए, नहीं तो जो ये बहुमूल्य क्षण बीत रहा हैं, उसे हम दुबारा अपने हित में नहीं साध सकते, इसलिए बीते हुए पल को भूल जाइये, वर्तमान के पल को सार्थक करने में लगाइये, ईश्वर को प्राप्त करने में, ध्यान में, योग में, परमहंस योगानन्द और योगदा के बताए मार्गों पर चलने का अभ्यास करिये, यही आपकी जिंदगी को बदलकर रख देगा, इसमें किन्तु-परन्तु नहीं होना चाहिए।