ईश्वर के दिव्य प्रेम व आनन्द में डूबने के लिए क्षमाशीलता के रंग को अपनाकर इस बार होली मनाइये, जीवन को सार्थक करिये – ईश्वरानन्द
सात मार्च को परमहंस योगानन्द जी और नौ मार्च को युक्तेश्वर गिरि जी का महासमाधि दिवस है। इसी बीच आठ मार्च को महापर्व होली भी है अर्थात् ये सप्ताह आध्यात्मिक सप्ताह है। आम तौर पर होली रंगों का त्यौहार हैं, पर जो मन को अपने आध्यात्मिक रंग अथवा प्रभु की भक्ति के रंग से रंगते हैं, उनके लिए ये पर्व आध्यात्मिक सुख का आनन्द दे जाता है। ये बातें आज योगदा सत्संग मठ में आयोजित साप्ताहिक सत्संग को संबोधित करते हुए योगदा सत्संग सोसाइटी के महासचिव स्वामी ईश्वरानन्द गिरि ने कही।
उनका कहना था कि ज्यादातर लोग होली को लेकर यही मानते हैं कि होली इसलिए मनाया जाता है कि बुराई की प्रतीक होलिका का दहन हो गया था और सत्य के प्रतीक प्रह्लाद ईश्वरीय कृपा से अग्नि के प्रभाव से मुक्त होकर बाल-बाल बच गये थे। पर द्वापरयुग में राधा-कृष्ण के दिव्य प्रेम को भी होली के रुप में मान्यता है। इसे भी हमें जानना चाहिए। कुल मिलाकर हम कह सकते है कि यह पर्व दिव्य प्रेम की अभिव्यक्ति और अंधकार पर प्रकाश की जीत के प्रतीक के रुप में मनाया जाता रहा है।
ईश्वरानन्द गिरि ने दिव्य प्रेम को पाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति में क्षमाशीलता के गुण होने को सर्वोपरि मानते हुए कहा कि अगर आप में क्षमाशीलता के गुण नहीं हैं तो आप दिव्य प्रेम और ईश्वर की अनुभूति से बहुत ही दूर है। क्षमाशीलता एक कठिन अभिव्यक्ति है। उन्होंने कहा कि हम जिनसे प्रेम करते हैं। वे अगर आपके प्रति गलत भी करते हैं। उसके बावजूद भी आप उन पर प्रेम लूटा रहे हैं, तो आप संत बन गये, क्योंकि संत अपना व्यवहार किसी भी हालत में नहीं बदलते। चाहे आप उनसे प्रेम करें अथवा घृणा।
ईश्वरानन्द गिरी ने कहा कि क्षमाशीलता एक गुण है। उन्होंने कहा कि क्षमाशीलता की नौबत कब आती है, इसे समझने की आवश्यकता है। इस संसार में जो भी व्यक्ति हैं, वो परिपूर्ण नहीं हैं। जिसके कारण हमारे अंदर क्रोध का जन्म होता है। इन्हीं कारणों से हमें क्षमा करने और क्षमा प्राप्त करने की आवश्यकता होती है। उन्होंने इस दौरान लाहिड़ी महाशय से जुड़ी एक कथा सुनाई।
उन्होंने विस्तार से बताया कि लाहिड़ी महाशय के घर में एक बिल्ली थी। जब वे एक बार भोजन करने बैठे तो स्वभाववश उस बिल्ली ने भोजन में मुंह लगाने की कोशिश की। आध्यात्मिकता से परिपूर्ण लाहिड़ी महाशय बिल्ली को रोकने की कोशिश की और इसी कारण बिल्ली की मृत्यु हो गई। वे इसे देखकर बहुत दुखी हुए। उन्होंने तुरंत आध्यात्मिक बल से उस बिल्ली को पुनर्जीवन दिया और फिर उसी थाल में उक्त बिल्ली को भोजन कराया। ये हैं क्षमाशीलता।
ईश्वरानन्द गिरि ने कहा जान लीजिये जब तक आप किसी को क्षमा नहीं करेंगे। आप उस घटना को भूल नहीं सकते। जब घटना को नहीं भूलेंगे तो शांति भी प्राप्त नहीं होगी, क्योंकि हमारा वास्तविक स्वरुप ही क्षमा करना व आनन्द को प्राप्त करना है। जितना अधिक हम आत्मिक गुणों को अपने मन में विस्तार करेंगे, उतना ही हम अपने स्वरुप को प्राप्त करने में सफल होते जायेंगे।
उन्होंने कहा कि क्षमा हमारी आध्यात्मिक प्रगति के लिए आवश्यक है। यह ऐसा गुण है जिससे हम आध्यात्मिक प्रवृत्तियों की ओर अग्रसर होते हैं। क्षमा प्रेम की ही एक अभिव्यक्ति है। ये आ गया तो आप ईश्वर की ओर बढ़ चले और जब आपने इससे दूरियां बना ली तो आप शैतान की ओर बढ़ जायेंगे, इसे याद रखिये। अब आपको ईश्वरीय सत्ता की ओर बढ़ना है या शैतानी प्रवृत्ति की ओर बढ़ना है ये आपको निर्णय लेना है। ऐसे भी जीवन में आगे बढ़ने के लिए दो मार्ग ही है – एक अच्छाई का और दूसरा बुराई का। शांति, प्रेम और आनन्द की ओर बढ़िये, ताकि आप ईश्वर से जुड़े रहे और ये तभी होगा जब हम योग-साधना से जुड़े रहे।
ईश्वरानन्द गिरि ने यह भी कहा कि जब तक हम अपने मन में द्वेष व क्रोध को पालते रहेंगे। तो ऐसे हालात में योग-साधना करने के बावजूद हम ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकते, क्योंकि ये वही बात हो गई कि कोई छिद्र वाली बाल्टी में दूध दूहने की कोशिश कर रहा हो। दरअसल द्वेष, क्रोध आदि हमारे आध्यात्मिक जीवन में छिद्र का ही रोल अदा कर रहे होते हैं। उन्होंने कहा कि गहरा ध्यान और अपने मन पर नियंत्रण रखने से ही ईश्वर को प्राप्त करने में सहुलियत होती है।
उन्होंने बताया कि एक आनन्दमयी संत हुआ करते थे। जो बराबर कहा करते थे कि तुम्हारे अंदर जिसके प्रति भी क्रोध हो। उस क्रोध को जितना जल्दी हो सके। त्याग दो। बिना क्रोध के त्याग के आप आध्यात्मिक पथ पर एक सेकेंड भी नहीं चल सकते। ईश्वरानन्द गिरि ने अपने जीवन में घटी एक घटना का उदाहरण देते हुए कहा कि उन्होंने भी इस बात को कभी महसूस किया था जब वे गहरा ध्यान करने के बाद क्रोध के शिकार होने लगे थे। जब ज्ञान हुआ तो उन्होंने उस क्रोध पर विजय पाने में सफलता प्राप्त कर ली।
उन्होंने यह भी कहा कि क्षमा करना कभी-कभी कठिन होता है। आप चाहकर भी जिस पर क्रोधित होते हैं, उसे क्षमा नहीं कर पाते। यहां तक की आप उसके लिए ईश्वर को भी दोषी ठहरा देते हैं। पर क्या आप इसे जीवन भर अपने मन में ढोकर आप पूरे जीवन को विषाक्त बनाना चाहेंगे। नहीं न। इसलिए क्षमा को वरण कीजिये। ये बहुत ही जरुरी है।
ईश्वरानन्द गिरि ने कहा कि जब ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाये तो आप ज्ञान का सहारा लीजिये। अपने मन को, अपनी आत्मा को कहिये कि वो शरीर नहीं, आत्मा है। मैंने कई बार जीवन को धारण किया है। कई बार अन्यायों को सहा है। जब उसे भूल गये। तो इस बार भी जो अन्याय को सह रहे हैं तो इसे भी भूल जाने में कौन सी बड़ी बात है।
जब ज्यादा अन्याय बढ़े तो कभी ये भी सोचने की कोशिश कीजिये कि अन्याय करनेवाले ईश्वर और सहनेवाला भी ईश्वर, मतलब तटस्थ भाव में चले जाइये। समझ लीजिये कि सामनेवाला अज्ञानता के कारण अत्याचार कर रहा है। कल्पना करिये कि किसी अबोध बालक के हाथों में गलती से चाकू आ गया है और जैसे वो अपने माता-पिता को अज्ञानता के कारण लहुलूहान कर दिया है। तब जैसे माता-पिता अपने अबोध बच्चे पर क्रोध न कर प्रेम लूटाते हैं, उसी प्रकार आप भी मन में ये सुंदर भाव लाइये।
इससे भी ज्यादा अन्याय बढ़े तो समझिये ये आपकी कर्मफल हैं जो कर्मफल के सिद्धांत के रुप में आपके समक्ष आये हैं, इसे तो आपको ही झेलना है। फिर भी अन्याय और आपके जीवन में आये तो समझने की कोशिश कीजिये कि ईश्वर कुछ आपको समझाना चाहते हैं। संदेश देना चाहते हैं। उस संदेश को समझने की कोशिश कीजिये। आप ऐसे हालात में ध्यान करिये। मन शांत हो जायेगा।
ईश्वरानन्द गिरि ने कहा कि कभी-कभी ऐसा भी होता है कि आपसे जाने-अनजाने में गलती हो जाया करती है, तो उस गलती को महसूस करिये और फिर दुबारा वो गलती न हो, इसके लिए निरन्तर प्रयास करिये। संसार में ऐसे लोग भी है, जो अपनी गलतियों के लिए खुद को माफ नहीं करते। ऐसे लोगों को मेरी सलाह है कि वे ये बाते ध्यान में रखें कि ईश्वर को गणित नहीं आती। वो आपकी गलतियों को याद नहीं रखते। भूल जाते हैं। ये हमारा कथन नही, बल्कि एक बहुत पहुंचे हुए संत ने अपने संदेश में कहा है।
हां ये बात अवश्य याद रखें कि जब आप बार-बार गलतियां करते जाते हैं और उसके बाद भी सुधरने का नाम नहीं लेते तो ईश्वर आपके कर्मफल के सिद्धांत का सहारा लेते हैं। ये उनके लिए हैं जो कभी या किसी हालत में क्षमा योग्य नहीं हैं। इसलिए आप ईश्वर के दिव्य प्रेम की अनुभूतियों को समेटने की कोशिश करिये और उसी में रमकर होली मनाइये।