धर्म

ईश्वरानन्द गिरि ने अंतरराष्ट्रीय योग दिवस को ध्यान में रखते हुए योग में रुचि रखनेवाले लोगों के बीच से श्वास प्रविधियों, मानस-दर्शन व प्रतिज्ञापन के रहस्यों से उठाया पर्दा

अंतरराष्ट्रीय योग दिवस को देखते हुए रांची के योगदा सत्संग मठ में योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इंडिया की ओर से आज योग को विशेष उत्सव के रुप में मनाया गया। जिसमें भारी संख्या में योगदा से जुड़े संन्यासियों, योगदा भक्तों व योग में रुचि रखनेवाले विशिष्ट व्यक्तियों ने भाग लिया। इस अवसर योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इंडिया के वरिष्ठ संन्यासी स्वामी ईश्वरानन्द गिरि ने ध्यान के द्वारा आंतरिक प्रंशाति की खोज करें विषयक गोष्ठी को संबोधित किया।

इस गोष्ठी में उन्होंने ध्यान सत्र के दौरान श्वास प्रविधियों, मानस-दर्शन व प्रतिज्ञापन के वैशिष्ट्यता पर विशेष रुप से प्रकाश डाला, साथ ही व्यवहारिक ज्ञान देकर, ध्यान केन्द्र में उपस्थित सभी को ध्यान के मूल रहस्यों से परिचय कराया, जिसे पाकर वहां उपस्थित सभी लोगों ने ध्यान के महत्व को समझ, अपने जीवन और व्यक्तित्व को कैसे ईश्वर से जोड़े, उसे समझने की कोशिश करते हुए, स्वयं को सफल बनाने की कोशिश की।

स्वामी ईश्वरानन्द गिरि ने कहा कि ध्यान के कई चरण हैं। ध्यान को करने में कई बातों का ध्यान भी रखना पड़ता है। ध्यान किये बिना हम वास्तविक शांति व वास्तविक आनन्द को समझ ही नहीं सकते। उन्होंने कहा कि शास्त्र कहते हैं कि परमात्मा नित्य नवीन आनन्द है। जिसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। हम उसी परमात्मा के अंश है। हम उसी आनन्द से बने हैं। हमें ये जानने की जरुरत है।

उन्होंने कहा कि ये सही है कि आज की वर्तमान की भाग-दौड़ की जिंदगी में इसके लिए समय निकाल पाना मुश्किल है, लेकिन सच्चाई यह भी है कि इसके लिए समय आपको निकालना ही होगा, क्योंकि इसके बिना हम न तो शांति और न ही उस आनन्द को प्राप्त कर सकते हैं, जिसके लिए आपको जीवन मिला है। उन्होंने कहा कि परमहंस योगानन्द ने अपनी पुस्तक योगी कथामृत में इसका निचोड़ यही निकाला कि जब तक व्यक्ति स्वयं इसके लिए प्रयास नहीं करेगा, उसके अंतर्मन को शांति नहीं मिलेगी।

स्वामी ईश्वरानन्द गिरी ने कहा कि जब तक हम स्वयं ध्यान के अनुभवों को महसूस नहीं करेंगे, हम नहीं जान पायेंगे कि नित्य नवीन आनन्द क्या है? उन्होंने कहा कि मनुष्य का जीवन पेंडूलम की भांति कभी आगे-कभी पीछे झूल रहा होता है। उन्होंने कहा कि ऐसा नहीं कि ध्यान द्वारा मन को शांत कर लिये जाने के बाद मनुष्य निष्क्रिय हो जाता है, बल्कि होता तो यह है कि इसके द्वारा वो अपने कार्यों को और बेहद अच्छे तरीके से पूर्ण कर, वो जिसके लिए संसार में आया हैं, उसे भी पूर्ण कर रहा होता है।

उन्होंने कहा कि जो लोग सोचते हैं कि इस शांति को पैसे देकर बाहर की दुनिया की बाजारों से खरीद सकते हैं, उन्हें पता ही नहीं कि ये असंभव है। आप अपनी मन की शांति को आप अपने प्रयासों द्वारा वो भी ध्यान के द्वारा ही प्राप्त कर सकते हैं, ये बिल्कुल सरल व सहज है। इसमें कोई कठिनाई भी नहीं, बल्कि थोड़े प्रयास से ही यह संभव है।

स्वामी ईश्वरानन्द गिरि के अनुसार योग विज्ञान क्या है? इसका आधार क्या है? इसे हमें समझना होगा। उन्होंने कहा कि ध्यान करने के लिए आपको इसके विज्ञान को समझना होगा। शरीर को सही मुद्रा में रखना होगा। अगर आप ऐसा नहीं करेंगे तो आपका ध्यान कभी सही से नहीं होगा। उन्होंने कहा कि ध्यान को शुरु करने के पूर्व आपको अपने आराध्य या ईश्वर को आप निराकार के रुप में मानते हैं तो उसे ही अपने कूटस्थ पर रखकर उनका ध्यान करना होगा तथा उनसे आशीर्वाद लेने का प्रथम प्रयास करना होगा ताकि आप ध्यान करने में सफल हो सकें। आप नित्य नवीन आनन्द को महसूस कर सकें।

उन्होंने कहा कि मन और श्वास का एक दूसरे के साथ गहरा संबंध रहता है। आप देखेंगे कि जब मन अशांत रहता है तो श्वासें तेज चलती हैं, पर जब मन शांत रहता है तो श्वास का पता तक नहीं चल पाता। उन्होंने कहा कि लयबद्ध में जब हम श्वास लेते या छोड़ते हैं तो इसका मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। उन्होंने कहा कि याद रखिये शांति का गहरा स्रोत आपके शरीर के अंदर हैं न कि बाहर। उन्होंने यह भी कहा कि शांति व आनन्द ही आप का वास्तविक रुप है। हमें इसी ओर विशेष ध्यान देना है। हमें अपने भीतर ही प्रशांतता को अनुभव करना है।

ईश्वरानन्द गिरि ने मानस दर्शन की चर्चा करते हुए कहा कि मानस दर्शन दरअसल कल्पनाशीलता के प्रयोग है, जो एक आध्यात्मिक सत्य को अनुभव के दायरे में लाने का प्रयास करता है। उन्होंने कहा कि जो योगी जन हैं, सिद्ध जन हैं वे परमात्मा को सृष्टि के कण-कण में देखते हैं। समाधि की अवस्था में वे इसे महसूस करते हैं, क्योंकि समाधि की अवस्था में योगी की चेतना समस्त सृष्टि को अपने में समाहित करती है।

उन्होंने प्रतिज्ञापन की भी सुंदर व्याख्या की। उन्होंने बताया कि सत्य को बार-बार दुहराना, उस पर कायम रहना ही प्रतिज्ञापन है। यह धारणा चेतन मन से अवचेतन मन की ओर जाता है, जहां संस्कार घर बनाकर रहती है। यही हमें बुरी आदतों पर विजय दिलाता है। जो जितनी गहराई से प्रतिज्ञापन करते हैं, उनकी धारणा अवचेतन मन में और पुष्ट होती जाती है। उन्होंने कहा प्रतिज्ञापन एक चमत्कार की तरह होता है। इसी से हमारे संकल्प पूरे होते हैं।

यह एक मनोवैज्ञानिक विधि है। जिससे हम किसी विचारों को चेतन मन से अवचेतन मन की ओर ले जाते हैं। इसी से संपूर्ण व्यक्तित्व व संपूर्ण जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन होते हैं। उन्होंने कहा कि प्रतिज्ञापन अगर ईश्वर द्वारा प्रदत्त संत के द्वारा प्राप्त हो तो फिर क्या कहने, यह ऐसा प्रभावकारी होता है कि जीवन को ही बदलकर रख देता हैं। स्वामी ईश्वरानन्द गिरि ने इस दौरान ध्यान की प्रविधियों, मानस दर्शन और प्रतिज्ञापन की व्यवहारिक शिक्षाएं भी दी। जिसका सभी ने लाभ उठाया।

कार्यक्रम के अंत में स्वामी ईश्वरानन्द गिरि ने सभी से कहा कि केवल आप अपने लिये ही नहीं, बल्कि अन्य के शरीर, मन और आत्मा को स्वस्थ करने के लिये भी निरन्तर प्रार्थना अवश्य करें, क्योंकि एकाग्रता और इच्छाशक्ति के द्वारा हम योग साधना के माध्यम से ब्रह्मांडीय शक्ति के द्वारा संबंधित व्यक्तियों को उनके कल्याण के लिए अपनी प्रार्थनाओं को उन तक संप्रेषित कर सकते हैं। यहीं कारण है कि आज भी देश-विदेश के विभिन्न योग केन्द्रों में योगदा संन्यासियों का दल सभी के कल्याण के लिए विशेष प्रार्थनाओं का हर समय आयोजन करते हैं, ताकि सारे विश्व में किसी को भी कोई कष्ट न हो। सभी ईश्वरीय आनन्द से ओत-प्रोत हो।

इसके पूर्व योगदा सत्संग मठ में योगदा संन्यासियों ने भजन भी प्रस्तुत किया। जिस भजन सागर में सभी ने डूबकी लगाई। भजन के बोल थे – ‘शांति मंदिर में, शांति कुटीर में, तूझे मिलूंगा, तूझे छुउंगा, प्रेम करुंगा, तूझे लाउंगा, हृदय मंदिर में, समाधि मंदिर में, समाधि कुटीर में’। दुसरा भजन था –  ‘हरे राम, हरे राम, राम, राम हरे, हरे। हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण, हरे, हरे।’ तीसरा भजन था – ‘राधा-राधा, राधा गोविंद जय, नाचे साथ-साथ ब्रह्म और सृष्टि, जय-जय ब्रह्मा, जय-जय सृष्टि’।