क्रिया योग कोई तकनीक नहीं, बल्कि यह जीवन जीने का सरल, सहज व सुगम मार्ग है, जो हमें ईश्वर की ओर ले जाता है – स्वामी गोकुलानन्द
क्रिया योग कोई तकनीक नहीं, बल्कि यह जीवन जीने का सरल, सहज व सुगम मार्ग है, जो हमें ईश्वर की ओर ले जाता है। ये बातें आज योगदा सत्संग मठ में आयोजित रविवारीय सत्संग के दौरान योगदा भक्तों को संबोधित करते हुए स्वामी गोकुलानन्द गिरि ने कही। चूंकि आज का विषय निस्वार्थ पर केन्द्रित था। अतः गोकुलानन्द गिरि ने निस्वार्थ भाव को लेकर कई दृष्टांत योगदा भक्तों को प्रस्तुत किये और बताया कि निस्वार्थ भाव कैसे हमें बेहतर स्थिति में लाकर रख देता है।
उन्होंने कहा कि दुनिया में हर व्यक्ति अपनी गलती को छुपाकर स्वयं को सही ठहराने की कोशिश करता हैं। यह उसके स्वभाव में होता है। जो स्वार्थ को जन्म देता है। जबकि होना यह चाहिए कि बिना स्वार्थ के हमें सही बातों को सबके सामने रखना चाहिए, पर ये एक सामान्य व्यक्ति के लिए बहुत ही कठिन है। उन्होंने इस विषय को बेहतर ढंग से समझाने के लिए परमहंस योगानन्द द्वारा लिखित एक न्यायाधीश की कहानी सुनाई। जो प्रेरणादायक थी।
गोकुलानन्द गिरि ने कहा कि अगर स्वार्थ ईश्वर को पाने को लेकर हैं तो फिर क्या कहने और अगर स्वार्थ अपने अहं को तुष्ट करने के लिए हैं तो फिर समझ लीजिये कि आप कहां है? अच्छी चीजों को पाने की इच्छा हमें ईश्वर की ओर ले जाती है और बुरी चीजों को पाने की इच्छा हमें पतन की ओर ले जाती है।
उन्होंने प्रमाण के रुप में बताया कि एक बच्चे की जो भी आवश्यकता होती है। एक माता-पिता उसे बेहतर ढंग से पूरा करते है, पर वहीं बच्चा कभी दूसरे बच्चे के हाथों में प्राप्त चीजें, जिससे वो आनन्द प्राप्त कर रहा होता है, उसकी मांग कर बैठता हैं, उसके लिए वो हठ करने लगता है, जबकि माता-पिता जानते है कि उनके बच्चे को उस चीज की आवश्यकता नहीं है।
ठीक उसी प्रकार एक सामान्य व्यक्ति दूसरे के पास पाई जानेवाली भौतिक वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए नाना प्रकार के षडयंत्र करने लगता है, वो उन चीजों की डिमांड ईश्वर से करने लगता है, जबकि ईश्वर जानता है कि उसकी वो डिमांड उसके लिए सही नहीं। ऐसी भावनाएं हर सामान्य व्यक्तियों में होती हैं, जो उनके अंदर छुपे स्वार्थ को जन्म दे देती हैं।
गोकुलानन्द गिरि ने कहा कि होना तो ये चाहिए कि हमें बेकार की वस्तुओं को पाने की इच्छा का सर्वथा परित्याग करना चाहिए और जो महत्वपूर्ण चीजें हैं, सिर्फ उसी ओर ध्यान देना चाहिए। दूसरों को प्राप्त भौतिक वस्तुओं को देखने और उस पर ध्यान देने से सिर्फ दुख ही होता है, इसे गांठ बांध कर रख लेना चाहिए। उन्होंने कहा कि ध्यान रखें, स्वयं खाने से ज्यादा अच्छा बांटकर खाने से ज्यादा आनन्द मिलता है।
उन्होंने कहा कि स्वार्थी नहीं बनिये। आप दूसरों को देंगे तभी सभी आपको देंगे, अगर आप सभी से लेंगे तो सभी आपसे छीन लेंगे। यही ईश्वरीय कानून है। उन्होंने कहा कि कभी-कभी ईश्वर हमें दुख देते हैं। ताकि हम दूसरे के दुखों को जान सकें, उसका ऐहसास कर सकें। उन्होंने कहा कि याद रखें, हमारे देश में लोगों के बीच घर कर गये स्वार्थ और अहं के भाव ने ही हम भारतीयों को सैकड़ों वर्षों तक गुलाम बनाये रखा। अगर हमारे अंदर स्वार्थ और अहं का भाव नहीं होता, तो हम कभी विदेशियों के गुलाम नहीं होते।
उन्होंने परमहंस योगानन्द द्वारा रांची में स्थापित मठ के बारे में बताया कि परमहंस योगानन्द नहीं चाहते थे कि वे इस प्रकार के बंधन में बंधे। लेकिन एक दिन उनके गुरु युक्तेश्वर गिरि ने कहा कि ‘तुम चाहते हो कि तुम्हारे पास जो अमूल्य ज्ञान हैं, उसका लाभ तुम ही सिर्फ उठाओ और दूसरा कोई न उठाये, ये तो ठीक नहीं, क्या जो तुम्हार पास है, वो दूसरे को नहीं दोगे।’ परमहंस योगानन्दजी को अपने गुरु युक्तेश्वर गिरि की बात उनके दिल में घर कर गई। उन्होंने रांची में आश्रम खोल दिया। आज उसी का परिणाम हैं कि इससे अनगिनत लोग लाभान्वित हो रहे हैं। ये सिलसिला चलता जा रहा है।