खुद के लिये 700 रुपये से लेकर 1400 रुपये प्रति किलो की घी और भगवती के लिये लाते हो 170 रुपये प्रति किलोवाली घी और मां से अपने कल्याण की कामना भी करते हो, ये भला कैसे संभव है?
मेरा दिल टूट जाता है। जब मैं देखता हूं कि लोग स्वयं के लिये तो 700 रुपये से लेकर 1400 रुपये प्रति किलो तक बिकनेवाली घी खरीद लेते हैं, लेकिन जैसे ही पूजा की बात आती है। भगवती की आराधना की बात आती हैं तो वे ऐसी घी खरीदते हैं, जिसकी कीमत इतनी कम होती है, कि उतने में तो शुद्ध सरसो तेल तक नहीं मिलते। आश्चर्य यह भी है कि ऐसा करनेवाले वे लोग होते हैं, जिनको ईश्वर ने किसी चीज की कमी नहीं दी हैं।
इनको बाह्याडंबर में कहिये खर्च करने को तो इतना खर्च कर देंगे कि उसकी कोई सीमा नहीं, पर मां भगवती की आराधना में इनकी कंजूसी देखते ही बनती है। ऐसा मैं इसलिये कह/लिख रहा हूं कि मैंने बड़े से बड़े तथाकथित घरों में भी पूजा अर्चना कराई है और सामान्य घरों में भी। इनमें ज्यादातर घरों में यही देखने को मिला। जो हृदय को झकझोर देता है। जब लोगों को समझाने की कोशिश करते हैं, तब भी उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
ऐसे में तो मेरा पूरा परिवार एक तरह से देखा जाये तो सालों भर दुर्गा की आराधना करता है। मेरी पत्नी हो या बच्चे, जब तक दुर्गासप्तशती न पढ़ लें, वे एक बूंद जल तक ग्रहण नहीं करते। चाहे कितना भी समय क्यों न लग जाये। लेकिन पता नहीं शारदीय, वासंती व गुप्त नवरात्र के समय ऐसे भक्त कहां से उग आते हैं, जो मां की आराधना के नाम पर भी मां को धोखा देने में कोई कसर नहीं छोड़ते।
तीन दिन पहले की बात है। आनन्द श्रीवास्तव के यहां गया था। उन्होंने और उनकी भाभी ने मुझे दो हजार रुपये दिये और कहा कि सर, आप तो इस बार नवरात्र तो करेंगे ही, ये रुपये रखिये और इसे पूजा में खर्च कर दीजियेगा। मैंने कहा कि मेरा तो सालों भर नवरात्र चलता रहता है। यह सुनकर वे हंस दिये और कहा फिर भी इस नवरात्र में तो विशेष पूजा अर्चना करेंगे ही, तो आप उसमें इसे भी लगाइये।
मैंने सहर्ष दो हजार रुपये स्वीकार कर लिये। सायं काल के समय, मैं चुटिया के एक दुकान में गया और दुकानदार को कहा कि मां भगवती की आराधना के लिये घी दीजिये। दुकानदार से पूछा कि क्या कीमत होगी। उसने बताया – 170 रुपये। मैंने कहा कि इससे अच्छा दीजिये। फिर उसने दूसरा दिखाया और उसका कीमत 200 रुपये प्रतिकिलो बताया।
मैंने दुकानदार से कहा कि भाई मैं आपके यहां जब भी आता हूं तो आप हमें जो घी देते हैं उसकी एक किलो की कीमत 680 रुपये होती है। ये क्या दुर्गापूजा के अवसर पर घी बनानेवाली कंपनियों ने कुछ छूट दे दी हैं? उस दुकानदार ने कहा कि सर यहां पूजा के नाम पर यही सब घी इस्तेमाल होता है। यहां किसी को भी 680 रुपये वाली एक किलो घी दिखायेंगे तो वह दुसरे दुकान का रास्ता देखेगा। इसलिए हमारी मजबूरी है। हम कर ही क्या सकते हैं?
मैंने कहा कि अगर आपने बढ़िया घी, चाहे उसकी कीमत कितनी भी क्यों न हो, अगर नहीं दिखाया तो इसकी गारंटी जरुर है कि मैं आपके दुकान से प्रस्थान कर जाउंगा, क्योंकि मैं जब अपनी मां और अपने परिवार को बढ़िया घी खिलाने की कोशिश करता हूं तो जो जगतजननी है, उसके लिए ऐसी घटिया घी मैं क्यों खरीदूंगा।
मैं इतना शक्तिशाली नहीं कि मैं भगवती का कोपभाजन बनकर भी जी लूंगा। माफ करें, अगर अच्छी घी हो तो दीजिये, नहीं तो मैं चला। वह दुकानदार मेरा मुंह देखता रह गया और देखते रह गये वे लोग जो पूजा की सामग्री के नाम पर वैसे ही सामान खरीद रहे थे, जिसे एक सामान्य आदमी क्या पशु भी उसे देखना तक पसंद न करें।
कमाल है, ज्यादातर आप देखेंगे, जहां पूजा की सामग्रियां मिलती है। उसके स्टैंडर्ड बहुत खराब होते हैं। चाहे आप अरवा चावल जिसे अक्षत कहा जाता है। अक्षत का मतलब ही होता है, जो टूटा-फूटा न हो, क्षत-विक्षत न हो, पर देखेंगे कि पूजा के नाम पर घटिया अरवा चावल ही दुकानों से प्राप्त होते हैं। काला तिल तो ऐसा होता है कि उसे पानी में डाले तो पूरा काला तिल ही पानी में तैरने लगेगा। यही हाल कसैली की होती है। छोटे-छोटे सड़े हुए कसैली पूजा में ही इस्तेमाल होते हैं और आश्चर्य की भक्त लोग बड़े प्रेम से उसे खरीदते हैं और भगवान को अर्पण करते हैं। मैं सोचता हूं कि क्या इससे सचमुच मां प्रसन्न होगी।
क्योंकि इसी भारत में एक कथा है कि शबरी बेर को चखकर देखती थी कि बेर मीठे हैं या नहीं। जो मीठे होते थे, उसे प्रभु राम के लिए बड़े ही सुंदर भाव से रख लिया करती और खट्टे बेरों-स्वादहीन बेरों को फेंक दिया करती। यह उसकी रोज की दिनचर्या थी और लीजिये एक दिन ऐसा हुआ कि राम शबरी के घर आये और शबरी के जूठे बेर ही खाये।
मेरे बाबुजी जो अब जीवित नहीं हैं। वे बराबर रामकृष्ण परमहंस की कहानी सुनाया करते थे। एक दिन उन्होंने कहा था कि एक बार शारदा, मां काली के लिए भोग बनाई और रामकृष्ण बिना मां काली को भोग लगाये ही खाने लगे। शारदा भड़क गई कि बिना मां को भोग लगाये, उन्होंने भोग क्यों खाया। रामकृष्ण ने क्रोधित शारदा को यह कहकर शांत कराया कि वो तो यह देखना चाहते थे कि जो भोग बना है, वो मां के लिए उपयुक्त है या नहीं।
अब सवाल उठता है, जिस देश में इतने सुन्दर भाव वाले भगवान के भक्त हुए हो। उस देश मे ये अब कैसे भक्त पैदा ले रहे हैं? जो घटियास्तर के घी, घटिया स्तर की पूजन सामग्री, यहां तक की घटियास्तर के वस्त्र भी मां को अर्पण कर देते हैं। यह देखकर जगतजननी कितनी दुखी होती होगी। वो क्या सोचती होगी, जिन्हें हमनें सब कुछ दिया, जो मेरी ही कृपा से आनन्दित होते हैं, उनके दिलों में उन्हें अर्पण करने के लिए बस यही सब बचा रह गया है।
बंधुओं, मैंने यह सब ऐसे ही नहीं लिख दिया हैं। मैं भी कई जगहों पर पूजा अर्चना कराया हूं। कराता रहता हूं। लेकिन जो स्थितियां देखी हैं। उससे मन भर जाता हैं। इस बार तो कुछ ऐसा हो गया कि मन रो गया। भगवान सब को सद्बुद्धि दें कि वे भी स्वयं की तरह मां को समझें, जैसा उन्हें जो चीजें अच्छी लगती हैं, वे समझे कि मां को भी वहीं पसन्द हैं, तभी मां की कृपा बरसेगी, नहीं तो निः संदेह आप मां के कोपभाजन से नहीं बचेंगे। यह ध्रुव सत्य है।