बाल कोना

ज्ञानेश और उसके दादाजी, धनतेरस का मेला व असली दीपावली का रहस्य

दस वर्षीय ज्ञानेश आज दादाजी के साथ धनतेरस का मेला देखने गया था। धनतेरस के मेले में लोगों की भारी भीड़ देख वो आश्चर्यचकित था। सोने-चांदी के दुकान हो या कार या मोटरसाइकिल की दुकान, बर्तनों के सामान हो या विलासिता संबंधी वस्तुओं की दुकान सभी जगह भारी भीड़ थी। जिन रास्तों से सामान्य दिनों में उसे चलने में कोई कठिनाई नहीं होती थी, उन रास्तों में लोग चीटियों की भांति ससर रहे थे।

सभी के चेहरे खुशियों से भरे थे। कोई कार खरीद रहा था तो कोई मोटरसाइकिल, कोई सोने-चांदी पर टूट रहा था तो कोई विलासिता संबंधी वस्तुओं पर, पैसों की कोई कमी नहीं थी, लोग एटीएम कार्ड निकाल दुकानदार को देते, दुकान अपनी मनचाही रकम उसमें डालता और अपने एकाउंट में ट्रांसफर करा लेता। किसी को कोई दिक्कत नहीं थी। सभी उमंग में थे। सभी को लग रहा था कि जो चीजें वो खरीद रहा हैं, बस उसी में खुशियां छुपी है।

किसी की पत्नियां खुश इसलिए थी कि पति उसके शरीर पर सोने चांदी डाल रहा था। कुछ लड़के व लड़कियां इसलिए खुश थे कि उनके मम्पी-पापा ने उनके लिए मनचाही वाहन खरीद कर उन्हें दे चुके थे। मंदिरों में इन चारपहिये व दुपहिये वाहनों की पूजा के लिए भी लंबी लाइन लगी थी। ज्ञानेश ये सब देखकर भौचक्का था। भौचक्का होने का मूल कारण उसकी शिक्षा-दीक्षा व उसका परिवार था। वो बराबर दादाजी से यही श्लोक सुनकर बड़ा हो रहा था। उसके दादाजी बराबर यही कहा करते थे।

अधमाः धनम् इच्छन्ति। धन मानं च मध्यमा।

उत्तमाः मानमिच्छन्ति। मानो हि महतां धनम्।।

लेकिन ये क्या, यहां तो सभी मान-सम्मान को श्रद्धांजलि देकर विलासिता संबंधी वस्तुओं में ही सुख ढूंढ रहे थे। ज्ञानेश ने तुरन्त अपने दादाजी से पूछ डाला। दादाजी- आप ये बताइये आप तो बराबर श्लोक बोलकर मुझे और दीदी सरिता को बताया करते है कि जो ‘दुष्ट होते हैं, वे धन की कामना करते हैं, जो मध्यम वर्गीय होते हैं वे धन और मान दोनों की कामना करते हैं, लेकिन जो उत्तम व्यक्ति होते हैं, वे सिर्फ सम्मान की कामना करते हैं, क्योंकि उनके लिए धन नहीं, बल्कि सम्मान ही सब कुछ हैं।’ तो ऐसे में आज जो यह धन का मेला लगा हैं और उस मेले में जो लोग आये हैं, आखिर वे सब क्या हैं?

दादाजी, अपने पोते ज्ञानेश की ये बात सुनकर सन्न रह गये थे, क्योंकि उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि पोता उन्हें ऐसा भी प्रश्न करेगा जिसका जवाब वे दे नहीं पायेंगे, क्योंकि दादाजी जिस उम्र में थे और पोता जिस उम्र में था। वहां एक उम्र का बहुत बड़ा अंतर था। दादाजी का जब बचपन गुजरा था तो उस वक्त सामाजिक परिस्थिति ऐसी नहीं थी, आज काफी बदल चुकी है। वो वक्त सामाजिक व मानवीय मूल्यों का था, आज का वक्त सामाजिक व मानवीय मूल्यों का न होकर, केवल धनाश्रित मूल्यों का हैं।

कल का बेटा (राम) अपने पिता (दशरथ) की बातों का मान रखने के लिए जंगल चला गया था। कल के बेटे (गणेश) को अपने माता-पिता (शिव-पार्वती) में ही तीनों त्रिलोक दिखाई देता था, पर आज के बेटे वैसे नहीं हैं। आज के बेटे-बेटियां अपने तर्क व स्वहित की कसौटी पर बातों को तौलते हुए किसी कर्म को करने मे विश्वास रखते हैं। कल की मां (यशोदा) अपने बालक (कृष्ण) के मुख में मिट्टी देखने के बहाने पूरा ब्रह्मांड देख लिया करती थी, पर आज न तो वैसी मां हैं और न वैसा बेटा। हर जगह ह्रास हुआ है। वो ह्रास का परिदृश्य धनतेरस के मेले पर हावी था। जो ज्ञानेश के भोले मन को प्रभावित कर रहा था।

जब दादाजी ने ज्ञानेश की सवालों का जवाब नहीं दिया, तो ज्ञानेश ने दादाजी से कह डाला। दादाजी मैं जानता हूं कि आप जवाब क्यों नहीं दे रहे। दादाजी ने ज्ञानेश से सहजता से पूछा – तुम्हें क्या पता? वो इसलिए कि आपके पिताजी ने आपको यह बताया और आपने अपनी जिंदगी को इस श्लोकों के सहारे शानदार ढंग से अपने जीवन को जीया और पापा को भी मैं देखता हूं कि आपसे कोई किन्तु-परन्तु या तर्क-वितर्क नहीं करते। आपकी हर बातों को सत्य समझकर उसी में आनन्द ढूंढ लेते हैं, तभी तो अपना घर औरों के घर से कुछ अलग ही दिखता है।

दादाजी, ज्ञानेश की बातों को सुनकर आश्चर्यचकित थे। दस वर्ष के बालक में इतनी बुद्धिमत्ता। वे इसे ईश्वरीय कृपा मान रहे थे। ज्ञानेश की दादी की आदत थी, वो जब सोने जाती तो ज्ञानेश और उसकी बहन सरिता को अपने पास सुलाती और रामायण व महाभारत की कथा सुनाते-सुनाते कब पोते-पोती के संग दादी की आंख लग जाती, पता ही नहीं चलता।

ज्ञानेश जब धनतेरस का मेला देख रहा था तो दादाजी ने ज्ञानेश से पूछा कि तुम्हें कुछ इस मेले में नहीं लेना। ज्ञानेश ने दादाजी को कहा, क्या लेना दादाजी। वो हर चीज तो अपने पास और अपने घर में हैं, जो हमें होना चाहिए। बेकार की चीजों को लेकर, जब हम अपने घर जायेंगे तो वही चीजें हमारे उपर शासन करने लगेंगी। वो याद है न, बगल वाले भइया के घर में कार आया है। वो कार कितनी चलती है, वो तो आपको भी पता है।

लेकिन कार की सेवा में उनके घर के लोग बराबर लगे रहते हैं। मतलब, होना तो ये चाहिए था कि वे कार को अपनी सेवा में लगाये रहते, पर चूंकि उसकी तो उपयोगिता उस घर में न के बराबर हैं, लेकिन दुनिया को दिखाने के लिए उन सभी ने कार तो ले लिये, पर कार खुद ही उनसे अपनी सेवा ले रहा हैं। ज्ञानेश ने दादाजी से कहा कि दादाजी आप भी तो पापाजी को कहते रहते है कि चीजें वहीं लेनी चाहिए, जो जरुरी हो, जो जरुरी नहीं हैं, उसे लेने से तो वहीं चीजें हम पर राज करनी शुरु कर देती हैं, जो दुख का कारण बनता है।

अगर किसी को कार की जरुरत हो तो वो लेता हैं तो बात कुछ और हैं, पर जिसे उसकी जरुरत ही नहीं, तो वो कार तो उसके घर का क्षेत्रफल भी छेंकेगा, उस घर में रहनेवाले लोगों से अपनी सेवा भी करायेगा और समय-समय पर खराब होने पर आर्थिक क्षति दिलवायेगा सो अलग। ज्ञानेश की ये बात सुनकर, दादाजी को गर्व महसूस हो रहा था। उन्हें लग रहा था कि उनके बेटे-बहू के साथ-साथ उनके पोते-पोतियां भी जीवन जीने के मूल-मंत्र को अंगीकार कर चुके हैं।

इधर घर लौटते समय, सभी के पास कुछ न कुछ था, लेकिन ज्ञानेश और दादाजी के पास तो कुछ भी नहीं था। घर लौटने के क्रम में पड़ोसी प्रमोद ओझा मिल गये। ज्ञानेश के दादाजी और प्रमोद ओझा में एक-दूसरे से अभिवादन हुआ और अभिवादन के पश्चात ही प्रमोद ओझा ने ज्ञानेश के दादाजी से पूछ डाला – इस बार धनतेरस में आपने क्या लिया। ज्ञानेश के दादाजी ने उत्तर दिया – वहीं हमेशा की तरह कुछ भी नहीं, क्योंकि उन्हें बाजार में ऐसी चीजें दिखी ही नहीं, जो उनके घर के लिए हितकारी हो। प्रमोद ओझा ने कहा कि ऐसा थोड़े ही होता है। धनतेरस में कुछ न कुछ लेना चाहिए। इससे लक्ष्मी प्रसन्न होती है।

ज्ञानेश ने कहा – माफ कीजिये, छोटे दादाजी (प्रमोद ओझा, चूंकि ज्ञानेश के दादाजी के समान थे, इसलिए ज्ञानेश ने उन्हें छोटे दादाजी कहकर संबोधित किया था) तब तो मैं देख रहा हूं कि आप के घर में तो अब दो-दो कार हो गई, एक तो पिछले साल आपने ली थी और दूसरा इस साल ले ली। अब तो लक्ष्मी जी दो-दो कार पर बैठकर आपके घर से निकलेंगी, क्यों ठीक है न।

प्रमोद ओझा, छोटे से बालक ज्ञानेश के इस बात को सुनकर हैरान रह गये। उन्हें कुछ सुझा नहीं कि वे इसका उत्तर क्या दें। तभी ज्ञानेश ने कहा – छोटे दादाजी, हमारे शास्त्रों में धन की प्रधानता है, पर कैसी धन की? क्या जिससे विलासिता हो। हमारे यहां तो कहा गया है कि – ‘धन गया कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया कुछ गया पर चरित्र चला गया तो सब कुछ चला गया।’

हमारे यहां चरित्र रुपी धन को संवारने पर ज्यादा जोर डाला गया है। हमारे यहां स्वास्थ्य को भी धन माना गया है। इसलिए आज के दिन त्रयोदशी को धनतेरस के रुप में नहीं, स्वास्थ्य रुपी धन को समझने और उसे बेहतर करने के लिए धनवन्तरि यानी आयुर्वेद के अधिष्ठाता को स्मरण करने का दिन है, पर आप और दुनिया कर क्या रही है। जो उनके घर में धन हैं, उस धन को बड़े-बड़े पूंजीपतियों के यहां बड़े शौक से रख आ रही हैं और वहां से विलासिता संबंधी वस्तुओं को लेकर उसमें सुख ढूंढ रही हैं। क्या सुख उसी में वास करता है?

ज्ञानेश के दादाजी, ज्ञानेश के मुंह से ये सारी बातें सुनकर हतप्रभ थे। प्रमोद ओझा को भी लगा कि यह दसवर्षीय बालक सही कह रहा है। धन तो सिर्फ माध्यम हैं। सुख तो ईश्वर आधीन है। वो अगर चाहेगा तो प्राप्त होगा, नहीं तो नहीं। दशरथ जी और अयोध्यावासियों के पास क्या नहीं था, पर जब राम उनके यहां से निकल गये तो उनके पास सब कुछ रहने के बाद भी कुछ नहीं था। दशरथ तो मृत्यु को प्राप्त हो गये, अयोध्या श्मशान सा दिखने लगी और वही राम, जब 14 वर्ष के बाद फिर अयोध्या लौटे तो फिर वहीं आनन्द वहीं दीपावली सभी के घर आंगन में पधारकर सुख देने लगी।