जनता को जानने का हक, 24 घंटे बीत गये राज्यपाल बताएं कि राज्य में सरकार किसकी? कार्यवाहक मुख्यमंत्री की, राज्यपाल की या किसी की नहीं?
कौन कहता है कि हमारे देश में संविधान बड़ा है। सही बात तो यह है कि इस देश में व्यक्ति विशेष बड़ा है। उसका निर्णय बड़ा है, उसकी जुबान से निकली बाते बड़ी है, चाहे वो बातें गलत ही क्यों न हो। जरा देखिये न। कल की घटना है। ईडी ने मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन को गिरफ्तार कर लिया। मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन ने राज्य के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।
इधर चम्पई सोरेन ने उसी वक्त सरकार बनाने का दावा भी पेश कर दिया। आज फिर चम्पई सोरेन जाकर राज्यपाल से मिले और सरकार बनाने का फिर दावा पेश किया। क्योंकि 47 विधायकों का समर्थन उन्हें प्राप्त हैं। फिर भी राज्यपाल सीपी राधाकृष्णन ने उन्हें सरकार बनाने के लिए समाचार लिखे जाने तक आमंत्रित नहीं किया है। इसी बीच 24 घंटे से अधिक का समय बीत चुका है। मतलब राज्य में सरकार किसकी है, आम जनता को पता ही नहीं है।
जो लोग संविधान को जानते हैं, वो यही कह रहे हैं कि जब तक सरकार का गठन नहीं हो जाता, राज्य में कार्यवाहक मुख्यमंत्री ही काम कर रहा होता है। परन्तु यहां के राज्यपाल ने इसकी व्यवस्था ही नहीं की और संविधान की अवहेलना कर दी। बिना सरकार के भारत का कोई राज्य चल ही नहीं सकता, ऐसी व्यवस्था भारतीय गणतंत्र व संविधान में कर दी गई है।
अगर सरकार नहीं थी तो कम से कम अब तक यहां राष्ट्रपति शासन या गवर्नर रुल की अधिसूचना जारी हो जानी चाहिए थी। बिना किसी इस तरह के अधिसूचना के राज्यपाल मुख्य सचिव या पुलिस महानिदेशक को लगातार निर्देशित कर रहे हैं, यह भी गैर-कानूनी है और संविधान में वर्णित धाराओं के प्रतिकूल भी।
इधर मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने भी अपनी ओर से सरकार बनाने का दावा पेश नहीं किया है। अगर वो भी दावा कर देती तो एक तरह से राज्य की जनता को यह पता लग जाता कि राज्यपाल इसलिए संशय की स्थिति में हैं कि आखिर सरकार बनाने के लिए किसको आमंत्रित करें, पर इसके बावजूद भी राज्य में संशय की स्थिति रखना, सरकार बनाने के लिए चम्पई सोरेन को नहीं आमंत्रित करना, साफ बताता है कि इसके लिए दोषी कौन है?
24 घंटे बीत जाने के बाद भी राज्य में सरकार न बन पाने की अनिर्णय की स्थिति बता रही है कि खुद राज्यपाल सीपी राधाकृष्णन चाहते है कि राज्य में अनिर्णय की स्थिति बहाल रहे। केन्द्र की सरकार भी चाहती है कि यहां अनिर्णय की स्थिति रहे। राज्य में वो हो, जो वो चाहे, वो नहीं कि जो संविधान चाहे।
राजनीतिक पंडितों की मानें तो अगर हेमन्त सोरेन किसी मामले में दोषी हैं तो, वे तो गिरफ्तार हो गये। मामला अगर हेमन्त सोरेन तक था तो फिर उनकी गिरफ्तारी के बाद मामला सलट जाना चाहिए था। परन्तु इसके बावजूद भी सत्तापक्ष को बहुमत है, उसके बाद भी उन्हें सरकार बनाने का निमंत्रण राज्यपाल द्वारा नहीं देना, बताता है कि केन्द्र सरकार चाहती है कि यहां प्रत्यक्ष नहीं, तो अप्रत्यक्ष रुप से ही कुछ महीनों के लिए उसका शासन हो ताकि फिर कुछ न कुछ प्रपंच कर बिहार या महाराष्ट्र की तरह यहां भी अपना दाल गला लिया जाये।
लेकिन हमें नहीं लगता कि ऐसा यहां संभव हो पायेगा। भाजपा की इस गलतफहमी को दूर करने के लिए सत्तापक्ष के विधायकों को हैदराबाद भेजने का फैसला एक तरह से झामुमो और सत्तापक्ष के अन्य दलों ने ठीक ही किया, नहीं तो जो यहां स्थितियां बनाई जा रही हैं, वो बताने के लिए काफी है कि यहां येन केन् प्रकारेण भाजपा की सरकार बनाने के लिए अब सारे प्रपंच गढ़े जा रहे हैं। नहीं तो, बिहार की तर्ज पर अब तक सरकार का गठन हो जाना चाहिए था।
जबकि सबसे ज्यादा संशय की स्थिति वहीं थी। बिहार का प्रमुख दल फिलहाल राष्ट्रीय जनता दल ही है न कि जदयू। लेकिन राजद से बिना परामर्श लिये, बिहार के राज्यपाल ने अपने निर्णय जो केन्द्र का ही निर्णय था, उसे जमीन पर उतरवा दिया और आनन-फानन में राज्यपाल द्वारा नीतीश कुमार को बिहार का नौंवी बार मुख्यमंत्री बना दिया गया।
लेकिन यहां क्या हो रहा है? राज्यपाल और केन्द्र दोनों जानते है कि सत्तापक्ष के पास बहुमत है। फिर भी वे बहुमत का सम्मान न कर, अंत अंत तक भाजपा की सरकार या जैसे भी हो अपनी सरकार जो राष्ट्रपति शासन के रुप में हो, कायम हो। इसके लिये दांव-पेच लगा रहे हैं। अगर यही स्थिति रही, तो भले ही यहां के राज्यपाल सीपी राधाकृष्णन कितने भी सालों तक राज्यपाल क्यों न रहे।
पर उन्हें झारखण्ड की जनता इस कालखण्ड के लिए कभी उन्हें माफ नहीं करेगी, उन्हें हमेशा संदेह के नजर से देखेंगी। यह कहकर कि उन्होंने राज्यपाल रहते हुए संविधान को महत्व न देकर, केन्द्र की ओर टकटकी लगाकर देखते रहे कि उनका आदेश कब और क्या आता है? हालांकि इसकी शुरुआत हो चुकी है और इसके लिए जिम्मेवार खुद राज्यपाल है।