तीसरी पुण्यतिथि पर विशेषः बेचारा धोखा दिया तो क्या हुआ, जरुर उसकी कुछ मजबूरियां होगी, ऐसा स्वभाव था मेरे मित्र अरुण श्रीवास्तव का, जिसने दुख दिया, उसी के घर खुशियां बिखेर दीं
आज मेरे परम मित्र अरुण श्रीवास्तव जी की तीसरी पुण्यतिथि है। मैं इस अवसर पर उन्हें अपनी भावभीनी श्रद्धाजंलि अर्पित करता हूं। जब भी तीन मई आता है। मेरे हृदय को विदीर्ण कर देता है। उसके कई कारण भी हैं। मैंने अपने जीवन में कई लोगों को देखा है। जो कई तरह के जीवन जीते हैं। लेकिन अरुण श्रीवास्तव जी के लिए मेरे लिये ये शब्द कभी हो ही नहीं सकते।
वे तो बराबर हमसे यही कहां करते। मैं तो अपने उन श्रमिक भाइयों के परिवारों के लिए जीता हूं। जो मेरे उपर टिके हैं, जिनकी आशाएं व विश्वास उन पर टिकी है। उनके ये कथन इस विश्वास और गहराई लिये होते कि मैं उनके इन शब्दों का प्रतिकार या प्रतिवाद करने की स्थिति में नहीं रहता। जब वे बहुत ही कम उम्र में स्वर्ग सिधारे।
तब मुझे किसी के ये कथन अब विश्वसनीय सी लगते हैं कि ईश्वर उन लोगों को अपने पास जरा जल्दी बुलाता है, जो सही मायनों में बहुत ही अच्छे व मानवीय गुणों को लेकर चलनेवाले होते हैं। अगर आप ध्यान में विश्वास करते हैं तो आप अपने ध्यान में इन वाक्याशों पर जरा जोर डालियेगा। आप खुद इन शब्दों पर विश्वास करने लगेंगे।
अरुण श्रीवास्तव के पास जब समय बहुत कम थे। तो मैं उनसे बात करने की कई बार कोशिश की। लेकिन बात नहीं हो सकी। एक सप्ताह पहले उनसे जब बातचीत की कोशिश की, तो उन्होंने किसी से कहलवाया कि जब वे ठीक हो जायेंगे तो फिर बातचीत करेंगे। अभी बातचीत करने की स्थिति में नहीं हैं। लेकिन ईश्वर को कुछ और मंजूर था। वे सदा के लिए दुनिया को अलविदा कर चुके थे। बातचीत कभी नहीं हो पाई।
सीधे उनसे मुलाकात चिरनिद्रा में सोये चित्ता पर हुई। मैं उनसे शिकायत भी नहीं कर सकता था। गहरी निद्रा में सोये अपने मित्र को कैसे जगा सकता था? इतनी ताकत तो मुझमे कभी हो ही नहीं पायेगी। मैं इतना विकल कभी नहीं हुआ था। जितना उस दिन था। विकलता के कारण थे। ऐसा व्यक्ति दुनिया छोड़ चुका था। जो जिंदादिल था।
जो जीने की परिभाषा जानता था। जो उनलोगों के लिए जीना चाहता था, जो जीने का तरीका भूल चुके थे। एक घटना बताता हूं। कोरोना का समय था। अचानक लॉकडाउन की खबरें समाज में तैरने लगी। लोग बाजार से जरुरत के सामान खरीदकर संग्रह करने लगे। भीड़ ऐसी थी कि एक-एक दुकान में लंबी-लंबी लाइन लगनी शुरु हो गई थी और सामान भी गायब होने लगे थे।
अचानक एक ने अरुण श्रीवास्तव को आवाज दी। अरुण जी, हमारे घर में तो कोई आदमी ही नहीं है कि सामान ला भी सकें। अरुण जी ने बिना किसी किन्तु-परन्तु के व्यवस्था करा दी। यही नहीं कितनों के उस दौरान स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराई और जब उनकी स्वास्थ्य सेवाएं बिगड़ी तो उनके पास उनके अपने परिवार के अलावा और कोई नहीं था। यहां तक की हम भी नहीं थे। मतलब मैं कितना स्वार्थी था।
जबकि वे जब भी मिलते तो बराबर यही कहां करते। सर बहुत दिन हो गया। समर्पण का भाव जग रहा है। कुछ हो जाये और लीजिये पकड़कर पास के किसी अच्छे खाने-पीनेवाले होटलों में ले जाते और बिना कुछ खिलाये रहते ही नहीं थे। इनका हमेशा का ये स्वभाव था। हालांकि वे जानते थे कि मैं किसी का भी कुछ भी चीजें ग्रहण नहीं करता।
लेकिन पता नहीं क्या, उनका स्वभाव था या उनकी बातों को रखने का ढंग, कभी मेरे मुंह से ना नहीं निकला। आज भी जब कभी उनके प्रतिष्ठान जाने का अवसर मिलता है, तो मैं उनके चित्र के पास कुछ पल के लिए ठहरता हूं। सिर्फ और सिर्फ कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए कि आपकी इस कृतज्ञता का मूल्य कभी आपका ये मित्र नहीं चुका सकता।
ऐसे भी अरुण श्रीवास्तव के हमारे उपर काफी उपकार रहे हैं। मेरे घर बनाने में उन्होंने काफी कर्ज दिये थे। वो भी बिना किसी किन्तु-परन्तु के, केवल एक बात पर, ये जानते हुए कि मैं उनका ये उधार नहीं चुका सकता। क्योंकि बड़ी रकम थी। हमारे बहुत सारे राजनीतिज्ञों व प्रशासनिक अधिकारियों से बड़े ही मधुर संबंध रहे हैं। कई से कर्ज हमने मांगी। सभी ने कहां देंगे।
लेकिन किसी ने नहीं दिये। हमारी मदद नहीं की। शायद, वे यह समझते हो कि एक पत्रकार कहां से इतनी बड़ी राशि लौटायेगा। वो भी एक नंबर का सनकी। जिसकी किसी से पटती ही नहीं। लेकिन किसी ने मदद का हाथ नहीं बढ़ाया। लेकिन मेरे मित्र अरुण श्रीवास्तव ने एक नहीं दो-दो बार मदद की। ऐसे मित्र द्वारा किये गये उपकार को मैं भूल जाउं तो मेरे जैसा कृतघ्न कौन होगा?
कई लोगों ने उन्हें धोखे भी दिये। लेकिन उन्होंने किसी को धोखे नहीं दिये। बराबर हमेशा यही कहते कि बेचारा क्या करेगा? कुछ उसकी मजबूरियां होंगी। वे कभी अपने मित्र को दुखी देखना नहीं चाहते, चाहे उनका वो मित्र, उन्हें कितना भी बड़ा कष्ट क्यों न दिया हो। ऐसे अरुण श्रीवास्तव जी को उनकी तीसरी पुण्य तिथि पर मेरी ओर से बारम्बार नमन।