धर्म

देवघर में कष्टमय यात्रा करके तीर्थ करना बंद करिये और मेला घुमते रहिये

क्या राज्य सरकार बतायेगी?

  • झारखण्ड के देवघर में बाबा वैद्यनाथ के रुप में विराजमान भगवान रावणेश्वर महादेव ज्योतिर्लिंग का लोग स्पर्श करने आते है, पूजन करने आते है, उनका दर्शन करने आते है, या मेला घुमने आते है?
  • बिहार के सुलतानगंज से करीब 105 किलोमीटर की कष्टमय पैदल यात्रा करते हुए लोग, बाबा वैद्यनाथ के द्वार पर पहुंच कर जलाभिषेक करने के लिए आते है या मौज मस्ती करने के लिए, मेला घुमने के लिए आते है?
  • ऐसा इसलिए पूछ रहा हूं कि आज के सभी अखबारों में राज्य सरकार के पर्यटन विभाग ने प्रथम पृष्ठ पर विज्ञापन प्रकाशित किया है, जिसमें लिखा है कि आज मुख्यमंत्री रघुवर दास श्रावणी मेला का उद्घाटन करेंगे।
  • क्या जो लोग, जम्मूतवी मां वैष्णो देवी की यात्रा या अन्य तीर्थ स्थानों पर जाते है, वे वहां मेला घुमने जाते है?
  • क्या भारत में जो द्वादश ज्योतिर्लिंग है, जिनमें से एक देवघर के रावणेश्वर महादेव भी आते है, इस देवघर को छोड़कर अन्य जगहों पर जो ज्योतिर्लिंग है, वहां पर भी भर श्रावण मेला लगता है क्या? और उस मेले में भी जाने के लिए कांवड़ियां, पैदल कई किलोमीटर की कष्टकारक यात्रा करते है? गर नहीं, तो इस झारखण्ड में, इस तप, इस पूजन और इस श्रद्धा को मेला कहकर, उनकी श्रद्धा और आस्था के साथ खिलवाड़ क्यों किया जा रहा?
  • जब सरकार इसे स्वयं श्रावणी मेला कहती है तो ऐसे हालात में बाबा वैद्यनाथ धाम वासुकिनाथ तीर्थ क्षेत्र विकास प्राधिकार नाम क्यों रखा गया, इसमें मेला शब्द क्यों नहीं जोड़ा गया?

आखिर इतनी गड़बड़ियां क्यों?

चूंकि इस राज्य में एक से एक कनफूंकवे पैदा हो गये है, इधर इन कनफूंकवों की मदद से महान ब्रांडिंग लखटकिया वाले बाबा सीएम और सरकार की ब्रांडिंग करने के लिए पहुंच गये। मकसद इनका इतना ही है, राज्य भाड़ में जाये, राज्य की संस्कृति भाड़ में जाये, उनका धंधा इन कनफूंकवों की मदद से चलती रहे, थोड़ा वो खाये, थोड़ा हम भी खाये और दिन-दुनिया, ऐश-मौज चलती रहे, क्योंकि झारखण्डी तो महामूर्ख होते है, और हम कनफूंकवे और ब्रांडिंग करनेवाले बहुत दिमाग वाले…

तो लीजिये तीर्थ करना बंद करिये और मेला घुमते रहिये, क्योंकि यहां तो लोग मेला घूमने आते है, बाबा वैद्यनाथ का दर्शन-पूजन तो कोई मायने ही नहीं रखता। कमाल है, इस राज्य के लिए गर्व की बात है कि यहां वैद्यनाथ है, जो योगी के रुप में विद्यमान है। जहां नेपाल, भूटान, बांगलादेश आदि दूसरे देशों से तथा भारत के कोने-कोने से शिवभक्तों का सालों भर तांता लगा रहता है, और ये मूर्खों की जमात, इसे मेला से ज्यादा कुछ समझ ही नहीं रही, इसे और क्या कहा जाये? ये केवल इस सरकार का दोष नहीं, यह हमेशा से चला आ रहा है, अगर हमेशा से चला आ रहा है, तो इसे सुधारेगा कौन? किसकी जिम्मेवारी है?

एक सवाल मुख्यमंत्री रघुवर दास से भी

जब यहां मेला लगता है, तो फिर आप हाथ जोड़ें किसके पास बैठे थे? कहां श्रद्धावनत् थे? मेले में या भगवान वैद्यनाथ के पास? मुख्यमंत्री रघुवर दास जी, समझने की कोशिश कीजिये। कुछ नया कीजिये, अपने राज्य का सम्मान बढ़ाइये, भगवान शिव और उनके भक्तों को मेले में कोई रुचि नहीं होती, रुचि सिर्फ होती है भगवान शिव को जल चढ़ाने और उन्हें स्पर्श करने में, जैसे ही वह जल चढ़ा लेता है, वह स्वयं को भाग्यवान समझता है। अपने घर को संदेश देता है कि बस जल चढ़ा लिया, और अब घर लौट रहे है। इसी दौरान वह फिर यहां से 46 किलोमीटर दूर वासुकिनाथ की भी यात्रा करता है और स्वयं को धन्य करता है, जरा कभी भक्तों के नेत्रों को देखियेगा तो पता चलेगा, ये धन के लूटेरें और कनफूंकवे कब से जानने लगे कि भक्ति क्या चीज होती है?

आज कमाल यह भी दिखा कि पर्यटन विभाग ने एक नया वाक्यांश जोड़ा है – प्रकृति का छिपा गहना, इसका मतलब क्या होता है?  अरे मूर्खों, प्रकृति कुछ नहीं छुपाती, क्या लोगों को वैद्यनाथधाम और वासुकिनाथ के बारे में नहीं पता? शिवपुराण में तो इसकी इतनी महिमा गायी गई है कि इसी की कृपा से बाबा वैद्यनाथ के भक्तों को पता है कि  असली वैद्यनाथ यहीं है, नहीं तो लोग परल्यां वैद्यनाथ कहकर, महाराष्ट्र के परली के वैद्यनाथ चले जाते, इसलिए अपना बुद्धि लोग अपने पास रखे और विज्ञापन के नाम पर किसी को उल्लू न बनाये और न ही इसे मेला कहकर, श्रावणी मेला कहकर इतने बड़े तीर्थ का अपमान करें, शिवभक्तों की भक्ति को मेला का नाम न दें, नहीं तो शिव ने जिस दिन तीसरा नेत्र खोला, तो समझ लीजिये आपका मेला कहां जायेगा? क्योंकि भगवान शिव भी नहीं चाहेंगे कि उनके भक्तों को लोग, मेला में आया हुआ कहकर अपमानित करें।