चार दिवसीय साधना संगम का योगदा सत्संग आश्रम में हुआ समापन, स्वामी स्मरणानन्द गिरी ने श्रीमद्भभगवद्गीता में वर्णित सांख्य योग के आधार पर आत्मा की प्रकृति, स्वभाव व स्वरूप से योगदा भक्तों को परिचय कराया
रांची के योगदा सत्संग आश्रम में पिछले चार दिनों से चल रहा साधना संगम का आज समापन हो गया। देश के विभिन्न कोनों से आये योगदा भक्तों ने इस साधना संगम में भाग लेकर अपनी क्रियायोग साधना को और उच्चतम स्थिति में ले जाने के लिए विशेष साधनाएं की। जिसमें योगदा सत्संग से जुड़े अनेक संन्यासियों ने उनकी इस साधना को और उच्चावस्था में ले जाने में विशेष मदद की।
साधना संगम के इस समापन अवसर को योगदा सत्संग आश्रम से जुड़े स्वामी स्मरणानन्द गिरि ने संबोधित किया। स्वामी स्मरणानन्द ने आत्मा की प्रकृति, उसके स्वभाव और उसके स्वरूप की विशेष चर्चा की। इस चर्चा के दौरान उन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता के सांख्य योग में वर्णित श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद को विशेष रूप से रखा। उन्होंने आत्मा की प्रकृति को समझाने के लिए कई दृष्टांत योगदा भक्तों के बीच रखें। जो अविस्मरणीय थे।
स्वामी स्मरणानन्द गिरि ने श्रीमद्भगवद्गीता के कई श्लोकों को योगदा भक्तों के बीच रखने के क्रम में आत्मा को केन्द्र में रखकर एक बहुत ही सुंदर भजन योगदा भक्तों के बीच रखा, जिसके बोल थे – न जन्म, न मृत्यु, न जाति कोई मेरी, पिता, न कोई माता मेरी। शिवोSहम् शिवोSहम् शिवोSहम् केवल आत्मा, शिवोSहम्… प्रस्तुत किये, जिसे योगदा भक्तों ने भी स्वर देकर पूरे ध्यान केन्द्र को आनन्दमय बना दिया। इस सुन्दर भजन का आशय ही था कि कि आत्मा का न तो जन्म होता है और न ही उसकी मृत्यु होती है। न तो उसका कोई पिता है और न ही उसकी कोई माता। हम शरीर नहीं, बल्कि अपने आप में एक ऐसी आत्मा है, जिसका जुड़ाव सीधे ईश्वर से हैं।
उन्होंने कहा कि अर्जुन से जो कृष्ण ने कहा वो हमेशा याद रखें कि न तो कभी ऐसा हुआ है कि किसी काल में हमलोग नहीं थे या ऐसा भी नहीं कि आगे नहीं रहेंगे। जैसे इस शरीर में बचपन, युवावस्था और वृद्धावस्था होती है, ठीक उसी प्रकार अन्य शरीर की प्राप्ति होती रहती है। इसको लेकर जो साधक होता हैं, वो न तो शरीर पर मोहित होता है और न ही उसके लिए कभी कोई चिन्ता करता है।
उन्होंने कहा कि अपने शरीर के माध्यम से जो भी हम कुछ अनुभव करते हैं। उसका मूल कारण होता है कि हम उसको लेकर सहनशील नहीं हैं। बहुत सारे ऐसे लोग हैं, जो सहनशील हैं, इस कारण उनको कोई दुख या सुख प्रभावित नहीं करता और वे दोनों अवस्थाओं में समान होते हैं। उन्होंने कहा कि हमें बिना किसी सहायता के और बिना किसी चिन्ता के या किसी कष्ट के सभी दुखों का सहन करने की भावना को अपने आप में जिसे हम तितिक्षा कहते हैं, उस तितिक्षा को जागृत करना चाहिए। अर्थात् हमें शारीरिक और मानसिक दोनों तरीकों से हमें अपने आप को मजबूत करना सीखना चाहिए, और ये तभी होगा, जब हम ध्यान की गहराइयों में जायेंगे।
उन्होंने साफ कहा कि जो भी व्यक्ति साधना करता है, गहरे ध्यान में जाता हैं। उसे सुख व दुख प्रभावित नहीं करते। वे दोनों अवस्थाओं में समान रहते हैं। उन्हें कोई भौतिक सुख न तो प्रभावित करता है और न ही कोई मानसिक परेशानी ही तबाही की ओर ले जाती हैं और जो इस प्रकार हैं, वे ही मोक्ष/निर्वाण के योग्य होते हैं। सामान्य व्यक्ति कभी मोक्ष/निर्वाण को प्राप्त नहीं कर सकता।