और अब ‘पद्मावती’ के बाद ‘लक्ष्मीबाई’ के नाम पर देश को आग में झोंकने की कोशिश
बिहार के वरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र किशोर ने सोशल साइट पर कुछ सवाल उठाये हैं, ये सवाल सामयिक है, और इस पर उन सब को ध्यान देना चाहिए, जो अपने इतिहास, महापुरुषों, विदुषी महिलाओं पर गर्व करते हैं, उनके लिए नहीं जो अपने ही महापुरुषों और देश की विदुषी महिलाओं में दोष ढुंढते हो। इन दिनों मुंबई की फिल्मी दुनिया में एक नये समाज का प्रार्दुभाव हुआ है, जो देश के लिए मर-मिटनेवालों के चरित्र पर अंगूलियां उठा रही है, और आश्चर्य यह हो रहा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर उन्हें ये सब करने की छूट भी मिल जा रही हैं तथा बड़ी संख्या में उन्हें समर्थक भी मिल जा रहे है।
एक समय था, जब फिल्मी दुनिया में पं. प्रदीप जैसे गीतकार थे, जिन्होंने राजस्थान की वीरता पर फिल्म जागृति में एक अंतरा ही बनाया था, याद करिये, बोल थे –
ये हैं अपना राजपुताना, नाज इसे तलवारों पे, इसने सारा जीवन काटा बर्छी तीर कटारो पे
ये प्रताप का वतन पला है, आजादी के नारों पे, कुद पड़ी थी यहां हजारो पद्मिनियां अंगारों पे
बोल रही है, कण-कण से कुर्बानी राजस्थान की, इस मिट्टी से तिलक करो ये धरती है बलिदान की..
वंदे मातरम्, वंदे मातरम्, वंदे मातरम्, वंदे मातरम्
आज तो ये स्थिति है कि वंदे मातरम् से भी भारतीयों को चिढ़ हो गई और जो वंदे मातरम् बोलने में शर्म महसूस करते हैं, उनको समर्थन देनेवालों की संख्या भी उन्हीं की तरह करोड़ो में हैं, साथ ही राजस्थान की वीरता के इतिहास को आज की फिल्मी दुनिया पद्मावती के नाम पर जनता के सामने तोड़-मरोड़ कर पेश करती है, और जब इसका लोग प्रतिरोध करते है, तब कांट-छांट कर इसे फिल्मी पर्दें पर यह कहकर प्रदर्शित किया जाता है, इसमें तो ऐसा कहीं कुछ था ही नहीं, जबकि विदेशों में जो भी लोग फिल्म देख रहे हैं, वे कह रहे हैं कि जिन बिन्दुओं को लेकर भारत में विरोध हुआ, वह तो विदेशों में पुरी तरह दिखाये जा रहे हैं।
एक समय था जब झांसी की रानी लक्ष्मीबाई पर खुब फिल्में बनी, और चली भी, उस फिल्म के सहारे लोगों ने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को याद किया तथा उन्हें श्रद्धांजलि दी। सुप्रसिद्ध कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान तो उनकी वीरता पर एक कविता भी लिखी, जिसे शायद ही कोई भारतीय हो, जो पढ़ा न हो, जरा देखिये, सुभद्रा कुमारी चौहान को, जो कहती है –
अंग्रेजों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी, खुब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।
ऐसा नहीं कि केवल सुभद्रा कुमारी चौहान ने ही लक्ष्मीबाई की यशोगाथा का बखान किया, ऐसे कई फिल्मकार और धारावाहिक निर्माता हुए, जिन्होंने लक्ष्मीबाई की कीर्ति को जनता तक पहुंचाने में अपनी सर्वश्रेष्ठ भूमिका निभाई। पर लक्ष्मीबाई के नाम पर, जिस ओर सुरेन्द्र किशोर ने इशारा किया, वह बेहद ही शर्मनाक है। सुरेन्द्र किशोर ने अपने सोशल साइट पर जो लिखा है, वह इस प्रकार है –
सर्व ब्राह्मण महासभा के अध्यक्ष सुरेश मिश्र ने लक्ष्मी बाई के जीवन पर निर्माणाधीन फिल्म का विरोध किया है। उनका आरोप है कि फिल्म में लक्ष्मी बाई को एक अंग्रेज की प्रेमिका दिखाया जा रहा है। वीरांगना लक्ष्मीबाई के जीवन को इस तरह दिखाना सचमुच आपत्तिजनक है। ब्राह्मण समाज ही नहीं बल्कि अन्य समाजों को भी इसका विरोध करना चाहिए।
लक्ष्मीबाई के बलिदान और बहादुरी से इस देश के हजारों लोग प्रेरणा लेते हैं। उनकी छवि खराब करोगे तो लोग किससे प्रेरणा लेंगे ? पर हमारे कुछ फिल्म निर्मातागण हमारे शौर्य, आस्था और बलिदान के प्रतीकों को एक -एक करके ध्वस्त करने पर तुले रहते हैं। जाने-अनजाने वे उन विदेशी व भारत विरोधी तत्वों के हाथों खेल रहे हैं जो आजादी के बाद से ही यह कोशिश कर रहे हैं कि इस देश को विचार मुक्त और गौरव मुक्त बना दिया जाए ताकि विदेशी विचारों व धार्मिक आस्थाओं के प्रचार-प्रसार में उन्हें सुविधा हो।
ब्राह्मण सभा ने विरोध किया है तभी कई लोगों को पता चला है कि लक्ष्मीबाई ब्राह्मण परिवार से थीं। अन्यथा यह देश उन्हें सिर्फ स्वतंत्रता प्रेमी व बलिदानी महिला के रूप में जानता रहा है। जिस तरह पद्मावती @पद्मावत के विरोध का जिम्मा सिर्फ कर्णी सेना पर छोड़ दिया गया, वैसा लक्ष्मी बाई को लेकर नहीं होना चाहिए।
अन्यथा ऐसे तत्व ही ताकतवर होते जाएंगे जो ‘बांटो और राज करो’ में विश्वास करते हैं।
गत नवंबर में जावेद अख्तर ने कहा था कि इतिहास में यह कहीं नहीं मिलता कि जोधाबाई नाम से अकबर की कोई पत्नी थी। अख्तर के अनुसार यह तो मुगल ए आजम फिल्म के कथा लेखक की कल्पना थी। यदि यह सच है तो कल्पना कीजिए कि किस तरह मुगल ए आजम के जरिए नाहक राजपूतों के स्वाभिमान को धक्का पहुंचाया गया। उसके बाद कैसे-कैसे प्रचार हुए ? किस तरह कुछ लोग राजपूतों का जिक्र होने पर महाराणा प्रताप के बदले मान सिंह का नाम ले लेते है।
सुरेन्द्र किशोर की बातों में शत प्रतिशत सच्चाई है। भारत सरकार को चाहिए कि ऐसे हालात में जब फिल्मी दुनिया में सिर्फ पैसे की लालच में आकर, जब लोग भारत के इतिहास और यहां के महापुरुषों के सम्मान से खेलने की कोशिश करें तो ऐसे लोगों पर अंकुश लगाने के लिए कठोर दंडात्मक कार्रवाई जैसे कानून का प्रावधान आवश्यक हो गया है, क्योंकि किसी भी देश का इतिहास व उसके महापुरुष स्वाभिमान हैं, और इन घटियास्तर के फिल्मकारों को उनके सम्मान से खेलने की इजाजत किसी को नहीं दी जा सकती।
जो देश में जातीय संगठन है, उन्हें भी चाहिए कि जब कभी किसी महापुरुष या महिला के सम्मान से खेलने की कोशिश करें तो उन्हें सबक सिखाने के लिए सभी एक हो जाये, नहीं तो फूट डालो शासन करो की प्रवृति, हमें कहीं का नहीं छोड़ेगी। बिहार के वरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र किशोर समय-समय पर सोशल साइट पर बहुत ही अच्छी-अच्छी बातें उठाते रहते है, उन्हें इसके लिए साधुवाद भी देना चाहिए।
ये खतरे की घण्टी हमारे भारत वर्ष पर लटक रही है..फिल्मी जगत के कुछ लोग घटिया स्तर के प्रोपेगेंडा और महापुरुषों के नाम को बेचकर अपनी तिजोरी भरने का फार्मूला चला रहे हैं जिसे हमलोगों को समझना एवम जातिधर्म से ऊपर उठकर अपनी चुप्पी तोड़कर राष्ट्रधर्म का निर्वहन करते हुए ,ऐसे कुकृत्यों का पुरजोर विरोध करना चाहिए,अन्यथा आप अपनी भावी पीढ़ी को चोर लम्पट घटिया दलाल और मुरखबिद्वानों के समाज मे धकेलने का कसम कर राष्ट्रद्रोह के पाप का टॉप ही अर्जित करेंगे।।
जय हिन्द जय जय नारायण