इच्छा मृत्यु के बावजूद भी जीवात्मा को परमानन्द की प्राप्ति हो जाय, इसकी गारंटी नहीं
सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में शुक्रवार को कह दिया कि गरिमा के साथ मौत एक मौलिक अधिकार है। इसके साथ ही निष्क्रिय इच्छा मृत्यु व लिविंग विल को कानूनी रुप से वैध ठहरा दिया। न्यायालय ने कहा कि असाध्य बीमारी (कोमा में जा चुके या मौत की कगार पर) से ग्रस्त व्यक्ति के लिए निष्क्रिय इच्छा मृत्यु और इच्छा मृत्यु के लिए लिखी गई वसीयत शर्तों के साथ कानूनी रुप से मान्य होगी, यानी ऐसा मरीज अब इच्छा पत्र लिखकर चिकित्सकों को उसके जीवन रक्षक उपकरण हटाने को कह सकता है, इस संबंध में दिशा निर्देश जारी करते हुए न्यायालय ने कहा कि जब तक सरकार कानून बना नहीं लेती, तब तक यह आदेश लागू रहेगा।
अब ऐसे में सवाल उठता है कि सर्वोच्च न्यायालय ने एक व्यक्ति को माना क्या हैं? एक शरीर या शरीर के अंदर रहनेवाली आत्मा? अगर शरीर माना है, तो स्पष्ट है कि शरीर का आत्मा के बिना कोई अस्तित्व ही नहीं, और अगर आत्मा है तो स्पष्ट है कि हमें हर हाल में अपने कर्मों का भोग भोगना है, चाहे उसके लिए हमें कितना ही जन्म लेना क्यों न पड़ें, क्योंकि कमाई अपनी हैं, तो भुगतना स्वयं को है।
क्या सर्वोच्च न्यायालय को लगता है कि इच्छा मृत्यु प्राप्त कर लेने के बाद, वह व्यक्ति जिसे इच्छा मृत्यु दी गई, उसका कष्ट समाप्त हो गया, हमें तो नहीं लगता, क्योंकि फिर वह जब नया जन्म लेगा, तो उसे अपने बकाये कर्मों के फलों का भुगतान उसे ही करना है, ऐसे में क्यों नहीं जो हमें प्राप्त हो रहा हैं, उसे इसी जन्म में पूर्णतः समाप्त कर लें कि बकाये का झंझट ही न हो।
अगर हम भारतीय है, तो भारतीय वांग्मय व संस्कृति में अनेक ग्रंथ, भाष्य व उपनिषद है, जो बताते है कि प्रत्येक जीवात्मा को उसके किये गये कर्मों-फलों के आधार पर जीवन प्राप्त होता हैं, और उसके कर्मफल ही उसके जीवन को तय करते है कि वह अपने इस जीवन में कितना सुख पायेगा, या कितना दुख पायेगा, ऐसे में केवल उसके शारीरिक कष्ट को देखकर उसे इच्छा मृत्यु के हवाले कर देना, और फिर यह सोच लेना कि उसका कष्ट समाप्त हो गया, हमारे विचार से ये सत्य नहीं हैं।
दुनिया में बहुत सारे लोग हैं, जो जन्म से ही सुखी होते है, और कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो जन्म से ही दुखी होते हैं, या कुछ लोग ऐसे भी होते है कि कुछ दिनों तक सुख पाया और फिर दुख के सहारे ही उनका जीवन समाप्त हो गया अथवा जीवन के पूर्वार्द्ध में दुख पाया और फिर जीवन के उतरार्द्ध में सुख पाया। आखिर ऐसा क्यों होता है? इसका अर्थ है कि जीवात्मा ने पूर्व जन्म अथवा इस जन्म में ऐसे कर्म किये है, जिसका फल उसके सामने हैं, जिसका वह उपभोग कर रहा हैं।
सर्वोच्च न्यायालय को भारतीय ग्रंथों, उपनिषदों, महाकाव्यों में उल्लिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए कि भारतीय धर्मों में तीन प्रकार के रोग बताये गये हैं – आध्यात्मिक, मानसिक व शारीरिक। शारीरिक रोग को तो आधुनिक चिकित्सक दूर कर सकते हैं, मानसिक रोगों को भी कुछ-कुछ दूर कर सकते हैं, पर आध्यात्मिक रोगों का उपचार किन डाक्टरों के पास हैं, और वे कैसे इसका इलाज कर सकते हैं? मैं प्रमाण के साथ कह सकता हूं कि अपने जीवन में ऐसे-ऐसे प्राणघातक बीमारियों से लड़ते हुए लोगों को देखा हूं, जिनके सामने डाक्टरों ने हाथ जोड़ लिया, फिर भी वे बाद में पूर्णतः ऐसे ठीक हो गये, जैसे लगता है कि उन्हें कभी रोग हुआ ही नहीं था।
भारतीय धर्म में स्पष्ट है कि प्रत्येक जीवात्मा को उसके पूर्ण आयु तक जीने का अधिकार हैं, और उसे पूर्ण प्राप्त फलों को भोग भोगना है, चाहे वह सुख के फल हो या दुख के, अगर किसी कारणों से उसका शरीर उन फलों को प्राप्त करने में असमर्थ रहा, तो ऐसे हालात में उसे पुनः शरीर धारण करना पडेगा, वह तब तक जीवन धारण करता रहेगा, जब तक उसके सारे किये कर्मों के फल पूर्णतः भोग नहीं लिये जाते।
एक प्रमाण, स्वामी विवेकानन्द के गुरु रामकृष्ण परमहंस को गले में भयंकर बीमारी हो गई, वे अपने गले से भोजन नीचे तक नहीं ले जा रहे थे, भयंकर पीड़ा से असहज होने के बावजूद रामकृष्ण परमहंस को इसकी कभी चिंता नही हुई, जबकि विवेकानन्द ने रामकृष्ण परमहंस की पीड़ा को भांपते हुए उनसे कहा कि गुरु जी आप मां से प्रार्थना क्यों नहीं करते कि वो आपकी इस पीड़ा को हर लें, रामकृष्ण परमहंस कहते है कि, भाई नरेन्द्र, क्या मां को मालूम नहीं कि उनके बेटे रामकृष्ण को बहुत कष्ट है, अरे जो हमने किया है, उस फल को किन्तु-परन्तु या क्षमा से दूर नहीं किया जा सकता, इसे स्वयं भुगतना हैं, इसलिए जो हो रहा है, उसे होने दो, रही बात गले से भोजन उतरने की, तो मैं और भक्तों के गले से निवाला ग्रहण कर लूंगा, इसकी चिंता तुम क्यों करते हो? रामकृष्ण परमहंस और नरेन्द्र (स्वामी विवेकान्द) का यह संवाद बहुत कुछ कह देता है।