राजनीति

दलितों और आदिवासियों पर हो रहे अत्याचार से क्षुब्ध शिबू सोरेन राष्ट्रपति से मिले, ज्ञापन सौंपा

झारखण्ड मुक्ति मोर्चा का एक प्रतिनिधिमंडल झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन के नेतृत्व में राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द से मिला। प्रतिनिधिमंडल ने इस दौरान राष्ट्रपति को एक ज्ञापन भी सौंपा। जिसमें अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम 1989 के मूल स्वरुप को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए अध्यादेश लाने का निर्देश केन्द्र सरकार को देने एवं झारखण्ड सरकार द्वारा केन्द्र सरकार की आपत्ति के बावजूद दुबारा भूमि अर्जन पुनर्वासन और पुनर्व्यवस्थापन में उचित प्रतिकार और पारदर्शिता का अधिकार (झारखण्ड संशोधन) विधेयक 2017 को बिना सहमति प्रदान किये वापस करने का राष्ट्रपति से अनुरोध किया गया है।

ज्ञापन में इस बात को उद्धृत किया गया है कि अनुसूचित जाति-अनुसूचित जन-जाति अत्याचार निरोधक अधिनियम 1989 के संदर्भ में आये हालिया न्यायिक दिशा निर्देशों से देश के दलित एवं आदिवासी समुदायों में आशंका, असुरक्षा की भावना, असंतोष एवं आक्रोश व्याप्त हैं। 2 अप्रैल को भारत बंद के दौरान इस आक्रोश की तीव्रता एवं इसके संभावित परिणामों को पूरे देश ने देखा। भारत बंद के दौरान उत्तर प्रदेश में मां के आंचल में छिपे दलित बेटे को घर से घसीट कर सड़कों पर पुलिस द्वारा पीटा गया। रांची के सड़कों पर आदिवासी एवं दलित बेटियों पर बर्बर तरीके से लाठियां बरसाई गई। मध्य प्रदेश में सात दलित शहीद हुए। राजस्थान एवं बिहार में भी दलित मारे गये।

विधि व्यवस्था के नाम पर देश के सामंती ताकतों ने सिद्धू-कान्हू, बिरसा मुंडा एवं अम्बेदकर के वंशजों पर कातिलाना हमला किया। निहत्थे दलितों एवं आदिवासियों पर पूरे देश में शासन तंत्र ने अपनी शक्ति का निर्मम प्रयोग किया। दलितों एवं आदिवासियों के प्रति शासन के असंवेदनशील एवं क्रुरता के नग्न नृत्य का ऐसा कोई उदाहरण स्वतंत्र भारत के इतिहास में नहीं है। स्वतंत्र  भारत में पहली बार आदिवासी एवं दलित स्वयं को इतना असहाय, असुरक्षित एवं भयभीत महसुस कर रहा है। इन समुदायों की हितों की रक्षा के लिए बने संवैधानिक एवं वैधानिक सुरक्षा कवचों पर लगातार हमले हो रहे हैं। इस विकट परिस्थिति में प्रतिनिधिमंडल ने राष्ट्रपति से हस्तक्षेप की मांग की।

प्रतिनिधिमंडल ने ज्ञापन के माध्यम से कहा कि झारखण्ड में वर्तमान राज्य सरकार द्वारा आदिवासियों एवं मूलवासियों के सामाजिक-आर्थिक परिवेश, परंपरा एवं आधारों को नष्ट करने के लिए सुनियोजित ढंग से षडयंत्र चलाया जा रहा है, जो राज्य हित में ठीक नहीं। ज्ञापन में कहा गया है कि सर्वप्रथम झारखण्ड राज्य के मूलवासियों एवं आदिवासियों के जमीन को हड़पने के लिए सीएनटी/एसपीटी अधिनियमों को बदलने का प्रयास किया गया। सरकार के इस प्रयास का झारखण्ड के मूलवासियों एवं आदिवासियों ने कड़ा विरोध किया और इस विरोध एवं जन आंदोलन को देखते हुए एवं जन भावनाओं को सम्मान करते हुए राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू ने विधेयक को बिना स्वीकृति के सरकार को वापस कर दिया।

अपने  उस प्रयास में असफल  रहने के बाद सरकार ने आदिवासियों एवं मूलवासियों की जमीन  हड़पने तथा उसे पूंजीपतियों को देने के लिए इस बार भूमि अर्जन, पुनर्वासन और पुर्नव्यवस्थापन में उचित प्रतिकार और पारदर्शिता का अधिकार (झारखण्ड संशोधन) विधेयक 2017 झारखण्ड विधानसभा से संख्या बल के आधार पर पारित कराकर केन्द्र सरकार को सहमति हेतु भेजा था। इस संशोधन विधेयक में मुख्यतः केन्द्र सरकार के भूमि अधिग्रहण नियम 2013 के उन प्रावधानों को समाप्त करने का प्रस्ताव दिया गया है, जिसके द्वारा रैयतों के अधिकार एवं सामाजिक, आर्थिक संरचना संरक्षित है।  

संदर्भित संशोधन विधेयक में भूमि अधिग्रहण मे रैयतों की सहमति की अनिवार्यता एवं सामाजिक अंकेक्षण के प्रावधानों को झारखण्ड के संदर्भ में समाप्त करने का प्रावधान किया गया है। साथ ही, इस संशोधन में कृषि योग्य भूमि के अधिग्रहण का भी प्रावधान किया गया है। साथ ही सभी संशोधनों को 01.01.2014 से प्रभावी करने का प्रस्ताव है। इसे न्यायिक समीक्षा से भी परे रखने का प्रस्ताव किया गया है। भूतलक्षित प्रभाव से इसे लागू करने का प्रयास तथा न्यायिक समीक्षा से बाहर रखने का प्रावधान पूर्व में लुटी गई आदिवासियों के जमीन को विनियमित करने तथा रैयतों एवं आदिवासी समुदाय को संवैधानिक संरक्षण से वंचित करने के एक बड़े षडयंत्र की ओर इशारा करता है। यह एक बेहद चिन्तनीय हालात है, तथा वंचित वर्ग के चुनौतियों को और भी गंभीर बनाता है। इतिहास के इस बेहद नाजुक पडाव पर देश का आदिवासी एवं दलित समाज राष्ट्रपति से उपर्युक्त दोनों मामलों में प्रभावी हस्तक्षेप का अनुरोध करता है।