जब न्यायालय गलत करें, तो ‘गांधी’ और ‘तिलक’ की तरह उसका विरोध करें, सच दिखाएं
जमाने बाद मालूम हुआ आज, एडिटर्स गिल्ड जिन्दा है। उसने मुजफ्फरपुर मास-रेप की रिपोर्टिंग पर पटना हाई कोर्ट के प्रतिबन्ध की आलोचना की है। होना तो ये चाहिए कि भारत में न्यायपालिका और न्यायाधीशों को मिले विशेषाधिकारों की रिव्यू हो। अगर न्यायाधीश गलती करे तो आप उसके खिलाफ कुछ नहीं बोल सकते, भला क्यों? सवाल है अगर गलती करे तो?
महात्मा गांधी ने कभी अंग्रेजों के अन्याय के खिलाफ सविनय अवज्ञा आन्दोलन चलाया था, प्रेस को चाहिए कि वह न्यायालयों के अन्यायपूर्ण आदेशों के खिलाफ वैसे ही अवज्ञा करे। हम न्यायालय का सम्मान करते हैं लेकिन न्यायालय को भी अपनी लाज रक्षा करनी चाहिए। अगर न्याय और सच जानने के अधिकार की रक्षा के लिए प्रेस को न्यायालय की अवज्ञा करनी पड़े, तो करनी चाहिए और बाल गंगाधर तिलक की तरह उसकी सजा भुगतने को तैयार भी होना चाहिए।
प्रेस की अंतरआत्मा अगर कहती है कि कोई सच बाहर आना चाहिए तो भले ही वह उच्चतम न्यायालय के जज के खिलाफ हो और भले उसके लिए फांसी या कालापानी हो जाए, प्रेस को हिचकना नहीं चाहिए। मेरे साथ भी न्यायालय ने अन्याय किया और मैं पूरा किस्सा बताऊंगा. मुझे परवाह नहीं कि इसके लिए मुझे अवमानना की क्या सजा होगी। पहला ठोस मामला है, दीनानाथ बैठा का, जिसके दोनों पैरों की दसो उँगलियों के नाखून राबड़ी देवी के मंत्री ललित यादव ने उखाड़ लिए थे – अपना ट्रक चुराने के संदेह में।
मंत्री के सरकारी आवास में पंद्रह दिनों से बंद बैठा को पुलिस ने जी न्यूज रिपोर्टर श्रीकांत प्रत्यूष और अन्य पत्रकारों की पहल पर बरामद किया। मंत्री फरार हो गए। फिर हटाए गए। कुछ ही महीने केस चला और अदालत में खुद विक्टिम ने गवाही दे दी कि उसके दसों नाखून मंत्री ने नहीं उखाड़े, वे ठेस लगने से उखड गए। जाहिर था और स्वाभाविक था कि विक्टिम डर और दबाव में सच नहीं बोल रहा था। ऐसे में न्यायालय का क्या फर्ज था? सच तक पहुंचना या बस एक दबाव में दिए गए झूठे बयान पर आरोपी को रिहा कर देना? जज साहब ने रिहा कर दिया।
आपने पेड़ की गवाही की कहानी सुनी होगी। सैकड़ों साल पहले भी जज अपनी बुद्धि सच जानने के लिए काम में लाया करते थे। उस मामले में न्यायालय की लापरवाही के खिलाफ हमने etv में ख़बरें चलाईं, लेकिन जज महोदय ने अपनी अवमानना का कोई नोटिस हमे नहीं दिया, चूँकि हमारे सवाल और आरोप ठोस थे। अगर आपके पास ठोस आरोप हैं, सबूतों के साथ हैं तो कोई भी न्यायपालिका कुछ बिगाड़ नहीं सकती और बिगाड़ना ही है तो बिगाड़े, कोई परवाह नहीं, क्योंकि कहा गया है…
निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु, लक्ष्मी समाविशतु “गच्छतु वा यथेष्टम्।
अद्यैव मरणं भवतु, युगान्तरे वा, न्यायात् पथः प्रविचलन्ति पदम् न धीराः।।
अर्थात्, विद्वान लोग भी निंदा करें या स्तुति, लक्ष्मी आवें या जहाँ चाहें चली जाएं, मरना आज पड़े या युगों बाद – धीर पुरुष वही है जिसके कदम न्याय के पथ से कभी विचलित नहीं होते।
(जीवन में नैतिक मूल्यों के लिए समर्पित वरिष्ठ पत्रकार श्री गुंजन सिन्हा जी के फेसबुक वॉल से साभार)