आओ हल्ला करें, शोर करें, चीखे-चिल्लाये यह कहकर कि आज ‘हिन्दी दिवस’ है
आज अखबारों में राज्य सरकारों के विज्ञापन छपे हैं, उनके द्वारा बताया जा रहा है कि आज 14 सितम्बर है, हिन्दी दिवस है, आइये हम हिन्दी को और मजबूत करें, उसको प्रतिष्ठित करें। यहीं काम केन्द्र सरकार ने कर रखा है। कई राज्यों में इस दौरान हिन्दी पखवाड़ा, तो कही हिन्दी सप्ताह मनाया जाने लगता है और जैसे ही सितम्बर का महीना गायब हुआ, ये सारे बैनर-पोस्टर, अखबारों के कटिंग कहां जाते हैं, समझ में ही नहीं आता, इसीलिए, हमने इस आलेख का शीर्षक ही दे दिया, आओ हल्ला करें, शोर करें, यह कहकर कि आज ‘हिन्दी दिवस’ है।
दरअसल हमारे देश में, जो खुद को शिखर पर मानते हैं, उनमें से 99 प्रतिशत लोग दोहरे चरित्र के है, जब वे जमीन पर होते हैं, तो उन्हें हिन्दी नजर आती हैं, और जैसे ही ये अपने क्षेत्र में शिखर पर होते हैं, उन्हें अंग्रेजी की व्यापकता, उसकी विशालता, उसके समृद्ध इतिहास पर उनकी नजरें जाकर टिक जाती हैं। उसका उदाहरण आप देखिये, भारत के न्यायालयों चाहे वह सुप्रीम कोर्ट हो या हाईकोर्ट या निचली अदालत, क्या बता सकते हैं कि यहां किस भाषा में काम-काज होते हैं?
अब आप आइये संसद, क्या कोई बता सकता है कि लोकसभा व राज्यसभा इनदोंनों में सर्वाधिक किस भाषा का उपयोग होता है?
क्या कोई बता सकता है कि जिस अटल बिहारी वाजपेयी का नाम बड़े ही गर्व से हिन्दी भाषा को प्रतिष्ठित करने के लिए लिया जाता है कि उन्होंने संयुक्त राष्ट्र में पहली बार हिन्दी में भाषण दिया, वे ही अटल बिहारी वाजपेयी भारत में ही प्रधानमंत्री बनने के बाद दिल्ली में फिक्की के एक कार्यक्रम में किस भाषा में अपनी बातें रख रहे थे?
क्या कोई बता सकता है कि जिन अभिनेता-अभिनेत्रियों, फिल्म निर्माताओं व निर्देशकों की हिन्दी फिल्में करोड़ों में खेल रही होती हैं, वे जब प्रेस कांफ्रेस कर रहे होते हैं तो वे किस भाषा में अपनी बातें रखते हैं?
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के ही शिखर पर बैठे नेता को किस भाषा में अपनी बात रखने में ज्यादा सहूलियत होती है?
ये कुछ प्रश्न हैं, जो झकझोरते हैं भारतीय जन मानस को, हिन्दी प्रेमियों को, कि कैसे दोहरे चरित्र के लोग भारत में ही रहकर भारतीय भाषाओं का अपमान करने का एक भी मौका नहीं छोड़ते। सच्चाई यह है कि इस देश में संसद से लेकर सड़क तक जिन्हें आप नेता मानते हैं, जिन्हें आप भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी मानते हैं, जिन्हें आप न्यायाधीश या अधिवक्ता कहते हैं, जिन्हें आप भाग्य विधाता मानते हैं, दरअसल इन्होंने ही हिन्दी को सर्वाधिक नुकसान पहुंचाया हैं।
जिस कारण भारत में रहनेवाले लोगों में हीनता की भावना आ गई, उन्हें लगता है कि बड़े-बड़े लोग (हालांकि ये बड़े नहीं होते, ज्यादातर चरित्रहीन होते हैं) जो प्रमुख स्थानों पर अपने देश की भाषा में बात न कर, अंग्रेजी में बात करते हैं, ये बहुत ही तेजस्वी लोग होते हैं, हालांकि सच पूछिये तो इनकी अंग्रेजी, दोयम दर्जे की होती हैं, नहीं तो विदेशों में छपनेवाले अंग्रेजी अखबारों की प्रतियां थमा दीजिये, या साहित्य थमा दीजिये, ये बगले झांकते मिलेंगे।
भारत के हिन्दी के सही दुश्मन यहीं लोग हैं, जो प्रतिदिन हिन्दी का नुकसान पहुंचाते हैं और 14 सित्मबर को हिन्दी-हिन्दी कहकर चिल्लाने लगते हैं। सच्चाई यह है कि हिन्दी को अगर किसी ने बचाया हैं तो वह भारत में रह रहा, मिट्टी से जुड़ा किसान, मजदूर, छोटे-छोटे कारोबारी, भारत सरकार या राज्य सरकार के कार्यालयों मे कार्यरत थर्ड व फोर्थ ग्रेड का कर्मचारी हैं, जिनकी बोलचाल की भाषा आज भी हिन्दी है, जबकि तथाकथित जो इलिट वर्ग हैं, जरा उसके घर में देखिये, उनके बेढंग बच्चे, आखों पर भारी-भरकम चश्मे पहने कैसे हिन्दी की टांग तोड़कर अंग्रेजी में बात कर, खुद को अंग्रेज की औलाद से कम नहीं समझते। आजकल तो ये एक नया सलोगन भी खूब झूमकर बोलते हैं…
टम टमा टम, टमाटर खाये हम
अंग्रेज का बच्चा क्या जाने, अंग्रेजी जाने हम
जिस देश की सोच इस प्रकार की हो, उस देश की भाषा और उसके हिन्दी की क्या हाल होगी? समझने की जरुरत हैं, चलिए आज उन्हें हिन्दी-हिन्दी चिल्लाने दीजिये, पर याद रखिये, हिन्दी को समृद्ध बनाने का काम वे नहीं कर रहे, जो हिन्दी – हिन्दी चिल्ला रहे हैं, हिन्दी की शान वे बढ़ा रहे हैं, जो आज किसी भी कार्यक्रम में जो हिन्दी के नाम पर आयोजित हो रहे हैं, वहां वे नहीं पहुंचे हैं, और वे जहां भी हैं, अपने कामों को निबटाते हुए, हिन्दी प्रेम की मशाल को अंदर जलाये हुए हैं।