धर्म

वास्तविक राजा वहीं जो अपने हृदय के साम्राज्य से कौरव रुपी बुराइयों को निकाल फेंके – ईश्वरानन्द

श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार, वास्तविक राजा वहीं, जो अपने हृदय के साम्राज्य से सारे कौरव रुपी बुराइयों को निकालकर पांडव रुपी सत्य के सदृश अपने हृदय में ईश्वर का साम्राज्य स्थापित कर लें। उक्त उद्गार आज योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इंडिया के निदेशक मंडल के सदस्य एवं योगदा सत्संग मठ रांची के प्रशासक स्वामी ईश्वरानन्द गिरि ने भक्ति योग विषयक आध्यात्मिक व्याख्यान के क्रम में प्रकट किये। उन्होंने योगदा सत्संग मठ में आध्यात्मिक व्याख्यान का रसपान कर रहे श्रोताओं को कहा कि गीता दो तरह से काम करता है, एक शास्त्रों व वेदान्त की बातों को बताता है तथा दूसरी ओर दैनिक जीवन में इसका प्रयोग करते हुए, हम कैसे ईश्वर को प्राप्त कर सकते है, इसका मार्ग भी प्रशस्त करता है। उन्होंने एक उदाहरण के रुप में कबीर द्वारा कही गई पंक्तियां – एकै आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय का दृष्टांत देते हुए कहा कि कबीर का प्रेम दरअसल क्रियायोग के माध्यम से प्रभु को प्राप्त करनेवाला ही प्रेम है, जो इसे समझ लिया, वो निराकार को साकार रुप में प्राप्त कर लिया, चाहे वह भक्त उस निराकार को किसी भी रुप में क्यों न देखना चाहा हो।

स्वामी ईश्वरानन्द गिरि ने बताया कि गीता रुपी गंगा को क्रियायोग के माध्यम से हिमालय से जन-जन तक पहुंचाने के लिए सर्वप्रथम प्रयास महावतार बाबा जी ने किया, फिर वही गीता क्रियायोग के माध्यम से वाराणसी तक लाहिड़ी महाशय के पास पहुंची और फिर वहां से कोलकाता आ गई युक्तेश्वर गिरि के माध्यम से और फिर जैसे गंगा सागर में विलीन हो जाती है, गीता रुपी गंगा क्रियायोग के माध्यम से अपने गुरु स्वामी परमहंस योगानन्द जी के माध्यम से पूरे विश्व में अमरीका होते हुए कई देशों में पहुंच गई।

उन्होंने कहा कि क्रियायोग विज्ञान के माध्यम से हम भक्ति और ईश्वर को पाने की तीव्र इच्छा को जगाते है, हम स्वयं को अंतर्मुखी बनाते है, फिर हम स्वयं को आत्मावलोकित करते है, जिससे ईश्वर को पाने की इच्छा तीव्रगति से हमारे अंदर प्रस्फुटित होती है। उन्होंने कहा कि दरअसल हमें पता ही नहीं कि ईश्वर में कितना आनन्द है, जिस दिन इसका आभास हो जाता है, हम उसे पाने और जानने का प्रयास करने लग जाते है। उन्होंने कहा कि धृतराष्ट्र अंधेमन का प्रतीक है, जबकि संजय अंतःज्ञान का प्रतीक। गीता अंतःज्ञान के परीक्षण से प्रारम्भ होता है। उन्होंने कहा कि जड़ता ना बदलने की प्रवृत्ति हैं, और यहीं किसी भी इन्सान की सबसे बड़ी दुश्मन है, इसलिए पहले आत्मनिरीक्षण करते हुए आत्मा से पूछने का प्रयास करें कि आपके अंदर कौन-कौन सी अच्छाइयां है और कौन-कौन सी बुराइयां है, गीता बार-बार हमें यह बताती है कि ऐसा बराबर अपने आत्मा से पूछने का प्रयास करें।

उन्होंने कहा कि सांख्य योग और वेदान्त परब्रह्म एकमात्र शक्ति है जो सत्य है, जिसे कभी समाप्त नहीं किया जा सकता। उन्होंने कहा कि जो हम ऊं तत्सत् का उच्चारण करते है, दरअसल उसमें जो तत् हैं वह चेतना का भाग है, जबकि ऊं आनन्द और शक्ति है। तत् प्रेमबीज है जैसा कि युक्तेश्वर गिरि ने कैवल्य दर्शन में कहा है। उन्होंने बताया कि संपूर्ण सृष्टि उसी प्रेम की अभिव्यक्ति है, और यहीं चेतना के रुप में अनुभव कराती है। उन्होंने बताया कि ईश्वर की चेतना शक्ति के प्रभाव में आकर यह भूल जाती है कि वह सत्य है और यहीं जाकर अहं का भाव प्रकट होता है और इसी भूल में आकर मनुष्य स्वयं को शरीर मान लेता है।

उन्होंने कहा कि ईश्वर की चेतना से शरीर की चेतना में आने के कई स्टेप है। सर्वप्रथम चेतना की रचना विचारों के स्तर पर हुई, उसके बाद सृष्टि की रचना हुई, ठीक उसी प्रकार कोई भवन निर्माण की बात करनेवाला व्यक्ति, पहले मन में भवन बनाने का विचार मन में लाता है, यहीं कारण जगत है, जब यही कारण जगत घनीभूत होता हैं तो प्रकाश निकलता है, जिससे सूक्षम जगत बनता है और फिर सूक्ष्म जगत के घनीभूत होने से गोचर सृष्टि की उत्पत्ति होती है।

स्वामी ईश्वरानन्द गिरि ने कहा कि ठीक इसी प्रकार जो हाड़-मांस से हमारा शरीर बना वह स्थूल काय कहलाया और जो इसके अंदर प्राणशक्ति हुआ, वह सूक्ष्म शरीर कहलाया और इससे भी जो सूक्ष्म हुआ वह कारण शरीर बन गया और यहीं आत्मा इन सारी चीजों को भूलकर स्थल काय शरीर को ही सर्वस्व मान लेती है, हमारी अज्ञानता का कारण बन जाता है। उन्होंने बताया कि मृत्यु अवश्यम्भावी है यह महान आत्मा को भी अपने आगोश में लेती है और पतित को भी अपने आगोश में लेती है, जो भौतिक शरीर है सिर्फ वहीं मरता है पर इनके सूक्ष्म और कारण शरीर है, वे फिर परमात्मा में जाकर विलीन हो जाते है।

उन्होंने बताया कि स्थूल शरीर में मेरुरज्जू है, जिनसे हमारी सारी तंत्रिकाएं जुड़ी रहती है, ठीक सूक्ष्म शरीर में मेरुरज्जू है, पर वह ठोस नहीं है, बल्कि उसे हम सुषुम्ना नाड़ी कहते है, जिसके अंदर जगह-जगह उर्जा के केन्द्र बने हुए है, जिसमें कई चक्र होते है ये चक्र मूलाधार चक्र से होते हुए उपरि स्तर तक यानी सहस्रदल कमल तक जाते है। जब आत्मा मां के गर्भ में, अपने कर्मों व संस्कारों के प्रभाव के कारण स्थूल शरीर में प्रवेश करता है तो सूक्ष्म शरीर के अनुसार उनके ढांचों का निर्माण शुरु हो जाता है और धीरे-धीरे इसका विस्तार होता जाता है।

उन्होंने आध्यात्मिक व्याख्यान का रसपान करने आये श्रोताओं को विस्तार पूर्वक बताया कि मां के गर्भ में किसी भी जीवात्मा का पहले स्पाइनल कोर्ड बनता है, उसके बाद शरीर के कई अन्य भाग बनने शुरु हो जाते है, जिसे विज्ञान भी स्वीकारता है। उन्होंने महाभारत के प्रसंग को उद्धृत करते हुए विस्तार से बताया कि शांतनु परब्रह्म के प्रतीक है और गंगा की आठवी संतान यानी भीष्म कूटस्थ चैतन्य के प्रतीक, भीष्म आभास चैतन्य है, उन्होंने बताया कि ईश्वर की चेतना का प्रतिबिम्ब जो जड़ता में भी चैतन्यता का बोध करा जाता है, वह भीष्म कहलाता है।

उन्होंने कहा कि संपूर्ण सृष्टि उस आत्मा की शक्ति पर आधारित है, जैसे ही आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाती है, वह सृष्टि भी विलीन हो जाती है, इसे जितना जल्दी हो समझ लेना चाहिए। उन्होंने कई घड़ों में एक ही सूर्य के कई प्रतिबिम्बों का उदाहरण पेश करते हुए कहा कि जैसे सूर्य का कई घड़ों में प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता है, पर सूर्य एक ही है, ठीक उसी प्रकार परमात्मा का कई प्रतिबिम्ब कई आत्माओं में दिखाई पड़ता है, पर वो परमात्मा एक ही है, जिसके अंश हम सभी है।

स्वामी ईश्वरानन्द गिरि ने कहा कि शक्ति हमेशा ईश्वर के साथ रहती है, सबसे पहले अविभाजित शक्ति के साथ विभाजन शुरु होता है, प्रकाश-अंधकार, अच्छा-बुरा का हमेशा से युद्ध चलता रहता है, महर्षि व्यास उसी के प्रतीक है। उन्होंने बताया कि विचित्रवीर्य की दो पत्नियां एक – अंबिका और दूसरी अंबालिका। अंबिका – नकारात्मकता तो अंबालिका सकारात्मक उर्जा की प्रतीक है। अंबिका – धृतराष्ट्र को जन्म दे रही है, जबकि अंबालिका पांडु को। इन्द्रियों के प्रति आसक्ति का नाम धृतराष्ट्र है जो स्थूल शरीर को ही सब कुछ मान लेता है, जबकि सकारात्मकता का नाम बुद्धि है, जो अंतःज्ञान का प्रतीक है, जिसे पांडु कहते है। उन्होने बताया कि पांडु की दो पत्नियां एक कुंती से युद्धिष्ठिर, भीम और अर्जुन का जन्म तो दूसरी पत्नी माद्री से नकुल और सहदेव का जन्म। युद्धिष्ठिर आज्ञा, भीम अनाहत, अर्जुन मणिपुर, नकुल स्वाधिष्ठान तथा सहदेव मूलाधार चक्र के प्रतीक है। इन सारे चक्रों में कुण्डलनियां निवास करती है, जिसे जाग्रत करना होता है, जो द्रौपदी की प्रतीक है।

उन्होंने इसी प्रकार कौरवों के बारे में बताया, दुर्योधन को इच्छा के जगने, दुशासन को क्रोध, कर्ण को लोभ का प्रतीक बताते हुए, इन सबसे दूर रहने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि पतंजलि ने साधक के लिए पांच चीजों को बाधक बताया है, पहला – अविद्या, दूसरा स्मिता, तीसरा – विपाक, चौथा –राग और पांचवा – द्वेष। स्वामी ईश्वरानन्द गिरि ने कहा कि अगर आप चाहते है कि आपको आपके जीवन में सदैव सफलता मिलती रहे, तो आपको यह याद रखना होगा कि अपने जीवन में आपको कौरवों को हमेशा हराते रहना होगा और पांडवों को हमेशा विजय दिलाते रहना होगा और ये तभी होगा, जब हम सुषुम्मना नाड़ी में शुद्ध भक्ति, शुद्ध ज्ञान और निष्काम कर्म का बीजारोपण करते रहेंगे, इसे हम डायरेक्ट भी जगा सकते है, पर ये तब होता है, जब हम राजयोग जिसे क्रियायोग भी कहते है, उसका ज्ञान हो, क्योंकि यहीं एक प्रक्रिया है, जिससे पांडव जग जाते है, और फिर वे सच्चा स्वरुप दिखाते है, वे बताते है कि हम स्थूलकाय शरीर नहीं, बल्कि हम नित्य नवीन आनन्द है।

उन्होंने बताया कि संसार में मीराबाई, तुकाराम, राधा जैसे कई अनन्य भक्त हुए, भारत तो साधकों का खान रहा है, इनके पास जो ईश्वर को पाने का जो ज्ञान था, वह जन्मजात था, पर हमारे पास वैसी शक्ति नहीं, इसके लिए हमें ईश्वर के प्रति भक्ति और प्रेम जगाना होगा, और ये तभी संभव होगा, जब हम क्रियायोग को अपनायेंगे। उन्होंने बताया कि गीता कहती है कि बिना प्रेम और भक्ति के ईश्वर को पाना संभव नहीं और ये तभी संभव होगा, जब आप सुषुम्ना नाड़ी को योग-साधना से जगाने की कोशिश करेंगे।

उन्होंने कहा कि इस बात को गांठ बांध लीजिये कि तत् प्रेम का बीज है, ईश्वर का मूल स्वरुप प्रेम है, वहीं ईश्वर का संपूर्ण प्रेम सृष्टि में सर्वत्र व्याप्त है। जैसे गन्ने में चीनी होता है, पर गन्ने को मालूम नहीं, ठीक उसी प्रकार प्रेम में ईश्वर हैं, जैसे प्रेम का मंथन करेंगे, वह निराकार ब्रह्म आपके पास, आपके अनुसार साकार रुप में उपस्थित हो जायेगा, जरुरत है, उसे समझने की।