दिल्ली से आई थी, ये हंस/बोल/दौड़ रही थी, मात्र 15 दिनों में ये मर कैसे गई? रघुवर सरकार जवाब दो?
25 सितम्बर को दिल्ली से रांची 16 वैसी बच्चियों को लाया गया था, जिन्हें किसी न किसी तरह काम के नाम पर वहां बेच दिया गया था। रांची जंक्शन पर आई ये बच्चियां बहुत खुश थी, क्योंकि वह अपने घर वापस लौट रही थी। इन्हीं में से एक थी गोड्डा जिले से पहाड़िया जन-जाति की 17 साल की एक आदिवासी बच्ची। उसने अपने उपर हुए अमानवीय अत्याचार की ऐसी दर्द भरी दास्तान सुनाई, कि स्टेशन पर खड़ें सभी लोगों के आंखों में आंसू आ गये।
वह बता रही थी कि ‘प्रभा मुनि उसे तरह-तरह से प्रताड़ित करती थी। अपने पति के बिस्तर पर सोने को मजबूर करती थी, नहीं सोने पर चाकू से शरीर पर हमला करती थी। रुह कंपा देनेवाली बात अपनी ही जुबां से बताने के बाद यह कहकर फफक-फफककर रोने लगी कि कमाने गये थे, अब घर पर मां पैसा मांगेगी, तो क्या देंगे?’
आज वह पहाड़िया जन-जाति की बच्ची, दम तोड़ चुकी है, कौन है उसके मौत का जिम्मेवार, आप कहेंगे डाक्टर, आप कहेंगे सरकार, आप कहेंगे व्यवस्था, आप कहेंगे समाज और मैं कहूंगा कि इसके लिए सभी दोषी है, क्योंकि किसी के मन में उस आदिवासी पहाड़िया जनजाति बच्ची के लिए दर्द ही नहीं दिखा, अगर दर्द होता, तो वह मरती ही नहीं, क्योंकि जब वह 25 सितम्बर को रांची जंक्शन पर आई थी, तब वह हंस रही थी, दौड़ रही थी, बोल रही थी, खेल रही थी। ऐसे में किसने उसके हंसने, दौड़ने, बोलने और खेलने पर सदा के लिए रोक लगाने के साथ-साथ, उसकी जिंदगी छीन ली। उसकी मौत से किसको फायदा होनेवाला था? जाहिर है जिन्हें फायदा होनेवाला था, आज वेलोग बहुत खुश हुए होंगे, क्योंकि ऐसे लोगों के खिलाफ बोलनेवाली इकलौती बच्ची तो यहीं थी।
सूत्र बताते है कि हरियाणा बाल संरक्षण आयोग ने जब झारखण्ड बाल संरक्षण आयोग के जिम्मे इन बच्चियों को सौंपा था, उसमें ये पहाड़ियां जन-जाति की बच्ची भी थी, जो पूर्णतः स्वस्थ थी, पर उसे समय-समय पर दवाएं भी मिलती रहती थी, जिसका वहां इलाज चल रहा था, बताया जाता है कि उसकी हालत गोड्डा से खराब होनी शुरु हुई, जो देवघर तक खराब होती चली गई, क्योंकि इस दौरान किसी ने उस बच्ची की देखभाल ही ठीक से नहीं की, उसे कब और किस समय दवा देनी है, इसका ख्याल ही नहीं रखा गया और नतीजा सामने है, आज वह दुनिया में नहीं है।
जब वह बच्ची रिम्स में भर्ती हुई, तो रिम्स में जिन-जिन लोगों ने उसे इलाजरत देखा, सभी ने रिम्स के डाक्टरों और यहां की चिकित्सा व्यवस्था को सराहा, पर सच्चाई यह भी है कि इतने बड़े रिम्स में जहां आयुष्मान योजना की ओर से रोगियों को लाभ भी मिलना हैं, वहां आज पता चला कि वहां एक न्यूरोलॉजिस्ट तक नहीं, समय पर न्यूरोलॉजिस्ट बुलाने के लिए रिम्स प्रबंधन को न्यूरोलॉजिस्ट डाक्टरों का आयात करना पड़ता है, कितने शर्म की बात है? जैसे इस आदिवासी बच्ची के इलाज के दौरान ऑर्किड अस्पताल में कार्यरत न्यूरोलॉजिस्ट डा. उज्जवल राय को बुलाकर परामर्श लिया गया।
सूत्र बताते है कि हाल ही में दिल्ली-गुड़गांव में दुष्कर्म की एक शिकार बच्ची, जो एक बच्चे को जन्म दे चुकी है, वह अपने बच्चे को दिल्ली में ही छोड़, गुमला पहुंची है, जब वह गुमला आई थी, तो कम से कम वह खुश नजर आ रही थी कि वह अब अपने घर में आ गई, पर कुछ दिन पहले जब एक व्यक्ति उससे मिलने पहुंचे तो उन्होंने बताया कि अब वह पूरी तरह म्यूट हो गई। आखिर झारखण्ड की बेटियों को सपने दिखाकर, महानगरों में ले जाकर, उनकी जिंदगी से खेलने का अधिकार, ऐसे दरिंदों को किसने दिया? आखिर जो रांची या दिल्ली में प्लेसमेंट एजेंसियां, जो अवैध रुप से चल रही है, उस पर लगाम लगाने के लिए राज्य सरकार ने क्या किया है? जब आप रोजगार देने में असमर्थ है, जब आप सम्मान की रक्षा करने में असमर्थ है, और पलायन-विस्थापन ही झारखण्ड की मजबूरियां है तो कम से कम आप इतना तो कर ही
सकते है कि पलायन और विस्थापन पर ही एक अच्छी नीतियां बना दें, ताकि उन नीतियों के आधार पर यहां के बच्चे ब बच्चियां जाये तो कम से कम, कोई उनकी जिंदगी के रंग को बदरंग न कर सकें, पर आप ये सब करेंगे कैसे? क्योंकि वोट तो आपको इससे मिलेंगे नहीं? वोट तो जितनी गंदगी फैलेगी, उसी से मिलेगा, क्योंकि आप ही तो कहते है कि जितना कीचड़ होगा, कमल उतना ही खिलेगा, खिलाइये कमल, और करते रहिये राज, और कह दीजिये दिल्ली, कोलकाता, मुंबई और चेन्नई जैसे महानगरों तथा आपके अनुसार बन रहे नये-नये स्मार्ट सिटियों में रहनेवालों दरिंदों से, कि वे हमारे राज्य की बहू-बेटियों के साथ कुकर्म करते रहे और उन्हें आग की दरिया में झोंकते रहे।