कितना अच्छा होता, जब रांची के अखबारों के नाम रघुवर खबर, रघुवर भास्कर, रघुवर जागरण आदि होते…
कितना अच्छा होता, जब रांची से प्रकाशित होनेवाले अखबारों के नाम रघुवर खबर, रघुवर भास्कर, रघुवरिस्तान, रघुवर जागरण, रघुवरमंत्र, रघुवर एक्सप्रेस, रघुवराज, रघुवर सिपाही होते और चैनलों के नाम होते रघुवर भारत, रघुवर 18, रघुवर न्यूज़, रघुवर 11, रघुवर इंडिया, रघुवर टीवी आदि, सचमुच मजा आ जाता, सभी एकता के सूत्र में खुद को पिरोकर, रघुवर के विकास के गीत गाते और राज्य के सारे विपक्ष और यहां की जनता की बोलती भी बंद हो जाती, सभी न्यू झारखण्ड बनाने के लिए, राज्य के मुख्यमंत्री के सपनों को पूरा करने के लिए, कड़ी मेहनत करते, जिससे झारखण्ड की दशा और दिशा ही बदल जाती।
अरे हां, मैं तो एक बात ही भूल गया, अंग्रेजी अखबारों के नाम की तो मैंने चर्चा ही नहीं की, अंग्रेजी अखबारों के बिना तो यहां काम ही नहीं चलता, इसलिए अंग्रेजी अखबारों के नाम होते, द टाइम्स ऑफ रघुवर, रघुवरग्राफ, रघुवर टाइम्स, रघुवर पोस्ट, रघुवरोनियर। इससे फायदा यह होता कि न तो सरकार को अपनी बातें जनता के सामने रखने में दिक्कत होती और न ही किसी अखबार को मनमुताबिक समाचार नहीं छापने के कारण विज्ञापन रोकने का झंझट झेलने की जरुरत नहीं पड़ती।
सचमुच ये काम जितना जल्दी हो जाये, अच्छा है, ताकि लोगों को पता चल सके कि यहां कैसे सहजीविता के आधार पर पत्रकारीय कार्य चल रहा है? ऐसे में सभी मिलकर रघुवर के गीत गाते, भजन गाते, और दिल्ली, चेन्नई, कोलकाता, मुंबई जैसे महानगरों ही नहीं, अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान, चीन, भूटान, नेपाल, श्रीलंका, बांगलादेश, मालदीव के साथ-साथ अमरीका, इंग्लैड, जर्मनी, फ्रांस, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि देशों के पत्रकारों का समूह इस छोटे से राज्य में चल रहे पत्रकारीय कार्यों को देखने आते और यहां से सीखकर, फिर अपने-अपने देशों में जाकर, इसका लाभ उठाते तथा अपने सरकारों से भी कहते कि वह भी एक ऐसी ही मौखिक नीति बनाएं, जिससे दोनों पक्ष लाभान्वित हो।
सूत्र बताते हैं कि एक दिन की घटना है, कि रांची से प्रकाशित एक छोटे से अखबार ने एक पत्रकार की कोई सामान्य आर्टिकल छाप दी, यहां के मुख्यमंत्री और उनसे जुड़े लोगों को ये नागवार गुजरा, उन्होंने उक्त अखबार की विज्ञापन ही बंद कर दी। इसी प्रकार एक बड़े अखबार ने राज्य सरकार की थोड़ी बहुत प्रेम से आरती उतार दी, फिर क्या था मुख्यमंत्री और उनसे जुड़े लोगों को ये नागवार गुजरा, उसकी भी विज्ञापन बंद हो गई, बेचारे उक्त अखबार के बड़े-बड़े लोग आनन-फानन में रांची पहुंचे, मुख्यमंत्री और उनके खासमखास लोगों की परिक्रमा की, जल्द ही समझौते हुए, समझौते के तहत कारर्वाई की गई और लीजिये फिर विज्ञापन चालू हो गया।
विज्ञापन और मनमुताबिक लाभ सरकार से कैसे मिले? सिर्फ यहीं भाव झारखण्ड के अखबारों में दिखाई पड़ रहा है, जिसका परिणाम यहां की राज्य की जनता और भुक्तभोगियों को भुगतना पड़ रहा है। आपको याद होगा, कि एक समय था, आज सत्ता में विराजमान लोग, जब विपक्ष में थे तब, कभी अपने जमाने में एक ही संचार के माध्यम, जो केन्द्र द्वारा नियंत्रित रहता था, उसे राजीवदर्शन या राजीववाणी कहकर बुलाया करते थे।
हमें याद है कि उस वक्त झारखण्ड नहीं हुआ करता था, बिहार की राजधानी पटना में कई लोगों ने दूरदर्शन केन्द्र पर धरना तक दे दिया था, पर अब वैसी बात रही नहीं, अब तो कई पूंजीपतियों के कई चैनल हैं, और उन्हीं पूंजीपतियों के अखबार, जो सरकार से अत्यधिक स्नेह की आकांक्षा रखते तथा राज्यसभा में जाने की उत्कंठा पाले रखते हैं, ऐसे में तो वहीं दिखेगा, जो आज दिख रहा है, इसलिए ये छद्म या पर्दे के पीछे रासलीला क्यों?
क्यों नहीं खुला खेल फर्रुखाबादी हो जाये, क्योंकि ऐसा थोड़े ही है कि जनता नहीं जानती, जनता तो जानती ही हैं, इसलिए राज्य सरकार को इस उहापोह में नहीं रहना चाहिए और न ही यहां के चैनलों-अखबारों को, सभी को एकता के सूत्र में बंधकर राज्य सरकार के विज्ञापन और लाभ के हिंडोले पर झूलते हुए, रघुवर गीत गाते हुए दिन की शुरुआत और रात की स्वीट ड्रीम्स डार्लिंग कहकर प्रत्येक दिन की समाप्ति करनी चाहिए, ताकि राज्य की जनता को ज्यादा दिमाग लगाना न पड़े, कि आप के अंदर चल क्या रहा है? क्यों कैसी रही?
लाजवाब सर. अब भी शर्म आ जाए झारखंड की मीडिया को, तो बहुत देर नहीं होगी. लेकिन इन बेशर्मों को लाज कहाँ.