ऐसा आचरण करने से क्या फायदा, जब आपका संचित/अर्जित पुण्य ही नष्ट हो जाये
कबीर की एक पंक्ति है – माला फेरत जुग गया, मिटा न मन का फेर। कर का मन का छाड़ि के, मन का, मन का फेर।। ये पंक्ति बहुत कुछ कह देती है, अगर लोग इस पंक्ति को समझना चाहे। नवरात्र 18 अक्टूबर को ही समाप्त हो गया और आज विजयादशमी है। विजयादशमी को जयन्ती धारण किया जाता है। शमी का पूजन किया जाता है। अपराजिता पूजा होती है। नीलकंठ के दर्शन का दिन है। आज सर्वविध विजयोत्सव का दिन है और आज का दिन ये सब न कर मांसभक्षण में ही लोग रुचि लेने लगे, तो फिर आवश्यकता क्या है, नवरात्र करने की, नवरात्र मनाने की, नवरात्र के अवसर पर मांसभक्षण के परित्याग की।
आप अपने जीभ को इतना त्रास क्यों दे रहे हैं, खुब मांस खाइये और दुर्गापूजा/नवरात्र भी करिये। शक्तिपूजा या शक्तिआराधना में तो कहीं ये वर्जित है नहीं। भारत के बहुत सारे शक्तिपीठों में खूब बकरे काटे जाते हैं, वहां तो कोई रोक ही नहीं, और लोग इन बलि चढ़ाये गये पशुओं को प्रसाद समझ कर ग्रहण भी करते हैं, इसलिए ये नौ दिन का ढोंग कि हम मांस भक्षण नहीं करेंगे, फल पर रहेंगे, जल पर रहेंगे, अन्न का परित्याग करेंगे या केवल एक समय अन्न पर रहेंगे और ये सब करने के बाद जैसे ही नवमी का हवन किया, बकरे व मुर्गे के दुकान पर खड़ें हो गये, तो ऐसे में इस प्रकार की पूजा से किसको लाभ?
याद रखिये, माला फेरने से अच्छा है, कि जो मन में चल रहा हैं, उसको संतुष्ट करिये, उसके अनुसार काम करिये, आप कोई पहले आदमी नहीं कि माला फेर रहे हैं, ऐसा माला फेरते बहुत लोग चले गये, पर इससे न तो उनका भला हुआ और न उनके परिवार का भला हुआ, इसलिए कबीर कहते है कि माला फेरने से अच्छा है, जो मन में चल रहा हैं, उस मन के भाव के अनुसार अपना काम करिये, नहीं तो झेलना आपको ही पड़ेगा, चाहे आप हस कर झेले या रोकर झेले।
आज जैसे ही मैं सुबह उठा, और बाजार की ओर प्रस्थान किया, मैंने देखा कि बकरों और मुर्गों के दुकान पर अप्रत्याशित भीड़ थी। शायद कसाइयों को भी इस बात का भान था कि आज बकरों और मुर्गों के दुकानों पर ज्यादा भीड़ रहेगी, इसलिए बकरों और मुर्गों की दुकानों में बकरों और मुर्गों की संख्या भी बहुतायत थी, इसके लिए कसाइयों ने विशेष प्रबंध किये थे, यहीं नहीं बकरे और मुर्गे की मांस खरीदने आये लोगों के लिए पहली बार विशेष पंडाल भी बनाये गये थे, तथा मांस खरीदने आये लोगों के लिए कुर्सियां और टेबल तक की व्यवस्था की गई थी।
नवरात्र की समाप्ति हुई नहीं, विजयादशमी संपन्न हुआ नहीं, मां का घर से विसर्जन हुआ नहीं और जीभ के स्वाद के गुलाम होने का सबसे सुंदर प्रमाण है, आज बकरों व मुर्गों के मांस के दुकानों पर जुटी अप्रत्याशित भीड़। आश्चर्य तो यह भी रहा कि इन दुकानों पर भीड़ खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था, जबकि हरी सब्जियों के दुकानों पर इक्के-दुक्के लोग नजर आ रहे थे।
अध्यात्म से जुड़े संतों का कहना कि किसी भी व्रत या उपवास या विशेष आध्यात्मिक आयोजनों के बाद तुरन्त मांसाहार-मद्यपान का सेवन धर्म निषिद्ध है, यहीं नहीं यह स्वभाव न तो देवों के लक्षण है और न ही मनुष्यों के। एक ओर घर में भगवान का प्रसाद रखा है और उसी घर में मांस का पकना और उसका सेवन, उक्त प्रसाद को भी अपवित्र कर देता है, जिसे खाने से पाप ही लगता है और उससे उक्त प्रसाद को ग्रहण करनेवाले पाप के भागी होते हैं, इसलिए कभी भी इस प्रकार के अभोज्य पदार्थ, नवरात्र के तुरन्त बाद नहीं ग्रहण करने चाहिए, पर चूंकि समय बदल रहा है, लोग धर्म के मूल स्वरुप को न तो जानते हैं और न जानना चाहते हैं, ऐसे में वे उन सारे कृत्यों को कर रहे हैं, जिसे धर्म इजाजत नहीं देता और इसी क्रम में वे उन सारे पुण्यों को स्वयं के द्वारा नष्ट कर देते हैं, जो उन्हें इन नौं दिनों में अर्जित किये।