अपनी बात

मीडिया, व्यापारियों तथा कथित पंडितों के चक्कर में लालची बने भारतीय, धनतेरस के महत्व को भूला बैठे

बचपन में स्कूली शिक्षा के दौरान पढ़ा –

अधमाः धनम् इच्छन्ति। धनं मानं च मध्यमाः।। उत्तमाः मानम् इच्छन्ति। मानो हि महतां धनम्।। अर्थात् जो दुष्ट होते हैं, वे सिर्फ धन की कामना करते हैं। जो मध्यमवर्गीय लोग हैं, वे धन और सम्मान दोनों की कामना करते हैं और जो सर्वश्रेष्ठ-महापुरुष जैसे लोग होते हैं, वे धन की कामना कभी नहीं करते, उनके लिए सम्मान से बड़ा कोई दुसरा धन, कोई होता ही नहीं।

उसी स्कूली शिक्षा के दौरान एक सुक्ति हमें पढ़ने को मिली, धन की तीन गतियां है, सर्वोत्तम गति है – दान, दूसरी गति है – उपभोग और तीसरी गति हैं – उसका नाश हो जाना। अब मैं कभी-कभी चिन्तन करता हूं कि जिसकी अंतिम गति नाश ही हो जाना है, तो उसके लिए इतना शोर क्यों? उसके लिए इतनी मार-काट क्यों? उसके लिए इतनी माथा-पच्ची क्यों?

आज से बीस-तीस साल पहले, ऐसी स्थिति नहीं थी, जो आजकल देखने को मिल रही हैं, पिछले तीन दिनों से कई अखबार जो बाइस-चौबीस पृष्ठों के हुआ करते थे, अचानक बावन-साठ के हो गये हैं, आश्चर्य है कि इन बावन से साठ पेजों के अखबारों में समाचार गौण है और उसमें सोने-चांदी-हीरे-पन्ने-जवाहरात के जेवरों, कार-मोटरसाइकिल, घर के विलासिता संबंधी आवश्यकताओं के विज्ञापन भरे पड़े हैं।

लोग भी इन विज्ञापनों के मकड़ जाल में फंसकर, अपने घर पर संग्रहित धन को जो जीवनोपयोगी हैं, उसे साहूकार के यहां बड़े प्रेम से बेकार की वस्तुओं को लेकर, उसमें खुशियां ढूंढ रहे हैं, यानी ऐसा पागलपन, हम आज से बीस-तीस साल पहले तो नहीं ही, देखा करते थे। किसी ने ठीक ही कहा है कि दुनिया में जब तक लालची लोग रहेंगे, चालाक कभी भूखों नहीं मर सकता।

व्यापारियों का क्या है? वे तो तिकड़म भिड़ाते ही रहते हैं, चिरकूट टाइप के पंडितों (जो कि दरअसल ब्राह्मण होते ही नहीं हैं, थोड़ा-बहुत इधर-उधर से हाफ-डिप करने की विधा जान ली, जाति कोई भी हो आगे स्वामी या आचार्य लगा लिया और पीछे की अपनी टाइटल छुपा ली और बन गये पंडित, बन गये ब्राह्मण) के माध्यम से अखबारों के मार्केंटिंग से जुड़े लोगों के साथ मिलकर अखबारों में विज्ञापन छपवा दिया और लीजिये, उसमें मूर्खों का समूह फंस कर, अपने घर का सारा धन जो आवश्यक कार्यों के लिए है, उसे इन व्यापारियों के घर जाकर जमा करा दिया।

अब जरा कोई ये बताएं कि किस वेद, या किस उपनिषद् या पुराण में लिखा है कि धनत्रयोदशी के दिन, अपने घर के संग्रहित धन को थोक भाव में व्यापारियों को सुपूर्द कर देना चाहिए, और ऐसे में अगर इस पर्व का नाम धनत्रयोदशी है, तो धन सभी के घरों में आना चाहिए, यहां तो आपके घर का धन, सीधे व्यापारियों के घर चला गया और आपने लाया क्या?  मोटरसाइकिल-कार और ऐसी वस्तुएं, जिससे आप आनन्द तो कम से कम प्राप्त कर ही नहीं सकते।

हमारे पास बहुत सारे विद्यार्थी आते हैं, वे कभी-कभी अजब-गजब के सवाल पूछते हैं, एक विद्यार्थी ने पूछा कि सर आप आज धनतेरस के दिन बाजार जायेंगे तो क्या खरीदेंगे, हमने कहा कि क्या खरीदूंगा मतलब?  हमारे पास सब कुछ तो हैं, और जब कभी किसी चीज की जरुरत पड़ेंगी तो ले लूंगा, ऐसा थोड़े ही है कि रांची का बाजार आज के बाद दिखेगा ही नहीं। विद्यार्थी ने कहा – अरे सर, आज धनतेरस है न? मैने कहा कि हां है, तो हम धन का सम्मान करेंगे? उसका सदुपयोग जनहित या परिवार हित में कैसे हो, इस पर विचार करेंगे?

विद्यार्थी – अरे सर, हमारे घर में लोग कहते हैं कि धनतेरस के दिन कुछ न कुछ खरीदा जाता है, जिससे धन की वृद्धि होती है। हमने कहा कि – कि भाई, 52 साल का हो गया हूं, आज तक हमें ये नहीं पता चला कि बाजार में क्या धनतेरस के दिन खरीदा जाता है, कि धन की वृद्धि होने लगती है, अगर तुम्हें लगता है तो तुम बताओ की वह कौन सी चीज है, जो बाजार में बिकती है और जिसके खरीदने से धन की वृद्धि होने लगती है। हमें लगता है कि अगर ऐसा होता तो हर कोई बाजार जाकर, वो चीज खरीद लेता और धन्ना सेठ बन जाता, कोई भीख मांगता ही नहीं, गरीब होता ही नहीं।

हम तो यहीं जानते है कि धन उसी के घर आता है, जो इसकी इच्छा रखता है तथा जो उसके अनुसार कार्य करता है, और ये कार्य के भी दो रास्ते है, एक बेईमानी और ठग विद्या के अनुसार, जैसा कि अखबार, व्यापारी और तथाकथित पंडित की जमात जो पंडित है नहीं, जिन्होंने इसका मकड़जाल फैला रखा है, जो सामने दीख रहा है और दूसरा रास्ता ईमानदारी का है, कि हम धन की इच्छा रखे और अपनी मेहनत से उसे प्राप्त करें, ईमानदारी से प्राप्त करें और जो ईश्वर दिया, उसी में खुश रहे।

अब बताओ कि कौन सा रास्ता मैं अपनाऊं। मैं तो केवल यहीं जानता हूं कि आज धन्वतंरि जयंती है, आयुर्वेद के जन्मदाता का जन्मदिन है, जैसे भारतीय वांग्मय में जन्मदिन मनाया जाता है, वैसे ही जन्मदिन मनाऊंगा और रात के समय के यम का दीप बाहर जलाकर, ईश्वर से आशीर्वाद प्राप्त करुंगा, कि उनकी कृपा हम पर सदैव बनी रहे, ताकि हम सचमुच दीपोत्सव का आनन्द ले सकूं।

अगर हम बाजार में बिक रही वस्तुओं में आनन्द को ढूंढने लगूं, पढ़-लिखकर अखबारों के विज्ञापन में आनन्द को ढूंढता रहूं तो मेरे पढ़ने का क्या मतलब? तब तो मैं उन मूर्खों से भी खत्म हूं, क्योंकि पढ़ने का अर्थ होता है, स्वयं को प्रकाशित करना, न कि किसी के द्वारा बनाये जा रहे, बेवकूफी का शिकार हो जाना। क्या तुमने नहीं पढ़ा… असतो मा सदगमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय. मृत्योर्माअमृतं गमय। अर्थात् हे ईश्वर, हमें असत्य से सत्य की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर, और मृत्यु से अमरता की ओर ले चल।

हां, हमनें गांवों-मुहल्लों में आज से बीस-तीस साल पहले देखा है कि लोग धनतेरस का इंतजार करते थे, इसलिए नहीं कि आज के दिन सामान खरीदने से धन की वृद्धि हो जायेगी। वो इसलिये कि घर की जब सफाई होती थी, तो उसी दौरान घर के तांबे, पीतल या कांसे के टूटे-फूटे बर्तन, उन्हें दिखाई पड़ जाते और फिर ये इन्हें बदलकर दूसरा बर्तन खरीद लेते ताकि उससे दीवाली में गणेश और लक्ष्मी की पूजा हो जाय और साथ ही छठ का काम भी निकल जाये, बस मकसद ये होता था, ये नहीं कि ये बरतन धन की वृद्धि करेंगे, साथ ही ये जब भी खरीदते तो ऐसी चीज खरीदते कि जो खत्म होने या अपनी अस्तित्व खोने के बाद भी, कुछ न कुछ दे कर जाये, इसलिए ये धनत्रयोदशी का इंतजार किया करते थे।

हमने तो देखा कि किसी ने उस वक्त लोहे की सामान नहीं खरीदी, उस वक्त नया-नया स्टील बाजार में आ रहा था, स्टीलों के बर्तन के दुकानों पर उतनी भीड़ भी नहीं रहती, पर अब चूंकि उनके घर के बच्चे ही नहीं जानते कि कांसा क्या होता है? फूलहा क्या होता है? वे खरीदेंगे क्या? लोहा और स्टील ही न? अब आप धनतेरस मना रहे है कि लौहतेरस मना रहे हैं, कि आप अपने घर के रखे धन को व्यापारियों के हाथों लूटवा रहे हैं, ये तो आपकी मर्जी, कौन बोलेगा आपको? क्योंकि भ्रष्टाचार की गंगोत्री से पनपे धन, इसी में तो खर्च होते हैं, आप चाहकर भी उसका सदुपयोग नहीं कर सकते, क्योंकि उसमें ईश्वरीय कृपा जो नहीं है।

One thought on “मीडिया, व्यापारियों तथा कथित पंडितों के चक्कर में लालची बने भारतीय, धनतेरस के महत्व को भूला बैठे

  • राजेश कृष्ण

    सहज प्रकाश रूप भगवाना।।
    हे प्रभु,
    आनन्द दीप जगाना।।
    शुभ.दीपावली
    ।।जय जय नारायण।।

Comments are closed.