अरे गोविन्द पहलवान ‘शत् शत् नमन’ के योग्य नहीं हैं, ‘अच्छा हुआ मर गया ससुरा’ बोलने के लायक है
सत्तर वर्षीय गोविन्द पहलवान की मौत की खबर जैसे ही राघोपुर के लोगों के कानों तक पहुंची, पूरे गांव में खुशी की लहर दौड़ गई। गोविन्द पहलवान के आतंक से त्रस्त ग्रामीणों को लगा कि जैसे उन्हें बरसो पुरानी मन की मुराद मिल गई हो। गोविन्द पहलवान के मरने की खुशी में सभी ने अपने-अपने कुलदेवता की विशेष पूजा की, गांव के प्रधान देवता को भी लोगों ने चुपके से मिठाइयां चढ़ा दी, लोगों को लगा कि अब गांव में शांति होगी, क्योंकि गोविन्द पहलवान के आतंक से शायद ही कोई गांव का ऐसा परिवार हो, जो त्रस्त न रहा हो।
गोविन्द पहलवान जिस जाति या समाज से आते थे, उस जाति व समाज के लोग भी उससे उतना ही आंतकित थे, जितना अन्य जाति या समाज के लोग। संभ्रात महिलाओं को छेड़ना, किसी गरीब की जमीन पर कब्जा जमा लेना, किसी को थोड़ी आर्थिक मदद देने के बाद ब्याज के नाम पर उसके घर अपने नाम लिखवा लेना, किसी को भी बेवजह पीट देना, चुनाव में आतंक फैलाकर किसी को वोट नहीं देने देना, ये गोविन्द पहलवान के बाये हाथ का खेल था।
गोविन्द पहलवान के तीन बच्चे भी अपने पिता के नक्शे कदम पर थे, बचपन से अपने पिता को देखे ये तीनों बच्चे आतंक की पढ़ाई में बचपन से ही निपुण थे। गोविन्द पहलवान की मौत के बाद उसके तीनों बच्चों ने बाप की अर्जित धन का बंटवारा कर, अपने-अपने अंदाज से जीना शुरु किया। जिस गोविन्द पहलवान की मौत के बाद कुछ दिनों तक गांव में शांति थी, उसकी अंतिम क्रिया होने के बाद से फिर इसके तीनों बच्चों ने वहीं काम करना शुरु किया, जो गोविन्द पहलवान किया करता था। अपने पिता से विरासत में मिले गुंडागर्दी के पाठ को याद करने तथा उसके किये गये कार्यों को और आगे बढ़ाने के लिए उसके तीनों बच्चों ने गांव के प्रमुख प्रवेश द्वारों पर विशाल प्रवेश द्वार बनाया और उस पर लिखवाया – गोविन्द पहलवान द्वार।
गांव के लोग इस प्रवेश द्वार और गोविन्द पहलवान के नाम पर बने द्वार को देख कर आश्चर्य चकित थे, जो लोग गोविन्द पहलवान के आतंक से परिचित थे, वे दबी जबान से ही सही कभी-कभी आपस में बोल दिया करते, कि आतंकी गोविन्द के बच्चे, अपने आतंकी बाप को ऐसे पेश कर रहे हैं, जैसे लगता हो, कि उसका बाप गांव का महात्मा गांधी रहा हो, जबकि उसी गांव के कई लोग स्वतंत्रता सेनानी रह चुके थे, पर उनके नाम पर उस गांव में कहने को कुछ नहीं था।
एक दिन जब गोविन्द पहलवान का जन्म दिन आया, तब उसके बच्चों ने अपने पिता की विशेष जन्मोत्सव मनाने की ठानी, गांव में एक बहुत बड़ा कार्यक्रम आयोजित किया गया, पंडाल बनाये गये, बड़ी सी संगरमरमर की मूर्ति राजस्थान से बनवा कर मंगवाई गई। दूसरे स्थानों से संभ्रांत नागरिकों को बुलाया गया, जो गोविन्द पहलवान को जानते नहीं थे, गांव वालों को कुर्सियों पर बैठने की अच्छी व्यवस्था कर दी गई थी। भाषण बाजी जैसे ही शुरु हुई। जो भी भाषण देनेवाले आते, वे सभी गोविन्द पहलवान को महान बताते हुए, उनके लिए शत-शत नमन और कोटिशः नमन का प्रयोग करते।
अचानक, कुर्सी पर गांव से बाहर आये, एक युवक ने मंच पर बैठे महानुभावों से पूछ डाला, कि अरे मंचस्थ नेताओं, आप सभी आ रहे हैं और गोविन्द पहलवान को शत-शत नमन और कोटिशः नमन कर उसकी मूर्ति को फूल-मालाओं से लादना शुरु कर दिया हैं, पर ये तो बताओ कि ये शत-शत नमन और कोटिशः नमन करनेवाले महापुरुष ने इस गांव के लिए किया क्या है?
मंचस्थ लोगों के हाथ-पांव फूल गये, गोविन्द पहलवान के बच्चों को लगा कि ये कौन युवा है, जो उसके मरे बाप को चुनौती दे रहा है, आज तक उसके मुहल्ले में उसे और उसके मरे बाप को चुनौती देने की किसी की हिम्मत नहीं हुई थी, जल्द पता लगाने को कहा गया, पता भी चल गया कि ये युवक जो प्रश्न के गोले दाग रहा है, वह उस गांव का नहीं है, नया-नया गांव में आया है, किसी किराये के मकान में रहता है, और उसे उसके बाप और उसके बच्चों की सारी हरकतें मालूम हैं। तभी मंचस्थ गोविन्द पहलवान के बच्चों ने उक्त युवा को आंख दिखाई, मतलब उसका इशारा था कि चुपचाप बैठ जाओ, नहीं तो जैसे अन्य लोग यहां शांति से बैठे है, उसे भी शांति का पाठ पढ़ा दिया जायेगा।
लेकिन ये क्या, उक्त युवा पर तो उसका कोई असर ही नहीं था, कुर्सियों पर बैठे अन्य गांववालों को भी उक्त युवा का इस तरह प्रश्न पूछना मन को भा गया, वे भी धीरे-धीरे सुगबुगाने लगे, और तभी एक-दो-तीन-चार करते-करते सभी ने आवाज लगा दी, हां भाई काहे का शत-शत नमन, काहे का कोटिशः नमन, कोई गांधीवादी नहीं था गोविन्द पहलवान, वो तो बहुत ही बड़ा नीच व्यक्ति था, जिसने गांववालों से जिंदगी ही छीन ली थी, खबरदार किसी ने शत् शत् नमन कहा तो, मजाक बना दिया है – शत् शत् नमन का।
ग्रामीणों के अंदर आये इस भूचाल को देख, गोविन्द पहलवान के बच्चों और मंचस्थ लोगों को ये समझते देर नहीं लगी कि मामला बिगड़ने में ज्यादा समय नहीं लगेगा, इसलिए सभी ने पतली गली से निकलना ही उचित समझा। इसी बीच उक्त युवक ने मंच सभाला और ग्रामीणों को संबोधित करते हुए कहा कि देखों भाई, शत् शत् नमन और कोटिशः नमन् कोई सामान्य शब्द नहीं, अरे जब गुंडों व बलात्कारियों के लिए भी शत् शत् नमन का प्रयोग होने लगे, तब समझ लीजिये कि स्वतंत्रता सेनानियों और समाज के लिए प्राण गंवा देनेवाले लोगों के लिए कौन से शब्द का प्रयोग करेंगे या नये शब्द गढ़ेंगे।
सचमुच उक्त युवा के बातों में दम था। उसने गांव वालों से पूछ डाला कि आपने दुर्गापूजा में कभी भी गलत कार्य करनेवाले महिषासुर की जय बोलते किसी को सुना है। विजयादशमी को जो लोग श्रीरामचन्द्र की जय कहते हैं, वे ही रावण की भी जय कहते है, नहीं न, तो फिर हमारे गांव के इस बदमाश गोविन्द पहलवान को शत् शत् नमन क्यों?
अब बात उठती है कि मैंने इस कहानी को क्यों लिखा, वह इसलिए कि अपने फेसबुक या कई सोशल साइट पर मैं देख रहा हूं कि जिन्हें दूसरे के मान मर्दन करने में ही जिंदगी भर आनन्द आया है, जो साक्षात् मान मर्दन ही हैं, जिन्होंने दूसरे के सम्मान की हत्या कर, अपनी पहचान बनाई है, जिन्होंने सत्य पर चलनेवाले लोगों को कभी सम्मान ही नहीं दिया, जो अनैतिक कार्यों से अपनी पहचान बनाई हैं, लोग उनके मरते ही, उनके लिए शत् शत् नमन का प्रयोग करने लगे है, अरे भाई, शत् शत् नमन कोई सामान्य शब्द हैं, कि इसका प्रयोग चिल्लड़ों, मच्छड़ों और गधों के लिए किया जाने लगे।
बहुत ही सटीक चित्रण , आज के समाज के लिए लेकिन कहानी में आज का एक और मोड़ हो सकता था। उस प्रश्न पूछने वाले युवा को गोविन्द पहलवान के बच्चों और उनके गुर्गों ने बेईजत कर पंडाल से बाहर कर दिया और माननीय गोविन्द पहलवान के बधाई के नारे लगाने लगे। उपस्थित गांव वाले या तो चुप रहे या शांति से खिसक लिए , अरे कौन इस पचड़े में पड़े, और पहलवान के परिवार से दुश्मनी मोल ले।