क्या सरकार को मालूम है, गांधी ने धर्मांतरण के साथ-साथ ग्राम स्वराज्य पर भी कुछ बयान दिया है?
गांधी ने केवल धर्मांतरण के उपर ही नहीं, और भी बहुत सारी विषयों पर ज्ञान दिया था, क्या जनाबे आली को वे सारे ज्ञान भी याद है, या केवल धर्मांतरण पर ही जाकर उनकी ज्ञान अटक गयी है? यह सवाल जनता इसलिए पूछ रही है, क्योंकि गत 11 अगस्त को जनाबे आली ने जो अपने सत्ता के गुरुर में रांची से प्रकाशित विभिन्न प्रमुख अखबारों में गांधी का हवाला देते हुए गलत विज्ञापन छपवाया, उससे राज्य की धर्मनिरपेक्ष छवि तथा संविधान की आत्मा को ठेस पहुंची है, कि कैसे कोई सरकार अपने राष्ट्रपिता के बयान को तोड़-मरोड़कर पेश कर सकती है? ये तो राष्ट्रपिता का अपमान है।
अजी छोड़िये, कहां ले आकर बैठ गये, ये तो वह सरकार है, जो हाथी तक उड़ा देती है, तो भला गांधी के बयान को उड़ा दिया तो क्या गलत किया? ये बयान हंसते हुए, हमारे परम मित्र ने मुझे कहा। यह बयान सुनते ही, हम दोनों खूब हंसे, बार-बार ये डॉयलॉग याद कर बहुत देर तक हमलोग हंसते रहे।
इन दिनों झारखण्ड के मुख्यमंत्री रघुवर दास की कृपा से 11 अगस्त को छपे सरकारी विज्ञापन ने झारखण्ड में बवाल मचा रखा है। कई बुद्धिजीवियों को इस विज्ञापन पर कड़ी आपत्ति है। वे खुलकर कहते है कि, भाई कोई भी उद्धरण, जिसे व्यक्ति विशेष द्वारा बुलवाया जा रहा है, आप उसमें उलटफेर कैसे कर सकते है? बशर्ते उक्त व्यक्ति विशेष ने वह बयान दिया हो, ये तो किसी को अधिकार ही नहीं है, ये शत प्रतिशत गलत है। राज्य सरकार को इसके लिए माफी मांगना ही चाहिए, पर कोई हठधर्मिता अपना लें, तो ये अलग बात है। आप अपनी बात मनवाने के लिए, विधेयक की मंजूरी के लिए, एक समुदाय को कटघरे में रखेंगे, उनके खिलाफ विषवमन करेंगे, तो इस बात की इजाजत तो संविधान भी नहीं देता।
आप धर्मांतरण की बात करते है, और उसमें राष्ट्रपिता के बयान को घसीट देते है, जो कभी उन्होंने कहा ही नहीं, लेकिन जो गांधी ने कहा था – ग्राम स्वराज्य। उस ग्राम स्वराज्य को आप कैसे भूल गये? अगर सचमुच में 1947 के बाद बनी कांग्रेस, समाजवादियों और भाजपा की सरकारें, ग्राम स्वराज्य की ओर रुख करती तो फिर ये धर्मांतरण जैसे मुददे रहते ही नहीं, सच्चाई तो यह है कि आजादी के बाद किसी भी सरकार ने जो उचित मुददे है, उस पर ध्यान ही नहीं दिया और ले देकर बैठ गये, ऐसी बात, जिसमें आम जनता की कोई रुचि ही नहीं और न उनसे कोई उनका वास्ता हैं, तो फिर इस धर्म स्वतंत्र विधयेक 2017 से आम आदमी को क्या मतलब?
जरा पूछिये, जिस सरकार ने धर्म स्वतंत्र विधेयक 2017 को सदन से पारित कराया है, कि धर्म क्या है? उसे पता भी है, मेरा दावा है कि सदन में बैठे माननीय धर्म के मूल स्वरुप को नहीं जानते, दरअसल धर्म वह है ही नहीं, जिसे वे मान बैठे है, धर्म तो वह है, जिसे फादर कामिल बुल्के ने विदेश में रहकर समझा और फिर ऐसे व्याकुल हुए कि वे भारत आने के लिए बेचैन हो उठे। बेल्जियम के पादरी फादर कामिल बुल्के भारत आने के बाद तुलसी, वाल्मीकि
और हिन्दी भाषा में ऐसे रमे, कि वे अपने देश को भूल गये। आखिर वह कौन सी ऐसी पंक्ति थी, जो फादर कामिल बुल्के को बेचैन कर दी थी, जरा पूछिये, झारखण्ड के मुख्यमंत्री रघुवर दास से बता पायेंगे? वह पंक्ति थी गोस्वामी तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस की। चौपाई थी –
परहित सरिस धर्म नहिं भाई। परपीड़ा सम नहिं अधमाई।।
जरा इस चौपाई के अर्थ या भाव को ये सरकार समझ पायेगी। इस चौपाई में तो धर्म का सार छुपा है, कमाल है – धर्म के इस मूल स्वरुप को विदेश में बैठे व्यक्ति के कान में बात पहुंचती है और वह बेचैन हो जाता है, और एक हमारे यहां की सरकार है, जो धर्म के नाम पर ही वह सारे अधर्म करने को तैयार है, जिसे धर्म इजाजत ही नहीं देता।
इधर धर्म स्वतंत्र विधयेक 2017 सदन से पारित हो चुका है, एक वर्ग इससे बहुत खुश है, जबकि दुसरा वर्ग नाराज है, जो वर्ग नाराज है, उसे लगता है कि इस सरकार ने उसे ही टारगेट कर इस विधेयक को लायी है, बैठकों और प्रदर्शन का दौर शुरु हो चुका है, एक और नई आग पूरे झारखण्ड को तहस-नहस करने के लिए तैयार है, देखते है, इस आग से ये झारखण्ड बच पाता है या झूलसने को तैयार है, स्थिति फिलहाल ठीक नहीं लगती।
एक सच को प्रतिष्ठित करने के लिए, झूठ का सहारा, गांधी का सहारा, स्वयं गांधी भी स्वर्ग से देखते होंगे तो आश्चर्य करते होंगे कि उनकी पीढ़ी, हर उनके द्वारा कही गई अच्छी बातों को ठुकरा देती है और जो भी अनर्गल बाते हैं, उनमें उन्हें जोड़कर भारत को नुकसान पहुंचाने में लगी है।