योगदा सत्संग आश्रम में आयोजित शरद संगम में बीते वे अविस्मरणीय पल, जो भूलाये नहीं जा सकते
सचमुच अविस्मरणीय, अद्भुत, अकल्पनीय, स्वर्गिक आनन्द जैसा ऐहसास, मैंने जो इन छह दिनों में महसूस किया, वह कभी महसूस नहीं किया था और ऐसा महसूस कराने का श्रेय में बेहिचक योगदा सत्संग मठ से जुड़े ब्रह्मचारी निष्ठानन्द जी को, यहीं अपनी सेवा दे रहे अवकाश प्राप्त श्यामानन्द झा जी, वरिष्ठ पत्रकार श्याम किशोर चौबे एवं अपने दोनों बच्चों को देना चाहुंगा, जिन्होंने ऐसी व्यवस्था कर दी कि मैं इस ईश्वरीय आनन्द के सागर में आखिरकार डुबकी लगा ही लिया।
ऐसे तो मैं योगदा सत्संग मठ पिछले दो सालों से लगातार जा रहा हूं, पर अनौपचारिक रुप से मैं हमेशा आत्मीय रुप से इससे जुड़ा रहा, मेरी पत्नी तो इसी मठ द्वारा संचालित योगदा कन्या विद्यालय की छात्रा रही, मेरे दोनों बच्चे योगदा स्कूल से ही पढ़ाई पूरी की, जबकि बड़ा वाला बच्चा योगदा कॉलेज से इंटर की पढ़ाई भी पूरी की, इस कारण भी योगदा सत्संग मठ हमारे केन्द्र में रहा, यहां के संन्यासियों के प्रति हमारा प्रेम सदैव बना रहा, जो समयानुसार और प्रगाढ़ होता रहा।
न कोई पाखण्ड, न कोई अंधविश्वास और न ही कोई किसी प्रकार की लालच, केवल और केवल अपने गुरुओं के बताएं मार्गों पर चलने की अभिलाषा एवं ईश्वरीय प्रेम के प्रति ललक ही रांची के योगदा सत्संग मठ से जुड़े संन्यासियों और ब्रह्मचारियों को, और संस्थाओं से अलग कर देती हैं, हृदय में सेवा भाव, धर्मनिरपेक्षता व मानवीय मूल्यों के प्रति संवेदना देखनी हो, तो आप योगदा सत्संग मठ जरुर आइये, और रांची में रहकर, अगर आपने रांची के इस अद्भुत संस्थान को नहीं देखा और नहीं जाना तो समझ लीजिये, आप खुद के साथ छल कर रहे हैं, ये हमारे अपने व्यक्तिगत विचार है, क्योंकि ऐसा मैने महसूस किया।
ईश्वरीय स्पंदन, ईश्वरीय प्रेम व उसके आनन्द का अनुभव, जितना वैज्ञानिक तरीके से यहां के ब्रह्मचारी और संन्यासी करा देंगे, मेरा दावा है कि अन्य स्थानों पर ऐसा देखने को नहीं मिलता, शायद यहीं कारण है कि सौ बरस बीत गये, यहां से जिसने भी एक बार जुड़ा, उसका संबंध सदा के लिए जुड़ गया, यहां तो एक बात सामान्य तौर पर प्रचलित है, कि आप एक बार इस संस्था से जुड़ गये तो आप भले ही आप भागना चाहे, पर गुरुजी आपको भागने नहीं देंगे और आपको ईश्वरानुभूति कराकर ही छोड़ेंगे, इसे मैने महसूस भी किया है, क्योंकि अपने जीवन में दो घटनाएं ऐसी घटी, जिसका गवाह मैं स्वयं हूं।
हमारे घर में परमहंस योगानन्द जी की लिखी योगी कथामृत हैं और इसका संस्कृत अनुवाद योगिनः आत्मकथा भी हैं, जिसे हमने पढ़ा है, हमारे घर में परमहंस योगानन्द जी की चर्चा आम बात है, जब भी मेरे दोनों बच्चे आयेंगे, वे बिना रांची के योगदा सत्संग मठ गये, रह नहीं पाते, या हमारे घर कोई भी रिश्तेदार आयेंगे, वे अपने गुरुजी से मिलाने आश्रम जरुर ले जायेंगे, किसी के पास परमहंस योगानन्द जी की फोटो दिख गई या युक्तेश्वर जी, लाहिड़ी महाशय या महावतार बाबाजी की फोटो दिख गई, वे बिना प्रणाम किये नहीं रह पाते।
शायद इसी का प्रभाव था, कि जब दोनों बच्चे इस बार छुट्टी मिलने पर अक्टूबर माह में आये, तो इनकी मुलाकात योगदा सत्संग मठ में ही श्यामानन्द झा जी से हो गई, श्यामानन्द झा जी ने दोनों बच्चों से कहा कि तुम्हारे पिताजी का दो साल हो गया, पाठमाला पढ़ते, इस बार शरद संगम में इन्हें क्रिया दीक्षा लेने का प्रोग्राम तय करो, दोनों बच्चों ने कहा कि पापा जी, इस बार शरद संगम में क्रिया दीक्षा लेना मत भूलियेगा और न ही शरद संगम आपको छोड़ना है, इधर दोनों बच्चों पर श्यामानन्द झा जी के बातों का ऐसा असर हुआ, कि हमारे दोनों बच्चे आध्यात्मिक दबाव बनाना शुरु किये और लीजिये वो दिन आ गई, जब शरद संगम के रजिस्ट्रेशन का दिन आ गया। इसी बीच श्याम किशोर चौबे जी की भी नजर हमारे उपर थी, वो भी चाहते थे कि हमें इस बार शरद संगम में भाग लेना है, वे फोन से हमसे बराबर संपर्क में लगे रहे, और इधर बाकी काम योगदा सत्संग आश्रम के संन्यासी निष्ठानन्द जी ने संभाल लिया और लीजिये मेरा काम आसान हो गया।
शरद संगम प्रारंभ होने के पूर्व हमने संकल्प लिया कि छः दिनों तक कोई अखबार नहीं पढूंगा, कोई चैनल नहीं देखूंगा, अपने पोर्टल विद्रोही24.कॉम को बंद रखूंगा, चाहे हमें कितना भी नुकसान क्यों न उठाना पड़ जाये, अपने मोबाइल से बात करना बंद रखूंगा, बेकार की बातों में नहीं रहूंगा, शत् प्रतिशत समय योगदा के संन्यासियों-ब्रह्चारियों की बातों में ध्यान लगाऊंगा, वो हर चीजें सीखने का प्रयास करुंगा, जो हमें ईश्वर से मिलाती है, उन हर वैज्ञानिक तरीकों को सीखुंगा, जो हमें ध्यान की ओर लगाती है, और 30 नवम्बर को सुबह 6.30 से जो योग व ध्यान की शिक्षा लेनी जो जारी की, उसका सिलसिला आज 5 दिसम्बर तक चलता रहा।
लांस एंजिल्स से स्वामी चिदानन्द की पहले दिन की वो बातें, कि ऊं में तीन पहलू हैं, सृष्टि, स्थिति व विलय व ईश्वरीय अनुभूति, अद्भुत प्रेम व आनन्द की चर्चा, हमारे दिल में घर बना चुकी थी, कोई एक ऐसा दिन नहीं था, जब हमने ब्रह्माण्डीय ऊर्जा को महसूस नहीं किया हो, मठ से घर आने-जाने के क्रम में गुरु जी का ऐहसास हमेशा हमें रोमांचित करता, मुझे अब चिन्ता नहीं थी, मुझे हमेशा लगता कि गुरुजी हमारे साथ है, यहीं नहीं स्वामी स्मरणानन्द, स्वामी ईश्वरानन्द, स्वामी नित्यानन्द, स्वामी हितेषानन्द, ब्रह्मचारी निष्ठानन्द की बताई हं-सः प्रविधि और आलोकानन्द की बताई ओम प्रविधि सभी के हृदयों को छु रही थी। शक्ति संचार व्यायाम को बताने में लगे ब्रह्मचारी शीलानन्द ने हंसते-हंसाते सभी भक्तों को इस विधा में पारंगत कर दिया था।
देश-विदेश से आये, मठ में परिभ्रमण करते, इसके शांत वातावरण, यहां के विभिन्न मंदिरों व सेवालयों में परम आनन्द का अवलोकन करते भक्तों की आंखों से परमहंस योगानन्द के प्रति छलकते प्रेमाश्रु अद्भुत दृश्य का निर्माण कर रहे थे, ये बता रहे थे कि यहां आये लोगों के हृदय मे रांची का क्या स्थान है? मुख्य पंडाल में चल रहे रात्रि के भजन कार्यक्रम में उत्तर-प्रदेश से आये एक भक्त ने बताया था कि छः महीने पहले, वो बहुत क्रोध व तनाव में रहता था, पर जैसे ही वो योगदा के गुरु परम्परा और ध्यान से जुड़ा, उसका तो जीवन बदल गया, वो तो बिना क्रिया लिये जायेगा ही नहीं। जिस दिन क्रिया योग की दीक्षा चल रही थी, जब आंध्र प्रदेश की एक छोटी सी प्यारी सी बच्ची जो कॉलेज की छात्रा थी, जब क्रिया योग की दीक्षा लेने आगे बढ़ी, तो मेरे बगल में बैठे एक सज्जन के मुंह से अनायास एक वाक्य निकल पड़ा – एक हम है, जो साठ साल में ज्ञान खुले कि क्रिया लेनी है, और इस बच्ची को देखो, इतने कम उम्र में क्रिया मिल रही है, सब गुरुजी की कृपा है, और क्या कह सकते हैं।
सचमुच शक्ति संचार व्यायाम की बातें हो या ध्यान की बातें या विभिन्न विषयों पर रोचक चर्चाएं या ज्ञान के गूढ़ रहस्य से पर्दे उठाने की बात हो, यहां एक से बढ़कर एक ब्रह्मचारी दिखे, एक से बढ़कर एक संन्यासी दिखे, जिनके पास ज्ञान का अथाह सागर है, मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि झारखण्ड में योगदा सत्संग मठ में ज्ञाननिधि का कभी क्षय नहीं होनेवाला भंडार है, और जो इसे लेने से चूक रहा है, वो स्वयं सोचे कि वो क्या कर रहा हैं? सच्चाई यह भी है कि इसे समझने और जानने के लिए ईश्वरीय कृपा भी होनी चाहिए।
जरा देखिये पांचवे दिन चैंटिग और प्रतिज्ञापन के महत्व पर चर्चा हो रही थी, और जब शब्द और ऊं पर चर्चा चलने लगी तो पंडाल में बैठे, एक भी व्यक्ति हमें ऐसा देखने को नहीं मिला, जिसे जल्दी थी, वो तो और-और चलने देने की बात कर रहे थे, पर चूंकि समय निर्धारित थी, बेचारे ब्रह्मचारी और भक्त भी क्या कर सकते थे, फिर भी 20 मिनट ज्यादा इस पर चर्चा सुनने को मिला, जो हमारे ज्ञानकोष को और बढ़ा दिया, सचमुच हम वो जान पाये, जिस जानकारी को पाने के लिए हम बचपन से उत्सुक थे।
आज अंतिम दिन, सभी जाने की तैयारी कर रहे हैं, सभी का गला अवरुद्ध हैं, बोलना चाहते हैं, पर बोल नहीं पा रहे हैं, उनकी ऐहसासों को समझने की कोशिश कर रहा हूं, पर समझने की हिम्मत हममें अब नहीं, क्योंकि ये तो प्रेमाश्रु हैं, भला इसे कौन रोक पाया है, गुरुजी अपने भक्तों के नेत्रों से छलकते अश्रुओं को देख रहे हैं, और भरपुर आशीर्वाद देकर, आनन्द देकर, अपने दोनों अदृश्य हाथों से स्नेहाशीष देकर, विदा कर रहे हैं, सचमुच ये दृश्य बहुत ही आनन्द व प्रेम को देनेवाला है।
मैं तो सोचता हूं कि अब जब भी कभी शरद संगम या रिट्रीट का आयोजन होगा, मैं हमेशा भाग लूंगा, भला ऐसे समय में, सुरदास के दोहे को मैं कैसे भूल सकता हूं, जब वे कहते है – मेरो मन अनत कहा सुख पावै, जैसे उड़ी जहाज की पंछी, फिरि जहाज पर आवै, मेरो मन अनत कहा सुख पावै। गुरु जी आप हमें बहुत याद आ रहे हैं, आप को मेरा बारम्बार प्रणाम स्वीकार हो, आप हमें आशीर्वाद दें कि जो संकल्प हमने लिया, वो पूरा हो, जय गुरु।
जय जय गुरुदेव।।
।।जय जय नारायण।।