BJP ने राज्य को छत्तीसगढ़ का रघुवर दिया तो कांग्रेस ने कर्नाटक का अजय थमाया, झारखण्डियों बजाओ झुनझुना
हमें एक चीज समझ में नहीं आता कि जब झारखण्ड में बाहरियों का ही राजनीतिक दबदबा बनाये रखना था तब भाजपाइयों और कांग्रेसियों ने अलग झारखण्ड बनाने में ज्यादा जोर क्यों लगाया? यह राज्य बिहार में ही था तो क्या गलत था? और जबकि ये अलग राज्य बन गया हैं तो फिर यहां के लोग राज्य के मुख्यमंत्री पद पर क्यों नहीं रहे या किसी राष्ट्रीय पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष का बागडोर क्यों न संभालें, आखिर बाहर के प्रदेशों के लोग यहां राजनीति क्यों चमकायें, वह भी तब, जबकि वे अपने प्रदेशों में पंचायत का चुनाव भी नहीं जीत सकते।
झारखण्ड ऐसे भी एक लोकोक्ति का बहुत सुंदर उदाहरण बन कर रह गया है, “घर का जोगी जोगरा, बाहर का जोगी सिद्ध।” ऐसे भी यहां के लोगों को मैंने देखा है कि ये अपने लोगों को उतना सम्मान नहीं देते, जितना बाहरियों के झोले ढोने या बक्से उठाने में खुद को महान समझने में अपना जीवन खपा देते हैं, जरा देखिये झारखण्ड में क्या हो रहा है, जो झारखण्ड के आदिवासी है या मूल-निवासी है, वे वर्तमान में सभी महत्वपूर्ण पदों से गायब है, पत्रकारिता जगत में तो एक तरह से एकदम साफ है, वहीं पुलिस व्यवस्था हो या राजनीतिक दलों की जमात कहीं भी ये दिखाई नहीं पड़ते, और अगर ये कही दिख गये तो लीजिये, ये शीर्ष पदों पर जाते-जाते ही, उनकी ऐसी टांग खिचाई हो जाती है कि ये गलती से अगर महत्वपूर्ण पदों पर पहुंच भी गये तो ज्यादा दिनों तक ठीक से दिखाई भी नहीं पड़ते।
सच्चाई यह है कि अगर यहीं स्थिति रही तो जो पलायन और विस्थापन की स्थिति है, यहां के मूलनिवासी अथवा आदिवासी अपने ही राज्य में बेगाने हो जायेंगे तथा जुल्म के शिकार हो जायेंगे। हमारा सवाल सबसे पहले भाजपा से, क्या झारखण्ड की मिट्टी में जन्मा उसे एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं मिला, जो राज्य को नई दिशा दें और यहीं सवाल कांग्रेस पार्टी के दिल्ली स्थित स्वयं को महान कहनेवाले कांग्रेसियों से कि उन्हें राज्य में एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं मिला, जो कांग्रेस को नई दिशा दे सकें तथा उसे ऊंचाइयों पर ले जा सकें या प्रदेश अध्यक्ष के पद के लायक हो।
अब कांग्रेसी ही बताये कि किस मुंह से वे, छत्तीसगढ़ से आये एक व्यक्ति जो राज्य का मुख्यमंत्री बन चुका है, उसकी आलोचना करेंगे, जबकि वे खुद कर्नाटक से लाकर एक व्यक्ति को प्रदेश अध्यक्ष जैसे महत्वपूर्ण पद की जिम्मेवारी थमा दी, हमें तो लगता है कि इस मुद्दे पर झामुमो भी बैकफूट पर आ गई है, अब वो कौन मुंह से भाजपा की इस मुद्दे पर आलोचना करेगी कि भाजपा ने राज्य के बाहर के एक व्यक्ति को राज्य की बागडोर सौंप दी, जिसे झारखण्ड की जानकारी ही नहीं, अब तो झामुमो से भी लोग सवाल करेंगे, कि आपने उस पार्टी से कैसे समझौता कर लिया, जिसने अपने अध्यक्ष पद पर ही बाहरी को लाकर बैठा दिया।
ये मैं इसलिए लिख रहा हूं कि झारखण्ड में बाहरी-भीतरी की लड़ाई, झारखण्ड के जन्म से ही प्रारम्भ हुई है, डोमिसाइल उसी की बानगी है, और जब नौकरी में स्थानीयता को लेकर 1932 को लोग याद करते हैं, तो फिर राजनीति में 1932 क्यों नहीं भाई, वो इसलिए कि दरअसल सभी पार्टियों ने झारखण्ड को उपनिवेशवाद का शिकार बना दिया, इन राष्ट्रीय पार्टियों को यहां के लोगों तथा यहां के विकास से कोई मतलब नहीं, इन्हें बस यहां की 14 लोकसभा सीटों पर नजर रहती है कि वह कैसे उसकी झोली में आ जाये, चाहे उसके लिए कोई तिकड़म क्यों न भिड़ाई जाये।
भाजपा में तो इस मुद्दे पर कभी-कभार वह भी दबी आवाज में लोग रघुवर दास पर टिप्पणी अब करने लगे हैं, पर कांग्रेस में इसके विरोध के स्वर अंदर ही अंदर सुलग रहे हैं, बहुत सारे कांग्रेस के नेता अभी भी अजय कुमार को प्रदेश अध्यक्ष के रुप में मन से नहीं स्वीकार किये हैं, पर उनकी मजबूरी है, वे कांग्रेस के खिलाफ जा नहीं सकते, इसलिए समय का इन्तजार कर रहे हैं, आनेवाले समय में अगर कांग्रेस को अपेक्षित सफलता नहीं मिली तो अजय कुमार के उपर ये ठीकरा फोड़ने के लिए भी ये तैयार बैठे हैं।
सूत्र बताते है कि झाविमो से कांग्रेस का दामन थामे अजय कुमार कितना भी जोर लगा लें, ये झारखण्ड मे स्थापित नहीं हो सकते, क्योंकि इनकी सोच कभी झारखण्डी नहीं हो सकती, जीत-हार अलग चीज हैं, पर राज्य की जनता के दिलों में जगह बनानी अलग बात है, अगर कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष बनाने के लिए उपर से थोपने की ये परंपरा अनवरत चलती रही तो कांग्रेस को इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ेगा, क्योंकि ऐसे हालत में कांग्रेस की जो बची खुची सीट है, उस पर भी अन्य दलों का कब्जा हो जायेगा और राष्ट्रीय पार्टी का तमगा लिए कांग्रेस, सभी दलों की पिछलग्गु बन कर यहां रह जायेगी।